Thursday, July 30, 2015

किस-किस का अपमान!

एक जमाना था जब नेता, मंत्री और अफसर बहुत सोच-समझकर बोला करते थे। मंत्री तो सभ्यता और शालीनता की प्रतिमूर्ति हुआ करते थे। इक्कीसवीं सदी में बहुत कुछ बदल गया है। पढे-लिखे राजनेता और नौकरशाह भी ऊल-जलूल वाणी बोलकर अपने पद की गरिमा और अहमियत को सूली पर चढाने में देरी नहीं लगाते। उनकी बदजुबानी और बेवकूफियों पर सजग देशवासी माथा पीटते रह जाते हैं। ऐसा भी लगता है कि कुछ प्रतिष्ठित और ताकतवर नौटंकीबाजों के लिए देश एक रंगमंच बन चुका है। बिना थके बकवासबाजी और उछलकूद करते ही रहते हैं। कभी किसी राजनेता के मन में बलात्कारियों के प्रति प्रेम उमडने लगता है तो कोई राष्ट्रद्रोही के पक्ष में भी छाती तानकर खडा हो जाता है। कौन सम्मान का हकदार है और किसे लताडना चाहिए इसकी समझ को भी दरकिनार कर दिया गया है। अपने देश में किसानों की जितनी आत्महत्याएं होती हैं, शायद ही किसी और देश में होती हों। देश के केंद्रीय कृषि मंत्री राधामोहन सिंह ने किसानों की आत्महत्याओं के नये कारणों की खोज की है। वे फरमाते हैं कि किसान घरेलू समस्याओं, नपुंसकता, बांझपन, इश्कबाजी और नशाखोरी के चक्कर में फंसकर इतने निराश और हताश हो जाते हैं कि अन्तत: उन्हें खुदकुशी करने को मजबूर होना पडता है। मंत्री महोदय की सोच, समझ और चिंतन प्रक्रिया तो यही दर्शाती है कि वे हद दर्जे के बेवकूफ, जाहिल और गंवार इंसान हैं। उन्हें देश के अन्नदाता के बारे में कुछ भी पता नहीं है। ऐसे में सवाल यह भी है कि जिस शख्स को अपने देश के मेहनतकश किसानों की मूल समस्याओं का ज्ञान नहीं, उसे कृषि मंत्री क्यों बना दिया गया? जवाब बडा सीधा-सादा है। हिंदुस्तान में कुछ भी संभव है। मंत्री बनने के लिए विद्धता और समझदारी की कोई जरूरत नहीं है।
उत्तर प्रदेश के बाराबंकी में साहूकार की चालबाजी और शैतानी से तंग आकर आशाराम नामक किसान ने डीएम के आवास के समक्ष फांसी लगाकर इस दुनिया से हमेशा-हमेशा के लिए विदायी ले ली। सत्ता की चौखट पर अपने प्राण त्यागने वाले किसान का इरादा प्रशासन को जगाना और यह बताना था कि मैं अपने प्राण त्याग कर यह संदेश छोडे जा रहा हूं कि सभी देशवासियों का पेट भरने वाले किसान की अनदेखी मत करो। उसकी तकलीफों को जानो और समझो, लेकिन बाराबंकी के अंधे, बहरे और निर्लज्ज डीएम ने फौरन यह बयान दाग दिया कि 'किसान आशाराम तो शराबी था। कोई काम-धाम करता ही नहीं था। ऐसे में उसने वही किया जो उसके जैसे दूसरे शराबी करते हैं।' यानी इस देश में आत्महत्या करने वाला हर किसान किसी न किसी ऐब से ग्रस्त होता है। हर किसान की समस्या का अंतिम इलाज फांसी यानी मौत ही है। मगराये कृषि मंत्री और डीएम पता नहीं इस हकीकत को क्यों भूल गये कि इस देश के रईस शराब में डुबकियां लगाते हैं। अवैध रिश्ते बनाने के भी कीर्तिमान बनाते रहते हैं। उनके यहां भी पारिवारिक युद्ध होते रहते हैं। उन्हें भी प्रेम संबंधों के टूटने की पीडा से रूबरू होना पडता है, लेकिन वे तो ऐसे आत्महत्या नहीं करते जैसे किसान करते चले आ रहे हैं। मंत्रीजी, किसानों के फंदे पर झूलने और जहर खाकर मौत को गले लगाने की असली वजह गरीबी है। वो आर्थिक तंगी है, जिसे आप लोग दूर करने का प्रयास ही नहीं करते। आप लोगों का दिमाग भी तो ऊल-जलूल सोच में उलझा रहता है। किसानों को कैसे नये-नये तरीकों से फायदे की खेती के लिए प्रेरित किया जा सकता है इसकी तरफ ध्यान देने का समय नहीं है आप जैसों के पास।
