Wednesday, October 22, 2014

वायदों के दीप जलने का इंतजार

हम उत्सव प्रेमी भारतीय सदियों से दीपोत्सव मनाते चले आ रहे हैं। दीपावली का अर्थ सिर्फ मिठाई खाना, फटाखे छोडना, जुआ खेलना और दीप जलाना ही नहीं है। फिर भी अधिकांश लोगों और खासकर नव धनाढ्यों के लिए तो दीवाली के यही मायने हैं। उन्हें अपने आसपास का अंधेरा दिखायी ही नहीं देता। उनके लिए दीपावली झूमने-गाने और अपने काले धन के मायावी प्रदर्शन का मनचाहा माध्यम है। हमारे बुजुर्गों की इस त्योहार को मनाने के पीछे यकीनन यही मंशा रही होगी कि हम दीपों के प्रकाशोत्सव से अपना घर-आंगन ही न महकाएं और सजाएं बल्कि सर्वत्र ऐसा प्रकाश फैलाएं कि जाति-धर्म और गरीब अमीर का भेदभाव ही मिट जाए। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। देश को आजाद हुए ६७ साल गुजर गये। सदियों से चली आ रही भेदभाव की नीति का खात्मा करने की बजाय इस बीमारी को और अधिक लाइलाज बना दिया गया है। न जाने कितनी बार रावण के पुतलों को तो फूंका गया लेकिन रावणी दुर्गणों का अंत नहीं हो पाया। जातिवाद, छुआछूत और साम्प्रदायिकता के नाग के फन को कुचला नहीं जा सका। जब-तब इसका जहर निर्दोषों की जान ले लेता है। राजनेता, समाजसेवक और बुद्धिजीवी किकर्तव्यविमूढ की स्थिति में नजर आते हैं। सामंती ताकतें आज भी इतनी बेखौफ हैं कि कुछ भी कर गुजरती हैं। अभी हाल ही में बिहार के मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी की यह पीडा सामने आयी कि उनके मंदिर में प्रवेश करने और पूजा-पाठ करने के बाद मंदिर को पूरी तरह से धुलाई और सफायी करवायी गयी। यह 'कर्म' इसलिए किया गया क्योंकि मंदिर में दलित ने पूजा-अर्चना की थी। पुजारी मुख्यमंत्री के मंदिर में प्रवेश करने पर कोई विरोध तो नहीं कर पाया, लेकिन उसने उनके मंदिर से बाहर निकलने के फौरन बाद वो हरकत कर ही डाली जो मुख्यमंत्री तो क्या... किसी भी इंसान के लिए पीडादायी है। दीप और ज्ञान एक दूसरे के पर्यायवाची माने जाते हैं। हमने दीप तो जलाए, लेकिन ज्ञानदीप जलाना भूल गए। इसलिए छल, कपट, फरेब, भ्रष्टाचार और अनाचार का अंधेरा बढता ही चला गया।
यह वाकई चिन्ता और शर्म की बात है कि देश के संपन्न वर्ग को दिखावटीपन और स्वार्थ ने अपने जबडों में जकड रखा है। गज़लकार जहीर कुरेशी की गज़ल की यह पंक्तियां वर्तमान हालात के कटु सच को बयां करती हैं :
'गिरने की होड है या गिराने की होड है
पैसा किसी भी तरह से कमाने की होड है।
अब स्वाभिमान जैसी कोई बात नहीं
कालीन जैसा खुद को बिछाने की होड है।'
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने जिस सर्व संपन्न गौरवशाली भारत की कामना की थी, उस भारत का बनना अभी बाकी है। गांधी कहते थे कि ईमानदारों का सम्मान होना चाहिए और भ्रष्टाचारियों को लताडा और दुत्कारा जाना चाहिए। पिछले दिनों तामिलनाडु के मुख्यमंत्री जयललिता को भ्रष्टाचार के मामले में जेल भेजा गया तो उनके समर्थकों ने विरोध-प्रदर्शन की झडी लगा दी। डेढ दर्जन से ज्यादा लोगों ने आत्महत्या कर ली। भ्रष्टाचारी मुख्यमंत्री के