Thursday, January 8, 2015

हाथी के दांत

डेरा सच्चा सौदा के संस्थापक बाबा गुरमीत राम रहीम सिंह इंसान को विज्ञापनबाजी का जबरदस्त शौक है। देश की महंगी पत्रिकाओं में उनके ज्ञान ऊँडेलने वाले दो-दो पेज के विज्ञापन छपते रहते हैं। इसके लिए वे लाखों की कीमत चुकाते हैं। वे देश के पहले बाबा हैं जो उद्योगपतियों और व्यापारियों की तरह मीडिया को खुश करने के लिए मोटी खैरात बांटते हैं। कई राजनेता और सत्ता के दलाल भी अपनी बदरंग छवि को चमकाने के लिए मीडिया को इसी तरह से अपना बनाते हैं। योगगुरु बाबा रामदेव के आश्रम और कारखानों में बनने वाले विभिन्न सामानों के विज्ञापन भी इन दिनों टीवी चैनलों पर छाने में किसी से पीछे नहीं हैं। रामदेव पहले विज्ञापनबाजी से दूर रहते थे, लेकिन जब से उन्होंने तथाकथित समाजसेवा का चोला ओढा और राजनीति की अलख जगायी तभी से उनकी समझ में आ गया कि यदि वाह-वाही लूटनी है और अपनी दुकानदारी को आबाद रखना है तो मीडिया की झोली सतत भरनी ही होगी। खास कर इलेक्ट्रानिक मीडिया की। इसकी इलेक्ट्रॉनिक आंखें ऐसे सौदागरों पर टिकी रहती हैं जो करते कुछ हैं और दिखते-दिखाते कुछ हैं। आसाराम ने इनसे अक्सर दूरी बनाये रखी। वैसे धंधेबाजी में उनका कोई सानी नहीं था।  उनके कारखानों में च्यवनप्राश, चाय, चूर्ण, आडियो-वीडियो, कैसेट से लेकर यौनवद्र्धक दवाइयों के साथ पता नहीं क्या-क्या बनता था। उन्होंने तो पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन भी प्रारंभ कर दिया था। मासिक पत्रिका ऋषि प्रसाद के कुछ अंक इस लेखक ने देखे और पढे। इस पत्रिका में उनका गुण-गान कुछ इस तरह से गाया जाता था जिससे लगता था कि आसाराम तो इस धरती के सर्वशक्तिमान भगवान हैं। इस पत्रिका के बारे में यह भी प्रचारित था कि देश-विदेश में इसके दस लाख से अधिक स्थायी सदस्य हैं। व्यक्ति विशेष की स्तुती गाने तथा अंधविश्वास फैलाने वाली पत्रिका के साथ इतने अधिक लोगों का जुडा होना विस्मयकारी तो लगता ही है, साथ ही यह भी पता चलता है कि आसाराम को प्रचार की कितनी भूख थी। एक सच यह भी था कि आसाराम जानते थे कि देश के मीडिया ने उनकी असलियत जाननी-समझनी शुरु कर दी है। इसलिए उन्होंने खुद की पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित करनी शुरू कर दीं। आसाराम ने अपने बनाये सामानों को बेचने के लिए कभी भी न्यूज चैनलों और पत्र-पत्रिकाओं का सहारा नहीं लिया। यह सारा काम उन्हीं की पत्रिकाओं के माध्यम से होता था। वे देशभर में होने वाले अपने प्रवचन-कार्यक्रर्मों में ही अपना सारा प्रचार करते थे। उनके आदमी स्टॉल लगाते थे और अनुयायियों को आसाराम निर्मित  दवाइयां और तरह-तरह के सामान बेचने के लिए जाल फेंकते थे। प्रवचनों के साथ-साथ आसाराम का यह धंधा भी खूब चला। उनके अनुयायियों ने उन्हें मालामाल कर दिया। अपने अंधभक्तों की बदौलत आकाशी ऊंचाइयां छूने वाले आसाराम की पत्रकारों से कभी नहीं पटी। पत्रकार उनकी पोल खोलकर रख देते थे और उनके चेले-चपाटे मारा-मारी पर उतर आते थे। आसाराम के द्वारा भी न्यूज चैनलों और अखबार के पत्रकारों और संपादकों को धमकाने का सिलसिला चलता रहता था।
बाबा राम रहीम पर एक पत्रकार की हत्या का संगीन आरोप है। इस बाबा पर चार सौ लोगों को नपुंसक बनाने का मामला भी अदालत में पहुंच चुका है। महिलाओं के यौन शोषण के साथ-साथ पुरुषों को नपुसंक बनाने का अजब कारनामा पहले कभी सुनने में नहीं आया। यह भी पहली बार हुआ है जब विवादों में घिरे किसी बाबा ने एक ऐसी फिल्म बनायी है जिसमें वह खुद ही नायक है। प्रचार प्रेमी गुरु की फिल्म का नाम है 'मैसेंजर ऑफ गॉड।' करोडों रुपये खर्च कर बनायी गयी इस फिल्म में बाबा ने खुद को ऐसा महानायक दर्शाया है जो किसी भी मुश्किल का हंसते-हंसते सामना कर तालियां पाता है। वह तिरंगा लेकर दुश्मनों से लडता है। कभी हेलिकॉप्टर से उतरने-कूदने के करतब दिखाता है तो कभी बर्फ की सिल्लियों का सीना चीर कर बाहर आता है। किसी गीत के मुखडे की तरह यह आवाज भी गूंजती रहती है : 'अगर देश व सृष्टि की सेवा करना पाप है तो मैं यह पाप आखिरी सांस तक करता रहूंगा।' यानी बाबा तो देश की सेवा करते चले आ रहे हैं। और लोग हैं कि उनकी अनदेखी कर रहे हैं। दुश्मनों की साजिशों के चलते उन्हें अदालतों के चक्कर काटने पड रहे हैं। फिल्म के संवादों के जरिए उन्होंने दुश्मनों को ललकारने की पुरजोर कोशिश भी की है : "मजाक नहीं है गुरुजी को मारना। उनको मारने का मतलब है पूरे देश से पंगा लेना।" गुरमीत सिंह यह भी दर्शाना चाहते हैं कि मैं अकेला नहीं हूं। मेरे साथ करोडों भक्तों की भीड है। यह भीड मेरी रक्षाकवच है। इसलिए मेरे शत्रु सावधान हो जाएं। यह फिल्म आम लोगों को कितना प्रभावित करती है यह तो वक्त बतायेगा। लेकिन यह तय है कि इस फिल्म को देखने के लिए उनके कट्टर भक्त तो टूट ही पडेंगे। बाबा का भी तो यही मकसद है। अपने समर्थकों और अनुयायियों को अपने साथ जोडे रखना और आस्था को बनाये और टिकाये रखना। बाबाओं यह खेल कभी बंद होने वाला नहीं है। ऐसे में हमें यह कहावत याद आती है : 'हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और।' आपका क्या विचार है?

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