अरविंद केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं। उन्हें सभी पुलिसिये 'ठुल्ले' नजर आते हैं। जब से वे दिल्ली के मुख्यमंत्री बने हैं, तभी से उनकी दिल्ली की पुलिस से ठनी हुई है। यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं है कि हर विभाग की तरह पुलिस विभाग में भी कुछ वर्दीधारी अपने कर्तव्य को सही ढंग से नहीं निभाते। रिश्वतखोरी और बेईमानी के कर्मकांडों में इस कदर लिप्त रहते हैं कि अपराधियों और उनमें कोई फर्क नहीं रह जाता, लेकिन पुलिस विभाग में ऐसे भी अधिकारी और कर्मचारी भरे पडे हैं जो अपना फर्ज निभाने में कहीं कोई कोताही नहीं बरतते। उन्हीं के कारण ही अराजक तत्वों के हौसले पस्त रहते हैं और कानून व्यवस्था के साथ अमन-चैन बना रहता है। आम नागरिक खुद को सुरक्षित नहीं महसूस करता। गौरतलब है कि 'ठुल्ला' ऐसे शख्स को कहा जाता है जो दिए गए काम को करने में नाकाम रहता है। यकीनन नाकामी की कई वजहें होती हैं। ठुल्ला और नाकारा एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। मुख्यमंत्री के इस संबोधन से ईमानदार और कर्तव्यपरायण पुलिस वालों का दु:खी होना जायज है। उनकी इस अपमानजनक टिप्पणी ने दिल्ली पुलिस के हर उस अधिकारी, कर्मचारी का मनोबल तोडा है जो अपना कर्तव्य ईमानदारी से निभाते हैं। कई कानून के जानकारों का यह भी कहना है कि किसी भी शब्दकोश में 'ठुल्ला' शब्द को अपमानजनक नहीं माना गया है। यह तो मजाकिया लहजे में बोला जाने वाला ऐसा शब्द है, जिसका इस्तेमाल आम है। पुलिस वालों के लिए इस शब्द का वर्षों से चलन है। पहले तो कभी किसी ने इस पर आपत्ति नहीं जतायी?
जब एक मुख्यमंत्री ही खाकी वर्दी वालों का उपहास उडाने में कोई संकोच नहीं करता तो आम लोगों को दोष देना बेमानी है। मुख्यमंत्री का काम पुलिस व्यवस्था में सुधार लाना है न कि सभी पुलिसवालों का मजाक उडाना। 'जैसा राजा वैसी प्रजा' की कहावत को शब्दकोश में जगह देने से पहले यकीनन कई-कई बार सोचा गया होगा। जो पुलिस कर्मी ठंड, गर्मी और बरसात की चिंता छोड परिवार से दूर चौबीस घण्टे काम करते रहते हैं उन्हें कोई भी मजाक और कटाक्ष आहत करता है। उनकी प्रतिष्ठा पर जो चोट पहुंचती है, उसका आकलन बडबोले सत्ताधीश नहीं कर सकते। हुक्मरानों के भटकाव के कारण ही देश की तस्वीर बद से बदतर होती चली जा रही है। जहां पर उनका ध्यान होना चाहिए वहां तो वे देखते ही नहीं! मध्यप्रदेश के एक स्कूल में सातवीं के बच्चों को पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के गुणगान का पाठ पढाने की पुख्ता खबर ने हैरत में डाल दिया। क्या हमारे देश में महापुरुषों की कमी है जो पाकिस्तान के एक घटिया शासक की जीवनी से छात्रों को अवगत कराया जा रहा है? इसी अहसान फरामोश, धोखेबाज और बदजात मुशर्रफ के कार्यकाल में कारगिल युद्ध हुआ, जिसमें भारत के कई सैनिक शहीद हुए थे। मुशर्रफ ने हमेशा भारत के खिलाफ जहर उगला। आतंकी हमले करवाए। अफसोस! देश की नयी पीढी को शहीद भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, लाला लाजपत राय जैसे देश के सच्चे सपूतों की जीवनगाथाओं से अवगत कराने की बजाए देश के दुश्मनों का महिमामंडन कर देश के शहीदों का अपमान किया जा रहा है...!

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