Thursday, October 16, 2014

नकाबपोशों की मक्कारी

महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में कई कारनामे हुए। खूब नोट बरसे। हर प्रत्याशी ने अपनी पूरी ताकत लगा दी। जीत-हार बाद की बात है। पर जीतने के लिए क्या-क्या नहीं किया गया। साम-दाम-दंड-भेद... सबको आजमाया गया। सभी पर भारी पडे भाजपा वाले। पता नहीं कहां से आयी इतनी माया? दोनों हाथ से लुटाने की दिलदारी दिखायी गयी। ऐसी विज्ञापनों की बरसात कि सभी अखबारीलाल भीग गये। लगभग सभी ने भाजपा की आरती गायी। इस पार्टी के हर उम्मीदवार ने सुर्खियां पायीं। इसी को कहते हैं थैलियों का चमत्कार। मीडिया की मेहरबानी से वही वंचित रह गए जिनकी जेबे खाली थीं। आज के दौर में चुनाव तो पूरा का पूरा धन का खेल है। गरीब के लिए सांसद या विधायक बनना नामुमकिन है। यह बात कल भी तय थी और आज भी। राजनीतिक पार्टियां, सिद्धांतों के ढोल तो पीटती हैं, लेकिन जब चुनावी टिकट देने का समय आता है तो समर्पित कार्यकर्ता को किनारे कर थैलीशाहों को आगे कर दिया जाता है। इस बार के विधान सभा चुनाव में गठबंधनों के ध्वस्त हो जाने के कारण लगभग सभी को चुनाव लडने का मौका मिल गया। जिनसे पार्टी ने दगाबाजी की वे निर्दलीय खडे हो गये। बिना धन के चुनाव लडने वालों की दशा और दिशा का तो पता चुनाव परिणाम आने के बाद ही चलेगा। लेकिन जिसमें थोडा भी धन का बल था उसने अपनी औकात से ज्यादा छलांगें लगायीं। धनवालों का तो कहना ही क्या। शराब, बर्तन और कपडे खूब बंटे। तिजोरियों के मुंह खोल डाले गये। भाजपा के एक दिग्गज नेता, जो केंद्र में मंत्री भी हैं, ने एक चुनावी मंच पर मतदाताओं को सीख दी कि नोट तो सभी से ले लेना, लेकिन वोट भाजपा को ही देना। कहते हैं कि जो दिल में होता है और जो चरित्र होता है वो अंतत: उजागर हो ही जाता है। महाराष्ट्र के पूर्व गृहमंत्री भी कम नहीं निकले। उन्होंने अपने विरोधी प्रत्याशी की बलात्कार की खबरें मीडिया में छाने पर बडी मासूमियत से समझाइश दी कि अगर बलात्कार करना ही था तो चुनाव के बाद करते। यह है हमारे देश के नेताओं का असली चेहरा। यह जनता को चरित्रहीन और बेइमान होने की सीख जितनी आसानी से देते हैं उतनी ही चालाकी से यह भी कह देते हैं कि हम मजाक कर रहे थे। हमारी तो जुबान फिसल गयी। वाह भाई वाह!
चुनावी मंचों पर चरित्रवान होने की ढपली बजाने वालों के शागिर्दो ने इस बार के मतदान से एक दिन पहले झुग्गी-झोपडियों में जाकर मतदाताओं को न केवल पैसे बांटे बल्कि शराब से भी नहला दिया। साडियों, कंबलों और सायकिलों की भी सौगात दी गयी। नवी मुंबई में एक दमदार उम्मीदवार द्वारा एक हाउसिंग सोसायटी में हर फ्लैट में पांच-पांच हजार रुपये बांटे। ऐसे और भी कई राष्ट्र सेवक हैं जिन्होंने ऐसे ही अंधाधुंध धन बरसाया, लेकिन खबर बनने से बच गये। मुंबई के वर्ली इलाके में ऐसे चार ट्रक जब्त किये गए जिनमें बर्तन, प्रेशर कुकर और अन्य गिफ्ट के सामानों का जखीरा भरा पडा था। जब चार ट्रक पकडे गये तो चालीस ट्रक पकड में आने से बच भी गए होंगे। सभी तो