पक्ष में जिस तरह से भीड जुटी उससे बहुत दूर तक यह संदेश गया कि हमारे देश में भ्रष्टाचार कोई खास मुद्दा और समस्या नहीं है। यहां तो उन बेइमानों को भी पूजा जाता है जिन्हें अदालत अपराधी करार दे देती है। यह सोचकर ही चिन्ता होने लगती है कि जब लोग जगजाहिर भ्रष्टों और रिश्वतखोरों के बचाव पर उतरने लगेंगे तो देश का क्या होगा? देश की अस्सी प्रतिशत आबादी आज भी असली उजाले के लिए तरस रही है। धन लिप्सा और राजसत्ता ने इस देश के राजनेताओं को इस कदर भ्रमित कर डाला है कि वे राष्ट्र प्रेम और राम राज्य के मायने ही भूल गये हैं। उनके लिए सत्ता के मायने... खुद का विकास है। जिनके वोटों के दम पर वे कुर्सियां हथियाते हैं उनकी ही सुध लेना भूल जाते हैं। १९४७ में जब देश आजाद हुआ था तब यह उम्मीद जागी थी कि हर देशवासी के हिस्से में भरपूर खुशहाली आएगी। यह कितनी दुखद हकीकत है कि आज भी नारी को वो सम्मान हासिल नहीं है जिसकी वो हकदार है। देश की राजधानी दिल्ली का बलात्कारी नगरी बन जाना यही दर्शाता है कि देश में औरतें कितनी असुरक्षित हैं। दिल्ली की तर्ज पर देशभर में नारियों के यौन शोषण होने की खबरें इतनी आम हो गयी हैं कि लोग अब इन्हें पढते और सुनते हैं और फौरन भूल जाते हैं। आदिवासियों, दलितों, शोषितों और गरीबों की अनदेखी करने की परंपरा भी टूटने का नाम नहीं ले रही है। नक्सली समस्या इसी कपट और भेदभाव का भयावह परिणाम है। दरअसल, होना यह चाहिए था कि जो लोग हाशिए पर हैं उनकी आर्थिक प्रगति की हर हाल में चिन्ता की जाती। लेकिन सत्ताधीशों ने हिंदुस्तान को अंबानियों, जिंदलों और अदानियों का देश बना कर रख दिया है। जुल्म, भेदभाव और अनाचार का शिकार होते चले आ रहे लोगों में जो आक्रोश घर कर चुका है उसकी अनदेखी महंगी पड सकती हैं।
हमारे शासकों ने ऐसी ताकतों को सम्पन्न बनाया, जिन्होंने असहाय देशवासियों को और ...और पीछे धकेल दिया। सच किसी से छिपा नहीं है। गरीब और गरीब होते चले जा रहे हैं और अमीरों की अमीरी आकाश का सीना पार करती दिखायी देती है। इस देश के दलित नेता भी दलितों और शोषितों का मजाक उडाने में पीछे नहीं रहे। उन्होंने भी इनके वोटों की बदौलत येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीते। विधायक, सांसद और मंत्री बने। दलित और आदिवासी वहीं के वहीं रहे। उनके कंधे की सवारी करने वाले कहां से कहां पहुंच गए। जिन्हें दलितों और शोषितों की आवाज़ बनना था वे सत्ता के भोंपू बन कर रह गए।
हालात चाहे कितने भी पीडादायी हों फिर भी उम्मीद तो नहीं छोडी जा सकती। वैसे भी सहनशीलता और सब्र के मामले में हम भारतवासियों का कोई भी सानी नहीं। नये शासकों ने अपार वायदे किये हैं। हर देशवासी के आंगन में खुशहाली लाने और उसका असली हक दिलाने का आश्वासन दिया है। फिलहाल सारा देश उन अच्छे दिनों का इंतजार कर रहा है जब हर हिंदुस्तानी के घर में 'दीप' जलेंगे। गरीबी, बदहाली, शोषण और भेदभाव का खात्मा होगा और देश में आतंकियों और नक्सलियों का नामोनिशान नहीं बचेगा।

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