Thursday, December 24, 2015

अब और मत लो सब्र का इम्तहान

अभी तक ऐसा कोई यंत्र या पैमाना नहीं बना जो इंसान की पूरी पहचान करवा सके। उसके अंदर के संपूर्ण सच को उजागर कर सके। दुनियादारी के हर दांवपेंच से वाकिफ भुक्तभोगियों और जानकारों का भी यही कहना है कि हर आदमी के अंदर कई-कई आदमी होते हैं, इसलिए अगर उसे पूरी तरह से समझना हो तो कई-कई बार देखना और परखना चाहिए। यानी जो दिखता है वो पूरा सच नहीं होता। उसके पीछे भी बहुत कुछ होता है जिसे देखा नहीं जाता, या फिर नजरअंदाज कर दिया जाता है। यही दुनिया का दस्तूर है। पूरा सच जानने की फुर्सत ही नहीं। कहते हैं बच्चों से भोला और कोई नहीं होता। जिसने भी दुलारा-पुचकारा उसी के हो लिए। करीबी रिश्तेदारों और पास-पडोस के चाचा-मामा के निकट जाने में तो बच्चे किंचित भी देरी नहीं लगाते। उनकी निकटता में उन्हें स्नेह और अपनत्व के साथ-साथ भरपूर सुरक्षा का एहसास होता है, लेकिन यही बच्चे जब छल-कपट और धोखे के शिकार हो जाते हैं तो उन पर क्या बीतती होगी? बडे तो धोखेबाजों से बचने के तौर-तरीके जानते हैं, लेकिन बेचारे मासूम बच्चे... उनकी तो जैसे बलि ही ले ली जाती है। वाकई... यह सच कितना चौंकाने वाला है कि केवल दिल्ली में ही पिछले ११ महीनों में दो से बारह साल की मासूम बच्चियों के साथ बलात्कार के २४० मामले दर्ज किये गये। इसमें से १२५ ऐसे मामले हैं जहां पीडिता की उम्र महज दो से सात साल के बीच है। इसके अलावा सात से बारह साल की बच्चियों पर दुष्कर्म का जुल्म ढाने के ११६ मामले सामने आये। बारह मामले तो ऐसे सामने आये, जहां दो साल से कम उम्र की बच्चियों को अपनी हैवानी हवस का शिकार बनाया गया। यह तो मात्र दिल्ली के आंकडे हैं। देश के विभिन्न प्रदेशों में प्रतिवर्ष हजारों की संख्या में ऐसी घिनौनी हरकतों को अंजाम दिया जाता है। मासूम बच्चियों पर होने वाले ज्यादातर बलात्कार के मामलों की आहट तक पुलिस थानों में नहीं पहुंच पाती। कई मामले तो खुद पुलिस वाले ही लेन-देन कर रफा-दफा कर देते हैं। दबे-छिपे जुल्म का वहशी कारोबार चलता रहता है। अधिकांश बलात्कारी नजदीकी रिश्तेदार और आसपास के जाने-पहचाने चेहरे होते हैं जिन पर भरोसे का ठप्पा लगा होता है। यह सवाल मुझे हमेशा परेशान करता रहता है कि हंसती-खेलती चिडिया-सी फुदकती बच्चियों के जीवन में अनंत काल के लिए उदासी, ठहराव और अंधेरा भर देने वाले शैतानों को सुकून की नींद कैसे आती होगी? ...वे इस शर्मनाक अपराधबोध से छुटकारा पाते हुए अपने अंदर के मानव से नज़रें मिला पाते होंगे?
देश में बच्चियों पर बढते बलात्कारों की सुर्खियों में छपी खबरों की भीड से हटकर हाशिये में छपी एक खबर ने यकीनन मुझे मेरे सवाल का जवाब देने के साथ-साथ और कई सवालों के बीच ले जाकर खडा कर दिया। खबर कुछ इस तरह थी: 'राजधानी दिल्ली में दुष्कर्मी मासूम बेटियों को भी नहीं बख्शते। कोई भी दिन ऐसा नहीं गुजरता जब बच्चियों पर निर्मम बलात्कार की खबर सुर्खी न पाती हो। इसी कडी में दिल्ली की स्लाइट कालोनी में भारतीय वायुसेना के भूतपूर्व अफसर ने अपने भाई के मकान में रहने वाले किरायेदार की आठ साल की बच्ची पर बलात्कार कर मानवता को कलंकित कर डाला। कुकर्म करने के पश्चात उसकी चेतना जागी। एक नादान बच्ची के साथ उसने यह क्या कर डाला! उसे अपराधबोध ने पूरी तरह से जकड लिया। बार-बार उस मासूम का चेहरा उसके सामने आने लगा। वह छोटी-नन्ही-सी बच्ची उसे अंकल...