Thursday, October 8, 2015

अफवाहों की आंधी

इस देश में अफवाहें और शक भी कम कहर नहीं ढाते। हंसते-खेलते इंसानों की बलि ले ली जाती है। बलि लेने वाले भी अपने इर्द-गिर्द के लोग होते हैं। भले ही वे अपनी गलती को ना स्वीकारें, लेकिन फिर भी कहीं न कहीं उनकी भागीदारी तो होती ही है। तटस्थता, चुप्पी और अनदेखी का लबादा ओढकर उस शर्मनाक सच से नहीं बचा जा सकता जो कातिलों का हौसला बढाता है। कहते हैं कि दुनिया में हर बीमारी का इलाज है, लेकिन शक का नहीं। इस लाइलाज बीमारी ने कितनों की जानें लीं और कितने खून-खराबे हुए इसका कोई हिसाब नहीं है। इस जानलेवा रोग के इलाज की जिन लोगों पर जिम्मेदारी है वही इसे पनपाने और बढाने में लगे रहते हैं। कौन हैं वे लोग? हर कोई जानता है इस देश के वोटप्रेमी नेता, कट्टरपंथी ताकतें और तथाकथित बुद्धिजीवी... समाज के ठेकेदार जिनके बहकाने, भडकाने के कारण यह बीमारी महाविनाशी बनती चली जा रही है। देश की राजधानी से मात्र ४५ किलोमीटर दूर उत्तरप्रदेश के दादरी उपखंड स्थित बिसहाडा में मोहम्मद अखलाक को सैकडों लोगों की उन्मादी भीड ने गोमांस खाने के शक में पीट-पीटकर मार डाला। वर्षों तक गांव के प्रधान रहे भाग सिंह मीडिया के सामने आये तो रोने गाने लगे : "इस खौफनाक घटना ने मुझे स्तब्ध कर दिया। मैं सोचता रहा कि जिस गांव में कभी भी हिन्दू-मुस्लिम विवाद नहीं हुआ वहां अच्छे भले इंसान की निर्दयता के साथ हत्या कैसे कर दी गयी?" गांव के प्रधान के घडियाली आंसुओं से हकीकत पर पर्दा नहीं डाला जा सकता। कोई उनसे पूछे कि अगर गांव में इतना सदभाव और भाई-चारा था तो शक और अफवाह के चलते देखते ही देखते एक जिन्दा इंसान लाश में कैसे तब्दील कर दिया गया? भीड को किसी की जान लेने का हक किसने दे दिया? मोहम्मद अखलाक के हत्यारे कहीं बाहर से तो नहीं आये थे। थे तो उसी गांव के ही जहां पर हिन्दू और मुसलमानों में तथाकथित रूप से अभूतपूर्व सर्वधर्म समभाव का वातावरण था।
ताज्जुब! ...गांव के मंदिर के पुजारी ने ढिंढोरा पीटा कि ५२ वर्षीय अखलाक के परिवार ने एक गाय के बछडे को मारकर उसका मांस पकाया और खाया है तो वर्षों पुराने भाईचारे के परखच्चे उड गये और सच्चाई जाने बिना एक बुजुर्ग की निर्मम हत्या और उसके बेटे को लहुलूहान करके रख दिया गया। इसके बाद तो देशभर में घटिया राजनीति और जहरीले बयानों का तांता लगने में जरा भी देरी नहीं लगी। इसी दौरान सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू का बहुत ही घटिया बयान आया: 'हां मैं गोमांस खाता हूं, खाता रहूंगा, मुझे कौन रोक सकता है। दुनिया भर के लोग गाय का मांस खाते हैं। गाय महज एक जानवर है। उसे माता मानना बेवकूफी की बात है।' संजय दत्त जैसे देशद्रोही के बचाव में जमीन-आसमान एक कर देने की अक्लमंदी दिखाने वाले काटजू को अगर गोमांस अच्छा लगता है तो वे जी भरकर खाएं, उन्हें किसने रोका है, लेकिन इस तरह से भावनाएं भडकाने वाले शब्द उछालने के क्या मायने हैं? यह तो जलती हुई आग में पेट्रोल छिडकने वाली शर्मनाक कारस्तानी है जो काटजू जैसों की फितरत बन चुकी है। उन्हें यह अधिकार किसने दिया है कि वे उन करोडों हिन्दुओं की भावनाओं को आहत करें जो गाय को अपनी माता मानते हैं। आप पर तो कहीं कोई यह दबाव नहीं डाला जा रहा है कि आप गाय को मां मानें। इस तरह की बकवासबाजी करने का किसी को भी कोई हक नहीं है। काटजू जैसे भडकाऊ प्रवृत्ति