Thursday, May 15, 2014

असली विकास तभी होगा...

इस बार का जनादेश पहले के जनादेशों से बहुत खास और अलग है। जनता ने तो अपना काम कर दिया। अब बारी उन नेताओं की है जो केंद्र की सत्ता पर काबिज होने जा रहे हैं। उन्हें किसी भी हालत में लोगों की उम्मीदों पर खरा उतर कर दिखाना है। इस बार लेटलतीफी और बहानेबाजी नहीं चलने वाली। वादाखिलाफी को बर्दाश्त करने की तो ताकत ही नहीं बची है देशवासियों में। देशवासी वाकई अच्छे दिन देखने को आतुर हैं। इन चुनावों में जमकर धन बरसा है। कार्पोरेट घरानों ने भाजपा के लिए कहीं कोई कंजूसी नहीं दिखायी। लोगों को डर है कि नयी सरकार कहीं इनकी ही न होकर रह जाए। लोग भ्रष्टाचार और घूसखोरी से निजात चाहते हैं। लोगों को हर हालत में महंगाई और अराजकता से मुक्ति चाहिए। इस देश की आबादी १२० करोड के आसपास है। इसमें २५ से तीस करोड लोग ऐसे हैं जिनका उच्च और मध्यम वर्ग से अटूट नाता है। अपने में मस्त रहने वाली यह आबादी हद दर्जे की सुविधा भोगी है। अभी तक की सरकारें इन्ही पर मेहरबान रही हैं। बडे ही योजनाबद्ध तरीके से अधिकांश सरकारी योजनाओं का फायदा इन्हीं की झोली में जाता रहा है। मुल्क में १०० करोड से ज्यादा लोग गरीब हैं, जिनकी असली हालत के बारे में हुक्मरानों को पता होने के बावजूद भी उन्हें अनदेखा करने की परिपाटी रही है। जबकि सच्चाई यह भी है कि सरकारें इन्हीं के वोटों की बदौलत ही बनती हैं। इस देश का उच्च और मध्यम वर्ग तो मतदान के प्रति कभी भी ज्यादा गंभीर नहीं रहा। उसमें वो उत्सुकता ही नहीं दिखती जो दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश के जागृत लोगों में दिखनी चाहिए। यह भी काबिलेगौर है कि भारतीय राजनीति, सत्ता और व्यवस्था में इन्हीं का ही वर्चस्व रहा है। जिसकी वजह से गरीब और गरीब होते चले गये और धनवानों की जमीन जायदादों, उद्योगधंधों और तिजोरियों की संख्या में अभूतपूर्व इजाफा होता चला गया। मुल्क के गरीब आदमी के पास इतने पैसे ही नहीं होते कि जिनसे वह दैनिक जरूरतों की चीज़े खरीद सके। उसे मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध करवाने के बजाय बार-बार यह बताया जाता है कि दिल्ली जैसे विराट महानगर में पांच-सात रुपये में भरपेट खाना मिल जाता है। मुंबई में भी बारह रुपये में भोजन की आलीशान थाली उपलब्ध हो जाती है। दरअसल, गरीबों का मजाक उडाने में नेताओं को बडा मज़ा आता है। इस सच से हर कोई वाकिफ है। देश की दबी-कुचली जनता चाहती है कि इतिहास को फिर से न दोहराया जाए। अच्छे दिन लाने के नारे उछालने वाले अब सबसे पहले उनके हित की सोचें। क्या नये नायक हालात बदल पायेंगे? यकीनन बडे ही चिं‍ताजनक हालात हैं। यहां यह भी बताना जरूरी है कि इस बार की संसद में भी उन सांसदों की संख्या ज्यादा है जिन्होंने लोकसभा चुनाव में पानी की तरह पैसा बहाया है। किसी ने पच्चीस करोड तो किसी ने ५० से १०० करोड तक लुटाकर येन-केन-प्रकारेण चुनावी जीत हासिल की है। अब यह लोग किस तरह से देश का कल्याण करेंगे यह देखना 'नायक' की जिम्मेदारी है। वैसे अपने तो कुछ भी समझ में नहीं आता। फिर भी करोडो लोगों के सपनों और उनकी अथाह उम्मीदों को कत्ल होते अब तो कोई भी सजग इंसान देखना नहीं चाहता। हर किसी की एक ही तमन्ना है। इस देश की तस्वीर किसी भी हालत में बदलनी चाहिए। गरीबी, भूखमरी, बदहाली, अशिक्षा, बेरोजगारी ने लोगों की नाक में दम करके रख दिया है। अराजक तत्व बेलगाम हो गये हैं। अब तो अपराधियों पर कानून का ऐसा डंडा चले कि कोई भी अपराधी अपराध करने से पहले हजार बार सोचे और आखिरकार कानून का खौफ उसके हौसले पस्त कर दे। विदेशी बैंकों में जमा भारतीयों का काला धन तो जब आयेगा तब आयेगा, लेकिन नयी सरकार को देश में भ्रष्टों के भंडारों में दबे-छिपे काले धन को बाहर लाने की पहल करके देश को आश्वस्त करना होगा। इसी धन से देश की तस्वीर और तकदीर बदल सकती है। इस काम को करने के लिए बहुत बडे हौसले की जरूरत है, क्योंकि अधिकांश काली दौलत राजनेताओं, सत्ता के दलालों और काले धंधे के महारथियों के तहखानों में भरी पडी है।
भ्रष्टाचार, काला धन, घूसखोरी और भाई-भतीजावाद देश की सबसे बडी समस्याएं हैं। आतंकवाद और नक्सलवाद देश के चेहरे के वो जख्म हैं जो हमेशा डराते रहते हैं। बाहर के आतंकवादियों से ज्यादा देश में छुपे नकाबपोशों से ज्यादा खतरा है। इनकी पहचान होनी ही चाहिए। नक्सली तो देश के माथे का ऐसा कलंक हैं जिन्हें यकीनन हमारी व्यवस्था ने ही जन्म दिया है। आजादी के इतने वर्षों के गुजर जाने के बाद भी आदिवासी बदहाली के शिकार हैं। जब सरकारें उनके लिए कुछ नहीं करतीं तो वे नक्सलियों के बहकावे में आ जाते हैं। किसी भी देश का इससे बडा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है कि देश के भटके हुए लोगों के हाथों सुरक्षा जवानों को शहीद होना पडे। यह तो अपनों के ही हाथों से अपनों की हत्या है। छत्तीसगढ और महाराष्ट्र में नक्सलियों के हाथों मारे जाने वाले पुलिस जवानों का आंकडा दिल को दहला कर रख देता है। व्यवस्था से नाखुश होकर आतंक की राह अपनाने वाले नक्सलियों को समझाना-बुझाना और पटरी पर लाना नयी सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए। आखिर वे इसी धरती पर जन्मे हैं। यहीं के वासी हैं। उन्हें अभी तक ठीक से समझाने और आश्वस्त करने की कोई ठोस पहल नहीं की गयी। सरकार चाहे तो क्या नहीं कर सकती। नयी सरकार इस हकीकत से मुंह नहीं मोड सकती कि देश का लगभग एक तिहाई हिस्सा नक्सवाद की चपेट में आ चुका है। नक्सलियों को यदि मुख्य धारा में नहीं लाया गया तो देश के विकास के कोई मायने ही नहीं होंगे।

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