अंकल कहते नहीं थकती थी। जब कोई उसे डांटता था तो अंकल की गोद में आकर बैठ जाती थी। अंकल की छात्र-छाया से बढकर कोई और सुरक्षित जगह नहीं थी उसके लिए।उसके प्यारे अंकल इतना घिनौना कृत्य कर सकते हैं यह तो उसने कभी कल्पना ही नहीं की थी। इस उम्रदराज बलात्कारी ने अपने 'कुकर्म' के बारे में अपने भाई को अवगत कराया और यह भी कहा कि उससे बहुत बडी गलती हो गयी है। वह बहुत शर्मिंदा है। अब वह जीना नहीं चाहता। भाई को उसने यह भी बताया कि वह आत्महत्या करने जा रहा है। भाई उसे रोक पाता या पुलिस तक खबर कर पाता उससे पहले ही प्रायश्चित की आग में झुलस रहे बलात्कारी ने रेल के नीचे आकर आत्महत्या कर ली।' यकीनन यह खबर भी अपवाद है और बलात्कारी भी। अधिकांश बलात्कारी अपने विवेक को ताक पर रख देते हैं और बेखौफ होकर दुष्कर्म करते चले जाते हैं। उन्हें इस बात की चिन्ता नहीं होती कि कानून और समाज उनके साथ कैसा बर्ताव करेगा। निर्भया कांड के प्रबल सहभागी नाबालिग बलात्कारी की रिहायी तो हो गयी, लेकिन उसके प्रति किसी को भी कोई सहानुभूति नहीं। जिस गांव में वह जन्मा, उस गांव के लोग कतई नहीं चाहते कि वह गांव की जमीन पर कदम रखे। देश और दुनिया की अपार नफरत झेलते इस दुराचारी को भी खुद की रिहायी खुशी नहीं दे पायी। वह जानता है कि लोग उससे बेहद खफा हैं। इसलिए वह जेल से बाहर आने से भी कतराता और घबराता रहा। गुस्साये लोगों के हाथों पिटने या मार गिराये जाने का डर अभी भी उस पर हावी है। गांववासी कहते हैं कि इस दरिंदे बलात्कारी को अदालत ने भले ही छोड दिया है, मगर गांव में घुसना तो दूर, उसे आसपास भी नहीं फटकने दिया जायेगा। इस शैतान ने गांव की साख को जो बट्टा लगाया है उससे गांव का हर शख्स शर्मसार है। गांव के बुजुर्गों की पीडा को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। वे कहते हैं कि इस छोकरे के कारण हमें जहां-तहां सिर झुकाने को विवश होना पडता है। लोग हमें हिकारतभरी नजरों से देखते हैं। कुछ गांव वालों को हैरानी भी होती है कि उनके गांव के सीधे-सादे बच्चे ने इतना घिनौना दुष्कर्म कैसे कर डाला। गांव का बच्चा दस साल की उम्र में दिल्ली में कमाने-खाने गया था। शुरू-शुरू में उसने होटलों में बर्तन साफ किये, मेहनत-मजदूरी की और कमायी का अधिकांश हिस्सा मां-बाप के हवाले कर अच्छे पुत्र का फर्ज निभाया। वह जैसे-जैसे बडा होता गया उसके काम-धंधे बदलते गये। धीरे-धीरे गलत संगत में भी पड गया। बस में हेल्परी के दौरान शराब पीने की आदत भी पाल ली। एक अच्छे-भले लडके के खूंखार अपराधी-बलात्कारी बनने की काली-कथा में जो कटु सच छिपा है क्या उस पर इस देश के नेता, चिंतक, विद्वान और सत्ताधीश कोई सार्थक विचार कर बचपन को भटकने की राह पर जाने से बचाने की कोई पहल करेंगे भी या सिर्फ बातें ही होती रहेंगी? इस सच को जान लें कि चाहे कितने भी कानून बन जाएं, कुछ खास नहीं बदलने वाला। जब तक गैरबराबरी, शोषण, गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी का खात्मा नहीं होता तब तक अपराधी बनते और पनपते रहेंगे। अभी भी वक्त है...शासको होश में आओ... देशहित और जन-जन के हित की मात्र सोचो ही नहीं, कुछ करके भी तो दिखाओ। निकम्मे शासकों को झेलते-झेलते देश और देशवासी थक चुके हैं। गुस्सा घर कर चुका है। सब्र खत्म होता चला जा रहा है...।

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