इनकी फितरत ही ऐसी है। दूसरों पर दोष मढकर बच निकलना इनकी आदत में शुमार है। जनता मरती रहे इन्हें कोई फर्क नहीं पडता। पल्ला झाडना और भाग निकलना इनकी पुरानी आदत है। देश का प्रदेश बिहार गरीबी और पिछडेपन से उबर नहीं पाया। उस पर यहां के राजनेता भी नौटंकी करने से बाज नहीं आते। प्रदेश लोगों को रोजगार नहीं दे पाता तो उन्हें दूसरे प्रदेशों की खाक छाननी पडती है। प्रदेश में कानून व्यवस्था के भी सदा बारह बजे रहते हैं। शासन और प्रशासन में कोई तालमेल नजर नहीं आता। हादसे पर हादसे होते रहते हैं। शासकों की तंद्रा है कि टूटने का नाम ही नहीं लेती। उनकी बेहोशी लोगों को कैसे-कैसे दर्द दे जाती है! पटना के गांधी मैदान में ऐन रावण दहन के समय ऐसी भगदड मची कि ३४ लोगों की कुचलकर मौत हो गयी और १०० से ज्यादा बुरी तरह से घायल हो गये। प्रशासन की घोर लापरवाही के चलते इतनी दर्दनाक दुर्घटना हो गयी और प्रदेश के मुख्यमंत्री अनभिज्ञ बने रहे! इस लापरवाह मुख्यमंत्री ने पूरे देश को चौंका दिया। जब उन पर चारों तरफ से उंगलियां उठने लगीं और मीडिया लताडने पर उतर आया तो उन्होंने फरमाया कि दलित होने के कारण ही मेरे ऊपर हमले पर हमले किये जा रहे हैं। ऐसे हादसे तो दूसरे प्रदेशों में भी होते रहते हैं, लेकिन वहां के मुख्यमंत्रियों पर तो इस तरह से गाज नहीं गिरायी जाती। मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी ने जवाबदारी से बचने के लिए जो 'दलित राग' अलापा उसी ने उनकी सोच की सीमा तय कर दी। यह भी पता चल गया कि वे किस मिट्टी के बने हैं। जिन परिवारों के मासूम बच्चे और महिलाएं उनसे सदा-सदा के लिए बिछड गये उनके प्रति सहानुभूति दर्शाने की बजाय मांझी अपनी कुर्सी को बचाने की चिन्ता में इतने भ्रमित हो गये कि शातिरों वाली बोली बोलने लगे। उनके दलित गान से यह भी तय हो गया कि उनके मन में यह बात घर कर चुकी है कि दलित होने के कारण ही उन्हें बिहार का मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला है। यानी दलित होना ही उनकी एकमात्र योग्यता है। वैसे भी बिहार के मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी, लालबहादुर शास्त्री तो हैं नहीं कि मानवीयता और नैतिकता की उम्मीद की जाए। मांझी को पता है कि उन्हें राजनीतिक मजबूरी के चलते सत्ता सौपी गयी है। इसलिए उनमें अपने कर्तव्य के प्रति नाम मात्र की भी गंभीरता नहीं है। जब देखो तब बेवकूफों वाले बयान देकर लोगों का मनोरंजन करते हुए हंसी के पात्र बनते रहते है। सच तो यह भी है कि अब हिन्दुस्तान में लालबहादुर जैसे नेक नेता पैदा ही नहीं होते। ध्यान रहे कि लालबहादुर शास्त्री, पंडित जवाहरलाल नेहरू की सरकार में जब रेलमंत्री थे तब एक रेल दुर्घटना हो गयी। शास्त्री जी इससे इतने अधिक आहत हुए कि उन्होंने नैतिकता के आधार पर रेलमंत्री की कुर्सी को त्यागने में जरा भी देरी नहीं लगायी। उनके इस निर्णय की आज भी चर्चा होती रहती है। देशवासियों का सीना गर्व से तन जाता है यही त्यागी नेता बाद में देश के प्रधानमंत्री भी बने और अपने अल्प कार्यकाल में स्वर्णिय इतिहास रच डाला। शास्त्री जी का दौर पूरी तरह से गायब हो चुका है। आज का दौर तो शरद पवार जैसे सत्तालोलुप नेताओं का