के लोगों के कारण ही हिन्दुओं और मुस्लिमों के बीच अविश्वास की दीवारें खडी होती हैं। पूर्व न्यायाधीश काटजू और यूपी के नगर विकास एवं अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री आजम खान और भगवाधारी सांसद साक्षी महाराज तथा साध्वी प्राची जैसे लोग ऐसे चेहरे हैं जो कभी जोडने की बात नहीं करते। अधिकांश देशवासी भी इन्हें भरोसे के काबिल नहीं समझते। इनकी बातों को हवा में उडा देते हैं। फिर भी कुछ विघ्नसंतोषी लोग हैं जो इनके कट्टर मुरीद हैं जिनके कारण देश आहत होता रहता है। कहते हैं कि पेट में गया जहर सिर्फ एक आदमी को मारता है और कान में गया जहर सैकडों रिश्तों की हत्या कर देता है। यह लोग यही कर रहे हैं। अपने देश में विषैले बोल बोलकर उन्माद फैलाने वालों में कुछ हिन्दू भी शामिल हैं और मुसलमान भी। इस देश का आम हिन्दू और मुसलमान अमन और शांति के साथ जीवन बसर करना चाहता है, लेकिन धर्म के ठेकेदारों के हमेशा यही इरादे रहे हैं कि उनमें आपसी दूरियां और अस्थिरता बनी रहे। इसी से उनके स्वार्थ सधते हैं। इनकी शरारतों का कोई अंत नहीं है। हिन्दू और मुसलमानों को लडाने के इन्हें सभी तरीके आते हैं। तभी तो कभी कहीं पर गाय के कटने का वीडियो आ जाता है तो कभी कोई शातिर मंदिर के सामने तो कभी मस्जिद के सामने मांस का टुकडा फेंक चलता बनता है और दंगे हो जाते हैं। बाजार, बस्तियां और घर जला दिये जाते हैं। लाशें बिछ जाती हैं। मरने वालों में हिन्दू भी होते हैं और मुसलमान भी। इस सच को सभी समझते हैं, लेकिन फिर भी कुछ लोग इंसानियत और सर्वधर्म और एकता के शत्रुओं के बहकावे में क्यों आ जाते हैं? उन पर मोहम्मद जकी खान जैसे मानवता प्रेमी कोई असर क्यों नहीं डाल पाते?
दादरी में जब गोमांस खाने की अफवाह के चलते अखलाक को पीट-पीटकर मार डालने की खबर देश की शान पर बट्टा लगा रही थी और अमन के दुश्मनों के चेहरे की रौनक बढा रही थी तभी लखनऊ में कुएं में गिरी गाय को बचाने के लिए जकी खान सांप्रदायिक ताकतों के मुंह पर तमाचे जडने के काम में लगा था। हुआ यूं कि हिन्दू बाहुल्य भीतलखेडा इलाके में एक गाय कुएं में गिर गयी। लोगों ने क्रेन मंगाकर उसे बाहर निकालने का प्रयास किया, लेकिन सफलता नहीं मिल पायी। तभी इसी इलाके में रहने वाला पेंटर जकी खान नमाज पढने जा रहा था। कुएं के सामने खडी क्रेन और भीड को देखकर जब उसे पता चला कि गाय कुएं में गिर गयी है तो वह फौरन क्रेन के जरिए पट्टे के सहारे कुएं में उतर गया। करीब पहुंचने पर गाय ने उस पर सींग से वार कर दिया। उसने चोट की परवाह ना करते हुए गाय को बाहर निकाल कर ही दम लिया। वह जब कुएं से बाहर निकला तो भीड ने तालियां बजायीं। प्रफुल्लित लोगों ने उसे शाबासी देते हुए अपने गले से लगा लिया। हिन्दुस्तान के करोडों हिन्दू और मुसलमान सिर्फ और सिर्फ जात-पात और धर्म से उठकर जीने में विश्वास रखते हैं। उन्हें धर्मनिरपेक्ष सोच के लोग भाते हैं। आतंकी और सांप्रदायिक चेहरों के प्रति उनका कतई लगाव और जुडाव नहीं है। उन सबकी सोच और चाहत सोशल मीडिया पर छायी किसी कवि की लिखी कविता की इन पंक्तियों के अर्थ से कतई भिन्न नहीं है:
मैं मुस्लिम हूं
तू हिन्दू है
दोनों हैं इंसान...
ला मैं तेरी
गीता पढ लूं
तू पढ ले कुरान।
अपने तो दिल में है दोस्त
बस एक ही अरमान...
एक थाली में खाना खाये
सारा हिन्दुस्तान।

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