"यह चुनाव का समय है। दिल्ली में कांग्रेस और भाजपा के होश उड चुके हैं। ऐसे में इन दोनों पार्टियों के चेहरे आपका वोट खरीदने के लिए नोटों की बरसात करेंगे। आप उनसे नोट लेने में कोई संकोच न करना। बस चुपचाप नोटों को जेब के हवाले कर देना। यदि कहीं यह लोग नोट देने नहीं आते तो आप उनके कार्यालयों में जाना और बेझिझक नोट मांगना। मेरा आप सभी को यही सुझाव है कि इन दोनों दलों से कडकते नोट जरूर लेना और अपना कीमती वोट सिर्फ और सिर्फ झाडू को ही देना।"
यह वो ज्ञान का भंडार है जो दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के द्वारा दिल्ली विधानसभा के चुनावी मंचों पर खडे होकर बांटा गया। आम आदमी पार्टी के मुखिया केजरीवाल बहुत बडे विद्धान हैं। ज्ञानी-ध्यानी हैं। देश और दुनिया के जाने-माने समाजसेवक अन्ना हजारे के प्रिय शिष्य रहे हैं। अन्ना आंदोलन से पूरी सक्रियता के साथ जुडे रहे हैं। इसी आंदोलन के जरिए ही उन्होंने तथा किरण बेदी और कुमार विश्वास आदि ने सुर्खियां पायीं और नायक बन गये। अरविंद केजरीवाल ने तो महानायक का दर्जा हासिल कर लिया। एक समय ऐसा था जब अन्ना के बिना चेलों का पत्ता भी नहीं हिलता था। आज वही चेले बहुत आगे निकल गये हैं। गुरु ने गुमनामी की चादर ओढ ली है। अलग-थलग पड गये हैं। कभी-कभार उनके हिलने-डुलने के समाचार आ जाते हैं। वो दौर तो अब सपना हुआ जब देशभर में अन्ना हजारे के ढोल की थाप सुनायी देती थी। सभी न्यूज चैनल वाले उनके आगे-पीछे दौडते थे। सत्ता उन्हें सलाम करती थी। बडे-बडे राजनेता उनके मंच पर विराजमान होने के लिए तरसते थे। अन्ना किसी को भाव नहीं देते थे। उन्हें तो लगभग सभी नेता भ्रष्ट नजर आते थे। दरअसल, उन्हें तो राजनीति से भी चिढ थी। तभी तो वे अपने सभी शिष्यों को राजनीति के निकट भी न फटकने की सीख देते रहते थे। उन्हें अपने चेलों पर बडा नाज था। उन्हें यकीन था कि चाहे कुछ भी हो जाए लेकिन उनके चेले भटकेंगे नहीं। उनके पढाए पाठ को सदैव याद रखेंगे। दरअसल गुरु भूल गए थे कि यह भ्रमयुग है, धर्मयुग नहीं। यहां अपना काम निकालने के लिए मुखौटे लगाए जाते हैं। अंदर ही अंदर छल-कपट के ऐसे-ऐसे जाल बुने जाते हैं कि किसी को भनक भी नहीं लगती। अन्ना के चेलों ने वही किया जो उन्हें करना था। उन्हें पता था कि गुरु की नाव में इतना दम नहीं जो उन्हें वहां तक पहुंचा सके, जहां तक की उनकी चाह है। इसलिए उन्हें सीढी बनाया गया। ऊपर चढते ही सीढी जमीन पर धराशायी कर दी गयी। अन्ना स्तब्ध रह गये। धोखे पर धोखे खाना उनकी नियति है। मस्तमौला। कोई आगे न पीछे। चेलों का भरा-पूरा परिवार। एक छोटी-सी जिन्दगी और सपने अपार। आज अन्ना की बस्ती खाली है। इधर अन्ना के चेले राजनीति के समंदर में छलांग लगा कर मोती तलाशने में लगे हैं। उधर रालेगण सिद्धि में अन्ना अपना माथा पीट रहे हैं। दिल्ली की सत्ता को पाने के लिए उनके शार्गिद आमने-सामने हैं। उनका अब तो एक ही लक्ष्य है किसी भी तरह से सत्ता सुंदरी की बांहों में सिमटकर अपनी तमाम महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति कर गुजरना।
