Thursday, January 15, 2015

उनकी गुंडागर्दी और नेताओं की चुप्पी

यह नया जमाना है। नयी सोच और नये लोगों का दौर। फिर भी कुछ लोग बदलने को तैयार नहीं। उनका दंभ उन्हें दकियानूसी सोच से बाहर नहीं आने देता। महात्मा गांधी छुआछूत के खात्मे के लिए जीवनभर लडते रहे। आजादी के इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी इस रोग का अंत नहीं हो पाया। आज भी छुआछूत और भेदभाव का विषैला दंश दलितों और शोषितों को लहुलूहान करने और अपमानित करने के मौके तलाश ही लेता है। कर्नाटक का एक छोटा-सा गांव है मारकुंबी। इस गांव में सवर्णों का वर्चस्व है, जो यह मानते हैं कि दलितों और गरीबों को इस दुनिया में सम्मान के साथ जीने का कोई हक नहीं है। कोई दलित यदि पढ-लिख लेता है और ऊंचे ओहदे पर पहुंच जाता है तो इनके सीने में सांप लौट जाता है। मारकुंबी गांव में एक नाई की दुकान है जहां बिना किसी भेदभाव के सभी की दाढी और बाल काटे जाते थे। लेकिन एक दिन अचानक नाई ने दलितों के बाल काटने से मना कर दिया। दलितों के विरोध जताने पर नाई ने अपनी पीडा और परेशानी बतायी कि सवर्णों की चेतावनी के समक्ष वह बेबस है। उससे स्पष्ट कह दिया गया है कि वह दलितों को अपनी दुकान की चौखट पर पैर भी न रखने दे। यदि उनकी बात नहीं मानी गयी तो उसकी खैर नहीं। ऐसे में तनातनी तो बढनी ही थी। दलितों के बढते आक्रोश को देख सवर्ण तिलमिला उठे। इनकी इतनी जुर्रत कि हमारे सामने सिर उठाएं। चींटी की हाथी के सामने क्या औकात। दलित और सवर्ण आमने-सामने डट गए। मारापीटी की नौबत आयी। आपसी संघर्ष में २७ लोग घायल हो गए। दलितों के तीन मकान राख कर दिये गये। दरअसल देश के कई ग्रामीण इलाके ऐसे हैं जहां सवर्णों और धनवानों की तूती बोलती है। उन्हीं का शासन चलता है। उनके अहंकार की कोई सीमा नहीं है। उनकी मनमानी दलितों पर मनमाना कहर बरपाती है। उन्हें कानून का भी कोई खौफ नहीं। उनके लिए यह २१ वीं सदी नहीं, सोलहवीं सदी है। वे कुछ भी करने को स्वतंत्र हैं। उन्हें लगता है कि यह देश सिर्फ उन्हीं का है। सत्ता भी उनकी, शासक भी उनके। शासन प्रशासन भी उनका।
कर्नाटक के बेल्लारी जिले के तलुर गांव में भी मारकुंबी की तरह सवर्णों ने तांडव मचाया। यहां भी सवर्णों के दादागिरी से खौफ खाकर नाईयों ने दलितों के बाल काटने से इंकार कर दिया। यहां भी आपस में जूते और डंडे चले। जमकर हाथापाई हुई। नाईयों के द्वारा दलितों के बाल काटने में असमर्थता जताने में पंचायत के उस आतंकी फरमान का बहुत बडा योगदान है जिसमें साफ-साफ कहा गया कि किसी भी हालत में दलितों के बाल न काटे जाएं। जिस कुर्सी पर बाल कटवाने तथा दाढी बनवाने के लिए सवर्ण बैठते हैं और आइने में खुद को निहारते हैं उस पर दलितों की परछाई भी नहीं पडनी चाहिए। इस ऐलान के विरोध में पांच दिनों तक गांव के पांचों सैलून बंद रहे। सैलून मालिक भी इस भेदभाव की नीति के खिलाफ हैं। उन्हें तो सवर्ण और दलित में कोई फर्क दिखायी नहीं देता। फिर भी उन्हें ऊंचे लोगों का खौफ सताता है। सवर्ण उन्हें धमकाते हैं कि यदि उन्होंने दलितों के बाल काटे तो वे उनकी दुकान पर कदम नहीं रखेंगे। सैलून चलाने वालों के भी बाल-बच्चे हैं। उन्हें भी अपना परिवार चलाना है। गांव में सवर्णों की संख्या तीन हजार से अधिक है। दलितों की जनसंख्या का आंकडा अस्सी-नब्बे के आसपास है। सवर्ण अगर खफा हो गये तो उनके घरो का चूल्हा जलना मुश्किल हो जायेगा। कुछ अन्य गांवों में भी दलितों को इसी तरह से आहत करने और नीचा दिखाने की मर्दानगी दिखायी जा रही है। धारवाड जिले के हुबली तहसील के गांव कोलीवाड के दलितों को बाल कटवाने के लिए मीलों दूर हुबली जाना पडता है। बुजुर्ग शांत हैं, लेकिन दलित युवकों का गुस्सा उफान पर है। पता नहीं वे क्या कर गुजरें। उनका कहना है कि हम इस जुल्म को सहन नहीं कर सकते। हमें कमजोर कतई नहीं समझा जाए। हम भी इसी देश के नागरीक हैं। इस पर जितना हक उनका है, उतना हमारा भी। ऐसे में भेदभाव करने वालों के दबाव में हम क्यों आएं। हम चुप नहीं रहेंगे। उम्रदराज लोग तो गांव से दूर जाकर बाल कटवा सकते हैं, लेकिन बच्चे कहां जाएं? सदियों से सबलों की चलती आयी है। ताकतवर धनवानों ने निर्बलों-गरीबों का गला काटा है। सामंती सोच रखने वालों ने दलितों के शोषण के लिए नये-नये तरीके ईजाद कर रखे हैं। यह आज़ादी का मजाक नहीं तो क्या है?
हैरानी की बात यह भी है कि अभी तक किसी वजनी नेता ने सवर्णों की इस गुंडागर्दी के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद नहीं की है। सभी के मुंह पर ताले जडे हैं। जैसे बोलना ही भूल गये हों। नेताओं की जन्मजात चालाकी भी किसी से छिपी नहीं है। बहुत नाप-तौल कर अपने कदम आगे बढाते हैं। मौके के हिसाब से उनकी जुबान चलती है। यहां दलित कम हैं और सवर्ण ज्यादा। कौन बेवकूफ होगा जो ज्यादा को छोड कम की तरफ हाथ बढायेगा? राजनीति का मतलब ही पाना और सिर्फ पाना है। जो खोने की भूल करते हैं उनका राजनीतिक वजूद ही मिट जाता है। राजनेता कभी भी घाटे का सौदा नहीं करते। ऊंच-नीच और जात-पात का राग अलापते रहना भी इन सौदागरों का पसंदीदा खेल है। इसी की बदौलत इनकी राजनीति चलती है और वे विधायक, सांसद और मंत्री बनते चले जाते हैं। स्कूलों में दलितों के हाथों बनाया गया खाने से इंकार कर दिया जाता है। मंदिरों में दलितों को प्रवेश नहीं दिया जाता। देवी देवताओं पर अपना एकाधिकार जताया जाता है। भेदभाव और छुआछूत के रोग से केवल हिंदु ही ग्रस्त नहीं हैं। मुस्लिम, सिख और ईसाई भी कहीं न कहीं इस दलदल में धंसे हैं।

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