बदकिस्मत नहीं होते। उपहार पाने वालों ने किस पार्टी और प्रत्याशी को वोट दिया इसका पता तो ऊपर वाला भी नहीं लगा सकता। आज का मतदाता बहुत चालाक हो चुका है। यह कहना भी मतदाताओ का अपमान होगा कि सभी मतदाता बिकते हैं। बहुतेरों की मजबूरी उन्हें झुकने और बिकने को मजबूर कर देती है। कुछ पर उन नेताओं का असर भी काम कर जाता है जो उन्हें चुनावी दौर में मिलने वाले प्रलोभन और धन को हंसी-खुशी स्वीकार करने की नसीहत देते नहीं थकते। यह भी सच है कि ईमानदार नेताओं को मतदाताओं को लुभाने के लिए किसी भी तरह के हथकंडे नहीं अपनाने पडते। मतदाता ऐसे चेहरों को अच्छी तरह से पहचानते हैं। उन्हें पता होता है कि कौन हद दर्जे का भ्रष्टाचारी है। किसने विधायक, सांसद और मंत्री रहते किस-किस तरह की अंधेरगर्दियां की हैं। साफ-सुथरी छवि वाले नेता अगर अपने क्षेत्र में प्रचार के लिए कम समय निकाल पाते हैं तो भी मतदाता उन्हें विजयी बनाने में देरी नहीं लगाते। दुराचारियों और भ्रष्टाचारियों को धन और खून-पसीना बहाना ही पडता है। फिर भी उसकी जीत तय नहीं होती। भाजपा, शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस ने इन विधानसभा के चुनावों में विज्ञापनों पर करोडों-अरबो फूंक डाले। लेकिन किसी भी पार्टी के विज्ञापन में गरिबी, बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार को दूर करने की बात नहीं की गयी। यह भी नहीं बताया गया कि यह दल देश को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं। इनकी असली मंशा क्या है? सभी एक दूसरे को कोसते और कमतर दर्शाते दिखे। विज्ञापनों का तूफान बरपा करने वाली भाजपा के हर प्रचार में नरेंद्र मोदी इस तरह से छाये रहे जैसे कि वे मुख्यमंत्री बनने की होड में हों। देश के प्रधानमंत्री को कभी भी ऐसी 'मुद्रा' में नहीं देखा गया। चुनावी रैलियों में जबरदस्त भाडे की भीड जुटायी गयी। रैलियों में वो लोग भी शामिल हुए जिनका उस विधानसभा क्षेत्र से कोई नाता नहीं था जिसके लिए वे भीड बने नारेबाजी कर रहे थे। रुपये देकर धडाधड समाचार छपवाये गये। अखबार मालिकों और संपादकों ने जमकर चांदी काटी। सभी के उसूल धरे के धरे रह गये। एक बुद्धिजीवी किस्म के संपादक को इस चलन पर थोडी पीडा हुई। उसने अपनी असहमति दर्शायी तो मालिकों ने उसे झिडक दिया कि अपना प्रकाश और ज्ञान अपनी जेब में रखो। अखबार धन के दम पर चलते हैं। तुम्हें हम वर्षों से पाल रहे हैं क्या यही कम है? सलाहकार संपादक होने का यह मतलब तो नहीं है कि तुम हमीं को सीख देने पर उतर आओ। अखबार वालो की यही तो असली दीवाली है प्रगतिशील संपादक महोदय...। बेचारे सलाहकार संपादक के चेहरे का तो रंग ही उड गया। लेकिन असली सच यह भी है कि अगर वाकई उसे सच्ची पत्रकारिता से लगाव होता तो वह ऐसे मालिकों के यहां बीते बीस वर्ष से नौकरी नहीं बजा रहा होता। पत्रकारिता में ऐसे न जाने कितने ढोंगी भरे पडे हैं जिनके चेहरे पर भ्रष्ट नेताओं की तरह पता नहीं कितने नकाब चढे हुए हैं।

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