"जनता का शोषण करने वाले नेताओं, अफसरों और दलालों को फांसी पर लटका दिया जाना चाहिए... या गोलियों से भून दिया जाना चाहिए।" यह कहना है राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव का। यह महाशय बिहार के माधोपुर से सांसद होने के साथ जन अधिकार पार्टी के संरक्षक हैं। इनका मानना है कि भारत में सुधार का कोई और रास्ता नहीं बचा है। दस फीसदी नेता-अफसर नब्बे फीसदी लोगों का शोषण कर रहे हैं। कोई उनका कुछ भी नहीं बिगाड पा रहा है। पप्पू यादव ने उस लालू प्रसाद यादव को फांसी पर लटकाने की ललकार लगायी है जिनको कभी वे अपना सर्वेसर्वा और बिहार का मसीहा कहते नहीं थकते थे। चारा-चोर लालू के भ्रष्ट होने की जानकारी तो उन्हें तब भी थी जब वे उनके महिमामंडन में कोई कसर नहीं छोडते थे। मतभेद होने और साथ छूटने के बाद शब्द भी आक्रामक हो जाते हैं। अपने यहां की राजनीति और नेताओं की यह जगजाहिर परिपाटी है। वैसे भी पप्पू यादव जैसे नेताओं को गंभीरता से नहीं लिया जाता। कुकरमुत्ते की तरह उगने वाले ऐसे नेता बडी आसानी से पाला बदल लेते हैं। ताज्जुब है कि फिर भी यह लोग चुनाव जीत कर देश के सबसे बडे मंदिर संसद भवन पहुंच जाते हैं। समर्पित, ईमानदार, शालीन और सुलझे हुए नेताओं के लिए इन्हें चुनावी मैदान में पटकनी देना टेढी खीर हो जाता है। अपने विरोधियों के खिलाफ इनकी जुबान तेजाब उगलते हुए कैंची की तरह चलती रहती है। इनके विरोधियों के चेहरे बदलते रहते हैं। जिधर दम उधर हम की नीति पर चलते हुए इनकी राजनीति का सफर जारी रहता है।
वक्तृत्व कला में पारंगत नये चेहरों की राजदलों को सतत जरूरत रहती है। उनकी गिद्ध दृष्टि शाब्दिक आग उगलने वाले विवादास्पद चेहरों पर गढी रहती है। मौका पाते ही वे उन्हें अपने पाले में ले लेते हैं। अभी तक हम यही सुनते और देखते आ रहे थे कि लोग देशद्रोहियो से पूरी तरह से नफरत करते हैं, लेकिन पिछले दिनों जिस तरह से संसद हमले के दोषी अफजल गुरु और आतंकी मकबूल बट्ट के चहेतों के नारे सुने तो स्तब्ध रह गये। इन्हीं नारों के शोर के बीच कन्हैया का नाम किसी तूफान की तरह सामने आया और चर्चा का विषय बन गया। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया को सात समंदर पार तक ख्याति, कुख्याति दिलवाने में मीडिया के साथ-साथ चतुर बयानवीरों की भूमिका हैरत में डाल देती है। देशद्रोह के आरोप में जमानत पर जेल से बाहर आए कन्हैया को कुछ राजनैतिक दलों ने ऐसे दुलारा-पुचकारा जैसे पिता अपने बेटे की पीठ थपथपाता है। ऐसा भी लगा कि इस देश में एक नये क्रांतिकारी नेता ने जन्म ले लिया है। कन्हैया ने अपनी भाषणबाजी से उनका दिल जीत लिया जिन्हें मोदी सरकार खटकती रहती है। उसे जेल भेजा तो गया था देशद्रोह के आरोप में, लेकिन वह जेल से नायक बनकर निकला। क्या कन्हैया और उसे 'हीरो' बनाने को आतुर लाल चेहरेधारी इस सच को नकार सकते हैं कि कन्हैया जिस जेएनयू छात्र संघ का अध्यक्ष है उसी में यह भडकाऊ नारे नहीं लगे? : 'कितने अफजल मारोगे, घर घर से अफजल निकलेगा... भारत तेरे टुकडे होंगे, इंशा अल्ला... इंशा अल्ला... भारत की बर्बादी तक, जंग रहेगी, जंग रहेगी।'