है। जिनके लिए जनता महज वोटर है। वोट के लिए यह लोग कुछ भी कर सकते हैं। पाले पर पाला बदलने में भी इन्हें कोई संकोच नहीं होता। दरअसल, बिहार के मांझी और महाराष्ट्र के पवार में ज्यादा फर्क नहीं है। दोनों ही सत्तालोलुपता और निष्ठुरता की जीती-जागती तस्वीर हैं। इनके इर्द-गिर्द के लोगों, रिश्तेदारों और खुद इनको भ्रष्टाचार करने की खुली छूट होती है। इनके सत्ता में रहते आम लोगों का कोई भला नहीं होता। इनके साथी मालामाल हो जाते हैं। फिर भी यह दलितों और शोषितों के मसीहा होने का भ्रम पाले रहते हैं। महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर के लोग २३ नवंबर १९९४ के उस काले दिन को याद कर आज भी कांप जाते हैं जब अपना हक मांगने के लिए शांतिपूर्ण आंदोलन कर रहे भूखे-प्यासे गोवारी आदिवासियों पर बर्बरतापूर्वक लाठियां भांजी गयी थीं और १२० निर्दोष मौत के मुंह में समा गये थे और पांच सौ से अधिक लोग घायल हुए थे। तब शरद पवार ही महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे। उपराजधानी में शीतकालीन सत्र चल रहा था। हजारों लोग अपने-अपने गांव और शहरों से ट्रकों, बसों एवं पैदल चलकर मोर्चे में शामिल हुए थे। राजधानी मुंबई उनकी पहुंच से बाहर थीं। उपराजधानी में आयी सरकार को अपनी फरियाद सुनाने का उन्हें बेहतरीन मौका मिला था। उन्हें यकीन था कि मुख्यमंत्री शरद पवार उनकी समस्या की तह तक जाकर सार्थक हल निकालेंगे। लेकिन पवार के पास तो उनकी सुनने के लिए जरा भी वक्त नहीं था। मंत्री भी अपनी मस्ती में चूर थे। सुबह से शाम हो गयी, लेकिन बदहाल आदिवासियों की समस्या को सुनने के लिए न मुख्यमंत्री आए और न कोई मंत्री। ऐसे में पसीने से तरबतर लोग निराश और हताश हो गये और तनाव बढता चला गया। किसी गुस्साये युवक ने बेरिकेट उठाकर पुलिस वालों पर फेंक दिया। पुलिस वालों ने भी अपनी मर्दानगी दिखाने से जरा भी देरी नहीं लगायी। छोटे-छोटे बच्चों, बूढों और महिलाओं पर लाठियां बरसने लगीं। फिर तो ऐसी भगदड मची कि लोग एक-दूसरे को कुचलते, रौंदते हुए भागने लगे। देखते ही देखते लाशें बिछ गयीं। तब तक मुख्यमंत्री शरद पवार नागपुर से उडकर मुंबई पहुंच चुके थे। उन्होंने इतनी बडी लापरवाही के लिए खुद को दोषी नहीं माना। वे अगर चाहते तो उनके लिए समय निकालना मुश्किल नहीं था। वैसे भी वे और उनके राजनीतिक साथी दलितों, शोषितों और आदिवासियों के पिछडेपन के गीत गाते नहीं थकते। उनके वोटों को हथियाने के लिए एक से बढकर एक हथकंडे अपनाये जाते हैं, लेकिन जब उनके लिए कुछ करने की बारी आती है तो कन्नी काट जाते हैं। पवार ने भी तब बहाना बनाया था कि उनके मुंबई जाने का कार्यक्रम पहले से ही तय था। लेकिन समस्याग्रस्त आदिवासी तो सुबह से ही नागपुर में डेरा डाल चुके थे। पवार अगर उन्हें कुछ पल दे देते तो यह मौतें नहीं होतीं। गोवारी हत्याकांड के बाद यह जरूर हुआ कि शहर में नये-नये नेताओं की बाढ आ गयी है। उनकी बयानबाजियों ने देखते ही देखते अखबारों पर कब्जा जमाना शुरू कर दिया। कुछ की ऐसी किस्मत चमकी कि वे बडे नेता बन गये। जो आजकल प्रदेश से देश तक की राजनीति में छाये हैं।
Thursday, October 9, 2014
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