Thursday, October 29, 2015

खौफ की सुरंग

हार का खौफ हर किसी को सताता है। राजनेता भी इससे अछूते नहीं होते। खास बनने के बाद भले ही उनके तेवर बदल जाते हैं। राजनीतिक दलों के पीछे भी नेताओं और आमजनों का बल होता है। जब भी चुनाव आते हैं तो प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री तक आम बन जाते हैं या फिर बनने के लिए मजबूर कर दिये जाते हैं। उन्हें सडक पर उतरने को मजबूर होना ही पडता है। तब उन्हें ऐसे-ऐसे लोगों की जी-हजूरी करनी पडती है, जिनकी सत्ता में रहते उन्हें कोई जरूरत महसूस नहीं होती। चुनावी हार का खौफ तो बडे-बडे नेताओं को पता नहीं किस-किस से मिलने और किस-किस-चौखट पर नाक रगडने को मजबूर कर देता है। कई बार तो राजनीति और भय एक दूसरे के पर्यायवाची नजर आने लगते हैं। दोनों अटूट रिश्ते में बंधे दिखायी देते हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को सिद्धांतवादी व्यक्ति माना जाता है। उनके द्वारा किसी तांत्रिक की चौखट पर जाकर शीश झुकाने की कल्पना ही अटपटी लगती है। लगता है इस बार के विधानसभा चुनावों ने उन्हें जादू-टोने के करीब ला दिया है। उनके चुनावी अंदाज ही बदल गये हैं। वैसे भी इस बार का विधानसभा चुनाव जल्लाद, शैतान, नरभक्षी, ब्रह्मपिशाच, भस्मभभूत और कुत्ता पालक जैसे उत्तेजक शब्दों के साथ-साथ प्रगतिशील माने जाने वाले नीतीश के अघोरी बाबा की शरण में जाकर मस्तक नवाने के लिए याद रखा जायेगा। बिहार के तीसरे चरण के चुनाव के पूर्व सामने आये या लाये गये वीडियो में तांत्रिक और मुख्यमंत्री अंधभक्ति और अंधश्रद्धा की सदियों पुरानी मायावी पोशाक में लिपटे नजर आते हैं। ऐसा लगता है जैसे एक टूटा और थका आदमी हर जगह से निराश होने के बाद औघड बाबा की भभूत को चाट कर 'विजयी' होने की भीख मांग रहा हो। मिलन के दौरान दोनों विभिन्न मुद्राओं में दिखते हैं। मुख्यमंत्री और तांत्रिक चारपाई पर विराजमान हैं। तांत्रिक उनकी तारीफ करते हुए कुछ-कुछ बडबडाने लगता है। तांत्रिक का नाम है झप्पी बाबा। अपने नाम को सार्थकता प्रदान करते हुए वह उन्हें बडी मजबूती के साथ जब अपनी बाहों में भरता है तो वे गदगद हो जाते हैं। चालाक तांत्रिक 'लालू प्रसाद मुर्दाबाद' के नारे ऐसे लगाता है जैसे लालू को गालियां दे रहा हो और नीतीश को चेता रहा हो कि इस धूर्त से गठबंधन कर आपने अच्छा नहीं किया।
वैसे भी राजनेताओं का तांत्रिकों के समक्ष नतमस्तक होने और नाक रगडने का लम्बा इतिहास रहा है। जब-जब कोई मुसीबत आती है तो अर्जुन सिंह से लेकर अमरसिंह तक की कतार के नेता तांत्रिकों, ज्योतिषियों और मौनी बाबाओं की चौखट पर 'वरदान' पाने को पहुंच जाते हैं। उनकी एक ही चाहत होती है कि शत्रु का नाश हो और उनकी जय-जय। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते जब नरेंद्र मोदी सरकार की ताकतवर मंत्री स्मृति ईरानी एक तांत्रिक के समक्ष अपनी हथेलियां फैलाये थीं और तांत्रिक उनका भविष्य बांच रहा था। स्मृति ईरानी को तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का शुक्रगुजार होना चाहिए जिन्होंने उन्हें आधी-अधूरी डिग्रीधारी होने के बावजूद केन्द्रीय मानव संशाधन विकास मंत्री के उच्चतम पद पर विराजमान कर दिया। लगता है कि स्मृति इससे भी बडा मंत्री पद पाने को लालायित हैं या फिर इस पद के छिन जाने के भय ने उनकी नींद हराम कर दी है। ऐसे खौफजदा लोग ही अक्सर तांत्रिकों और ज्योतिषों की शरण में जाते हैं। दूसरों के आगे निकल जाने का भय उनका पीछा नहीं छोडता। राजनीति की दुनिया की हकीकत को समझ पाना आसान नहीं है। यहां अपना काम निकालने के लिए हर उस शख्स का साथ लेने की तिकडमें की जाती हैं जिसकी बदौलत मतदाताओं को प्रलोभित कर वोट बटोरे जा सकते हैं। काम निकलने के बाद दूध में गिरी मक्खी की तरह फेंक देने में भी देरी नहीं लगायी जाती।
इस हकीकत को वो फिल्मी सितारे बखूब समझते हैं जिन्होंने अपने कैरियर को दांव पर लगाकर राजनीति के क्षेत्र में कदम रखा। पार्टियों के प्रत्याशियों को चुनाव में विजयश्री दिलवाने का माध्यम बने, लेकिन पार्टियों तथा उनके मुखियाओं ने उन्हें वो सम्मान नहीं दिया जिसके वे हकदार थे। भाजपा में अपनी दुर्गति की पीडा झेल रहे शत्रुघ्न सिन्हा इसके जीते-जागते उदाहरण हैं। मंत्री बनने के लिए कब से तडप रहे हैं, लेकिन कोई दांव काम नहीं आ रहा है। शत्रुघ्न सिन्हा कोई साधु-महात्मा तो हैं नहीं कि राजनीति में आने के बाद सत्ता की चाहत छोड देते, लेकिन नरेंद्र मोदी हैं कि उनको मंत्री पद से वंचित रख उनके सब्र का इम्तहान लेने पर तुले हैं। शत्रुघ्न कभी सोनिया गांधी की तारीफ के गुब्बारे उडाते हैं तो कभी नीतीश कुमार को बिहार का सबसे उम्दा चमत्कारी मुख्यमंत्री बताते हैं। नरेंद्र मोदी उनके इशारों को जिस तरह से नजरअंदाज कर रहे हैं उससे यही लगता है कि बिहारी बाबू कभी भी अपने माथे पर दलबदलू का ठप्पा लगा सकते हैं। चुनावों के मौसम में फिल्मी सितारों की बहुत मांग होती है। इसलिए कांग्रेस और भाजपा के आंगन में सितारों का मेला लग जाता है। भोजपुरी फिल्मों से एकाएक राजनीति में आए मनोज तिवारी भी झटके पर झटके झेल रहे हैं। मोदी लहर में दिल्ली के मतदाताओं ने सांसद बनने का सौभाग्य प्रदान कर उन्हें वो खुशियां बख्श दीं जिनकी उन्हें कतई उम्मीद नहीं थी। हमारे यहां लोकप्रियता बहुत फलदायी होती है। बिहार के विधानसभा चुनावों में मनोज तिवारी की लोकप्रियता ने भाजपा के बडे-बडे नेताओं को बौना बनाकर रख दिया है। तिवारी को मंच पर देखते ही जनता उनसे भोजपुरी गाने सुनने की फरमाइश शुरू कर देती है। तय है कि सारी तालियां भी उन्हीं के हिस्से में आती हैं। इससे बिहार के भाजपा के नेता जलभुन कर रह जाते हैं। एक पूर्व केंद्रीय मंत्री और बिहार से पार्टी के एक बडे नेता ने साफ-साफ कह दिया कि वे उस मंच पर चढेंगे ही नहीं जिस पर यह गवैया रहेगा। मनोज का गाना खत्म होते ही जनता नेताओं के भाषण सुनने की बजाय खिसक लेती है और नेताओं को मुंह लटकाये रह जाना पडता है।

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