अन्ना का भ्रष्टाचारियों से लडने और भ्रष्टाचार को जड से खत्म करने का नारा था। उनके अनुयायी अरविंद केजरीवाल वोटरों को भ्रष्ट होने की सीख देते फिर रहे हैं। केजरीवाल जैसा आचरण कर रहे हैं वैसे लगते तो नहीं थे। क्या अब यही मान लें कि सत्ता की चाह सोच और इरादे बदलने को मजबूर कर देती है? भ्रष्टाचार से परेशान और आहत करोडों लोगों ने उन्हें ऐसा क्रांतिदूत माना था जिसमें भ्रष्टाचार से लडने और देश की तस्वीर बदलने का माद्दा दिखता था। उन्होंने वोटरों को नोट लेने की सलाह देकर खुद की छवि पर आडी-टेढी लकीरें खींच दी हैं। उनकी पहचान ही धुंधला गयी है। कौन नहीं जानता कि इस देश में मतदाताओं को खरीदने की बडी पुरानी परिपाटी है। कई नेताओं ने इस रास्ते पर चलकर सत्ता का भरपूर स्वाद चखा है। लोग उन्हें पहचानते हैं। उन्हें कोसते और गालियां भी देते हैं। लेकिन कुछ कर नहीं पाते। क्या केजरीवाल ऐसे बेइमानों की कतार लगा देना चाहते हैं? शुरु-शुरु में तो केजरीवाल की सादगी और स्पष्टवादिता लोगों को खूब भायी थी। ऐसा लगा था कि वाकई आम लोगों के हकों की लडाई लडने के लिए किसी सच्चे इंसान ने अपनी कमर कस ली है। लेकिन वो सपना अपनी मौत मरता दिखायी दे रहा है।
यह किरण बेदी ही थीं जो कभी गुजरात दंगों को लेकर नरेंद्र मोदी के खिलाफ ट्वीट पर ट्वीट किया करती थीं। भारतीय जनता पार्टी को सांम्प्रदायिकता के रंग में रंगी और भ्रष्टाचार की कालिख में डूबी पार्टी बताया करती थीं। तब उनके लिए मोदी हत्यारे थे। मोदी यदि प्रधानमंत्री नहीं बनते तो किरण बेदी की सोच नहीं बदलती। चढते सूरज को सभी सलाम करते हैं। किरण ने भी वही किया। आज मोदी उनके लिए किसी फरिश्ते से कम नहीं। उन्हीं ने तो उन्हें वो सम्मान दिलाया है जिसके लिए वे तरस रही थीं। यकीनन यह राजनीतिक अवसरवादिता की पराकाष्ठा है। अन्ना के मंचों पर उछलती-कूदती रहीं किरण ने यह दिखावा भी किया था कि उन्हें राजनीति से कोई लगाव नहीं है। अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों ने जब राजनीति की राह पकडी तो वे उन्हें भटके हुए लोगों का कारवां बताती रहीं। दरअसल, किरण को अरविंद केजरीवाल का नेतृत्व स्वीकार नहीं था। वे किसी के नीचे रहकर काम कर ही नहीं सकतीं। अफसरी वाला अहंकार और रूतबा आज भी उन पर हावी है। इस पूर्व महिला अधिकारी ने हमेशा अपने आप को दूसरों से ऊपर समझा है और जिधर दम उधर हम के उसूल पर चलती रही हैं। उनका दिली लगाव और जुडाव कभी किसी से नहीं रहा। लगता है दिल्ली ऐसे अवसरवादियों के नेतृत्व को झेलने को विवश है।
यह वो ज्ञान का भंडार है जो दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के द्वारा दिल्ली विधानसभा के चुनावी मंचों पर खडे होकर बांटा गया। आम आदमी पार्टी के मुखिया केजरीवाल बहुत बडे विद्धान हैं। ज्ञानी-ध्यानी हैं। देश और दुनिया के जाने-माने समाजसेवक अन्ना हजारे के प्रिय शिष्य रहे हैं। अन्ना आंदोलन से पूरी सक्रियता के साथ जुडे रहे हैं। इसी आंदोलन के जरिए ही उन्होंने तथा किरण बेदी और कुमार विश्वास आदि ने सुर्खियां पायीं और नायक बन गये। अरविंद केजरीवाल ने तो महानायक का दर्जा हासिल कर लिया। एक समय ऐसा था जब अन्ना के बिना चेलों का पत्ता भी नहीं हिलता था। आज वही चेले बहुत आगे निकल गये हैं। गुरु ने गुमनामी की चादर ओढ ली है। अलग-थलग पड गये हैं। कभी-कभार उनके हिलने-डुलने के समाचार आ जाते हैं। वो दौर तो अब सपना हुआ जब देशभर में अन्ना हजारे के ढोल की थाप सुनायी देती थी। सभी न्यूज चैनल वाले उनके आगे-पीछे दौडते थे। सत्ता उन्हें सलाम करती थी। बडे-बडे राजनेता उनके मंच पर विराजमान होने के लिए तरसते थे। अन्ना किसी को भाव नहीं देते थे। उन्हें तो लगभग सभी नेता भ्रष्ट नजर आते थे। दरअसल, उन्हें तो राजनीति से भी चिढ थी। तभी तो वे अपने सभी शिष्यों को राजनीति के निकट भी न फटकने की सीख देते रहते थे। उन्हें अपने चेलों पर बडा नाज था। उन्हें यकीन था कि चाहे कुछ भी हो जाए लेकिन उनके चेले भटकेंगे नहीं। उनके पढाए पाठ को सदैव याद रखेंगे। दरअसल गुरु भूल गए थे कि यह भ्रमयुग है, धर्मयुग नहीं। यहां अपना काम निकालने के लिए