Thursday, October 15, 2015

मजहब नहीं सिखाता आपस में वैर करना

कुछ भी कहिए, लेकिन यह लिखने में कोई हर्ज नहीं कि देश की फिज़ा को बिगाडने का जबरदस्त षडयंत्र चल रहा है। जिनके हाथ खून से रंगे हैं उनकी शिनाख्त बहुत आसान है... लेकिन उन्हें दबोचने की कोशिशों का ज्यादा अता-पता नहीं है। कुछ बददिमाग नेताओं, सांसदों, मंत्रियों और साधु-साध्वियों का असली मकसद भी सबकी समझ में आने लगा है। देश के कई साहित्यकार बेहद चिंतित हैं। मोदी के आने पर धार्मिक भेदभाव ने काफी ज्यादा अपने पांव पसार लिये हैं। साहित्यकारों की नींद उड गयी है। उन्हें प्रधानमंत्री के इरादे कतई नेक नहीं लग रहे हैं। उनका आरोप है कि मोदी ने साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाडने वालों को तांडव मचाने की खुली छूट दे दी है। नयनतारा सहगल, अशोक वाजपेयी, कृष्णा सोबती, शशि देशपांडे, सारा जोसेफ, गणेश देवी, गुरबचन भुल्लर, अजमेर सिंह औलख, आत्मजीत सिंह, अरुण जोशी, दलीप कौर तिवाना आदि साहित्यकारों ने देश में बढती साम्प्रदायिक घटनाओं और तर्कवादियों की हत्याओं के विरोध में अकादमी के पुरस्कार और पद्मश्री लौटाकर सरकार और साहित्य अकादमी की चुप्पी पर सवाल उठाते हुए उन्हे कठघरे में खडा कर दिया। साहित्यकारों की इस विरोधबाजी से तरह-तरह के सवाल गूंजे। कई प्रतिक्रियाएं भी आयीं।
पुरस्कार लौटाने वालों में पुराने साहित्यकार भी हैं और नये भी। कृष्णा सोबती, अशोक वाजपेयी, नयनतारा सहगल, दलीप कौर तिवाना जैसे उम्रदराज लेखकों ने साहित्य अकादमी के पुरस्कार और पद्मश्री लौटाने का ऐलान कर यह संदेश देने की कोशिश की, कि दादरीकांड और पाखंड के खिलाफ अभियान चलाने वाले लेखकों, समाजसेवकों की हत्याओं को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। साम्प्रदायिक हिंसा पर प्रधानमंत्री की चुप्पी भी बेहद चुभने वाली है। पुरस्कार लौटा कर विरोध जताने वाले साहित्यकारों के बारे में कहा गया कि यह लोग तब कहां थे जब कश्मीर में नरसंहार हो रहा था? दिल्ली में हुए हजारों सिक्खों के कत्लेआम से इनकी आखें क्यों नहीं खुलीं? आश्चर्य... बाबरी विध्वंस और उसके बाद हुए दंगों ने भी इन्हें जरा भी विचलित नहीं किया! कुंडा, मेरठ और मुजफ्फरनगर के अलावा कहां-कहां दंगे होते रहे, लेकिन तब तो इनकी आत्मा नहीं जागी! गोधराकांड और गुजरात के दंगों के बाद भी कोई 'शूरवीर' पुरस्कार लौटाने के लिए सामने नहीं आया? ग्वालियर के पत्रकार, लेखक और कवि राकेश अचल का यह कथन कितना सटीक है-"सम्मान लौटाना एक नपुंसक विरोध है। विरोध करना है तो मैदान में उतरिए। जिन्हें अमन और शांति का शत्रु मानते हैं उनके नाक, कान कुतरिए।" विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के नेताओं की तरह कुछ साहित्यकारों को यदि यह लगता है कि नरेंद्र मोदी के शासन काल में धर्मनिरपेक्षता पर संकट के बादल छाते चले जा रहे हैं। मुसलमानों को तरह-तरह प्रताडित किया जा रहा है और भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने का षडयंत्र रचा जा चुका है तो उन्हें अपनी कलम को हथियार बनाने से किसने रोका है? साहित्यकारों और पत्रकारों के पास कलम नाम का जो अस्त्र है उससे ही लोगों की चेतना जगायी जा सकती है और शासकों की नींद हराम की जा सकती है। पुरस्कार लौटाने से नरेंद्र मोदी जैसे राजनेता पर कोई फर्क नहीं पडने वाला। जिस शख्स ने गुजरात दंगों के संगीन आरोपों की कभी परवाह न की हो और जनता ने जिसे बार-बार प्रदेश के मुख्यमंत्री की गद्दी सौपी हो उसे ऐसे तमगे लौटाने के खेल से कोई फर्क नहीं पडने वाला। प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने से पहले ही वे इतनी आलोचनाएं और दबाव झेल चुके हैं। कि अब सुनकर अनसुना कर देना उनकी आदत में शुमार हो चुका है। नैतिक दबाव भी उन पर आसानी से असर नहीं डालते। उनकी सोच को बदलने के लिए कलम और वाणी को धारदार हथियार बनाने के सिवाय और कोई रास्ता नहीं है। अपने देश की जागरूक जनता लेखकों और पत्रकारों का सम्मान करती है। उनके लिखे और बोले का उस पर बहुत गहरे तक असर पडता है। इतिहास गवाह है कि साहित्यकारों और पत्रकारों की आक्रामक लेखनी और बुलंद आवाज  ने बेलगाम सत्ताधीशों को कई बार आसमान से जमीन पर पटक कर उनके होश ठिकाने लगाने का करिश्मा कर दिखाया है। कुशासन, अनाचार और भ्रष्टाचार के खिलाफ होने वाली हर लडाई में देशवासी खुद-ब-खुद शामिल हो जाते हैं। जनता के साथ की ताकत की बदौलत ही कई युद्ध सफलतापूर्वक लडे जा चुके हैं। याद कीजिए वो दौर जब इंदिरा गांधी ने देश पर जबरन आपातकाल थोपा था और लोकतंत्र खतरे में पड गया था। तब लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी की हिटलरी प्रवृति के खिलाफ पूरे देश में घूम-घूम कर अभियान चलाया था। देश के कई साहित्यकारों और पत्रकारों ने आपात काल के विरोध में कलम के जरिए जनता को जागृत कर जयप्रकाश के आंदोलन को देश के कोने-कोने में पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोडी थी। यह बात अलग है कि तब कुछ साहित्यकार और पत्रकार बिकने से नहीं बच पाये थे। जयचंद तो हर काल में हुए हैं। उत्तरप्रदेश के मंत्री आजम खान को लगता है कि भारत में मुसलमान खौफ में जी रहे हैं। उनके अधिकारों का हनन हो रहा है। एक ताकतवर मंत्री ही जब देश के अंदरूनी मामले को संयुक्त राष्ट्र (यूएन) ले जाने का साहस दिखाए तो करोडों भारतीयों का खून खौलना नाजायज तो नहीं? जो तकलीफ देश में बयां करनी चाहिए और उसका हल भी यहीं तलाशना चाहिए... उसे सात समंदर पार ले जाकर वे खुद को किस किस्म का देशभक्त और मुसलमानो का एकमात्र खैरख्वाह साबित करना चाहते हैं? बदहवास आजम खान की यह बदमाशी अपने ही देश का सरासर अपमान है। पुरस्कार लौटाकर देश का अपमान तो साहित्यकारों ने भी किया है। उन्ही की वजह से विदेशों में देश बदनाम तो हुआ ही है कि भारत कैसा देश है जहां बुद्धिजीवियों की बात नहीं सुनी जाती। उन्हें वर्षों की तपस्या के बाद हासिल किये गये तमगों को लौटाने को मजबूर होना पडता है। दादरी कांड में अपने पिता अखलाक की मौत के बाद वायुसेना में कार्यरत उनके बेटे मुहम्मद सरताज बेहद संयत बने रहे। अमानवीयता और बर्बरता की पराकाष्ठा पार करने वाली इस घटना के बाद भी सरताज शांति और भाईचारे की अपील करना नहीं भूले। वे अभी भी यही कहते नहीं थकते-'सारे जहां से अच्छा हिन्दोसतां हमारा, मजहब नहीं सिखाता आपस में वैर करना'। उन्मादियों के हाथों मारे गये पिता के बेटे का मर्यादित रहकर सभी को मिलजुलकर रहने का संदेश देना साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाडने वाले हत्यारों और दरिंदों के मुंह पर ऐसा तमाचा है जिसकी गूंज दूर-दूर तक गयी है। कवि, गज़लकार श्री अशोक रावत की लिखी यह पंक्तियां राजनेताओं की नीयत और आज के यथार्थ को कितने सहजअंदाज से बयां करती हैं :
"हमदर्द मेरे हर मौके पर, वादों को निभाना भूल गये,
दुनिया के फसाने याद रहे, मेरा ही फसाना भूल गए।
कुछ बेच रहे हैं जात-पात, कुछ मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे,
सब अपनी जिम्मेदारी का एहसास जताना भूल गए।
ये बीफ मटन की चिनगारी, ये आरक्षण के दांव पेच,
लगता है जैसे बादल भी आग बुझाना भूल गए।"

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