मुखौटे लगाए जाते हैं। अंदर ही अंदर छल-कपट के ऐसे-ऐसे जाल बुने जाते हैं कि किसी को भनक भी नहीं लगती। अन्ना के चेलों ने वही किया जो उन्हें करना था। उन्हें पता था कि गुरु की नाव में इतना दम नहीं जो उन्हें वहां तक पहुंचा सके, जहां तक की उनकी चाह है। इसलिए उन्हें सीढी बनाया गया। ऊपर चढते ही सीढी जमीन पर धराशायी कर दी गयी। अन्ना स्तब्ध रह गये। धोखे पर धोखे खाना उनकी नियति है। मस्तमौला। कोई आगे न पीछे। चेलों का भरा-पूरा परिवार। एक छोटी-सी जिन्दगी और सपने अपार। आज अन्ना की बस्ती खाली है। इधर अन्ना के चेले राजनीति के समंदर में छलांग लगा कर मोती तलाशने में लगे हैं। उधर रालेगण सिद्धि में अन्ना अपना माथा पीट रहे हैं। दिल्ली की सत्ता को पाने के लिए उनके शार्गिद आमने-सामने हैं। उनका अब तो एक ही लक्ष्य है किसी भी तरह से सत्ता सुंदरी की बांहों में सिमटकर अपनी तमाम महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति कर गुजरना।
अन्ना का भ्रष्टाचारियों से लडने और भ्रष्टाचार को जड से खत्म करने का नारा था। उनके अनुयायी अरविंद केजरीवाल वोटरों को भ्रष्ट होने की सीख देते फिर रहे हैं। केजरीवाल जैसा आचरण कर रहे हैं वैसे लगते तो नहीं थे। क्या अब यही मान लें कि सत्ता की चाह सोच और इरादे बदलने को मजबूर कर देती है? भ्रष्टाचार से परेशान और आहत करोडों लोगों ने उन्हें ऐसा क्रांतिदूत माना था जिसमें भ्रष्टाचार से लडने और देश की तस्वीर बदलने का माद्दा दिखता था। उन्होंने वोटरों को नोट लेने की सलाह देकर खुद की छवि पर आडी-टेढी लकीरें खींच दी हैं। उनकी पहचान ही धुंधला गयी है। कौन नहीं जानता कि इस देश में मतदाताओं को खरीदने की बडी पुरानी परिपाटी है। कई नेताओं ने इस रास्ते पर चलकर सत्ता का भरपूर स्वाद चखा है। लोग उन्हें पहचानते हैं। उन्हें कोसते और गालियां भी देते हैं। लेकिन कुछ कर नहीं पाते। क्या केजरीवाल ऐसे बेइमानों की कतार लगा देना चाहते हैं? शुरु-शुरु में तो केजरीवाल की सादगी और स्पष्टवादिता लोगों को खूब भायी थी। ऐसा लगा था कि वाकई आम लोगों के हकों की लडाई लडने के लिए किसी सच्चे इंसान ने अपनी कमर कस ली है। लेकिन वो सपना अपनी मौत मरता दिखायी दे रहा है।
यह किरण बेदी ही थीं जो कभी गुजरात दंगों को लेकर नरेंद्र मोदी के खिलाफ ट्वीट पर ट्वीट किया करती थीं। भारतीय जनता पार्टी को सांम्प्रदायिकता के रंग में रंगी और भ्रष्टाचार की कालिख में डूबी पार्टी बताया करती थीं। तब उनके लिए मोदी हत्यारे थे। मोदी यदि प्रधानमंत्री नहीं बनते तो किरण बेदी की सोच नहीं बदलती। चढते सूरज को सभी सलाम करते हैं। किरण ने भी वही किया। आज मोदी उनके लिए किसी फरिश्ते से कम नहीं। उन्हीं ने तो उन्हें वो सम्मान दिलाया है जिसके लिए वे तरस रही थीं। यकीनन यह राजनीतिक अवसरवादिता की पराकाष्ठा है। अन्ना के मंचों पर उछलती-कूदती रहीं किरण ने यह दिखावा भी किया था कि उन्हें राजनीति से कोई लगाव नहीं है। अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों ने जब राजनीति की राह पकडी तो वे उन्हें भटके हुए लोगों का कारवां बताती रहीं। दरअसल, किरण को अरविंद केजरीवाल का नेतृत्व स्वीकार नहीं था। वे किसी के नीचे रहकर काम कर ही नहीं सकतीं। अफसरी वाला अहंकार और रूतबा आज भी उन पर हावी है। इस पूर्व महिला अधिकारी ने हमेशा अपने आप को दूसरों से ऊपर समझा है और जिधर दम उधर हम के उसूल पर चलती रही हैं। उनका दिली लगाव और जुडाव कभी किसी से नहीं रहा। लगता है दिल्ली ऐसे अवसरवादियों के नेतृत्व को झेलने को विवश है।
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