आम आदमी को रोष और आक्रोश की आग में झुलसा देने वाले इन नारों के पक्ष में चाहे कितनी भी दलीले दी जाएं, कन्हैया को बेकसूर, नादान, भोला और मासूम बताया जाए, लेकिन इस कलम को यह कतई मंजूर नहीं। सच को छुपाना भी छल है, देश से गद्दारी है। ऐसा तो हो नहीं सकता कि वह इन नारों को ईजाद करने वालों और गुंजाने वालों से अनभिज्ञ हो। कन्हैया की तस्वीर को येन-केन-प्रकारेण भावी नेता के फ्रेम में सजाने को आतुल नक्सलवादियों के हितैषी बुद्धिजीवी अपने होश खो चुके लगते हैं या फिर साजिशन आखें बंद किये हैं। सजग देशवासी यह कैसे भूल सकते हैं कि जेएनयू के कारण देश के अन्य विश्वविद्यालओं के छात्र भी उत्तेजक और अलगाववादी नारेबाजी पर उतर आये। उन्हें भी आतंकी याकूब मेनन, मकबूल और अफरोज बेगुनाह नजर आने लगे। उसके बाद तो जैसे सिलसिला सा चल पडा। जेएनयू के बाद जादवपुर विश्वविद्यालय में छात्रों की भीड के द्वारा यह नारे लगाना... 'हर अफजल बोले आजादी, गिलानी बोले आजादी, हम छीन के लेंगे आजादी- आखिर कौन से सच और सोच को दर्शाता है? ...इन्हें प्रेरणा तो कन्हैया के विश्वविद्यालय से ही मिली। इन नारों को उछालकर देश का वातावरण बिगाडने की कोशिश से इंकार तो नहीं किया जा सकता।
कौन राष्ट्रद्रोही है और कौन देशप्रेमी... इस सवाल में उलझने की बजाय यह जानने-समझने की भरसक कोशिश की जानी जरूरी है कि ऐसे हालातों के बनने और बनाने के पीछे कौन सी बाहरी और अंदरूनी ताकतें काम कर रही हैं। आस्तीन के सांपों को तो हर हालत में कुचला ही जाना चाहिए। हवा में हाथ उछालने, गुस्सा दर्शाने और फतवे जारी करने से कुछ भी हासिल नहीं हेने वाला। इससे तो देश के दुश्मनों के हौसले और बुलंद होंगे। उनके हितैषी और खुद वे भी यही तो चाहते हैं। कन्हैया जैसे ही जमानत पर बाहर आया तो उसके कट्टर विरोधी पोस्टरबाजी पर उतर आये। पूर्वांचल सेना नाम के संगठन की ओर से लगाए गए पोस्टर में कन्हैया को गोली मारने वाले को ११ लाख रुपये का इनाम देने का ऐलान कर उत्तेजना और सनसनी फैलाने की भरपूर कोशिश की गयी। वहीं बदायूं के भाजपा नेता कुलदीप ने कन्हैया की जीभ काटने वाले को पांच लाख के पुरस्कार से नवाजने की घोषणा कर भारत के टुकडे करने के सपने देखने वाले अफजल प्रेमियों के सीनों को और चौडा कर दिया। एक तरफ जहां कन्हैया पर जुबानी हमलों के बारुद दागे जा रहे थे वहीं दूसरी तरफ लुधियाना की रहने वाली पंद्रह साल की जाह्नवी ने कन्हैया को खुली बहस की चुनौती देकर नारेबाजों के खिलाफ गुस्से में तमतमाते भारतीयो को आइना दिखाया कि यह वक्त होश में रहने का है, बेहोश होने का नहीं। दसवीं की पढाई कर रही इस छात्रा को कन्हैया के द्वारा प्रधानमंत्री की खिल्ली उडाना कतई रास नहीं आया। उसका मानना है कि कन्हैया और उसका गिरोह राजनीति से प्रेरित होकर प्रधानमंत्री और देश की साख को बट्टा लगाने पर तुला है।
नरेंद्र मोदी भारत वर्ष के प्रधानमंत्री हैं न कि भाजपा के। कन्हैया जैसे लोग भाजपा के खिलाफ कुछ भी बोलने के लिए स्वतंत्र हैं। अभिव्यक्ति की उन्हें पूरी आजादी है, लेकिन देश के प्रधानमंत्री का अपमान कतई बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। कन्हैया वक्तृत्व कला में माहिर है। राजनीतिक दलों को ऐसे चेहरे हमेशा लुभाते रहे हैं। इसलिए उसे अपने-अपने जाल में फंसाने की पूरी तैयारियां हो चुकी हैं। राजनेता हमेशा अपना फायदा देखते हैं। वोटों के लालच में देश भी दांव पर लग जाए तो उन्हें कोई फर्क नहीं पडता। अपने मन-मस्तिष्क के दरवाजों और खिडकियों पर ताले जड चुकी मुखौटेबाज मतलबपरस्तों की टोली क्या निम्न पंक्तियों के अर्थ को समझने की कोशिश करेगी? :
'वो दौर भी देखा है
तारीख की आंखों ने
लम्हों ने खता की थी
सदियों ने सज़ा पायी।'
वक्तृत्व कला में पारंगत नये चेहरों की राजदलों को सतत जरूरत रहती है। उनकी गिद्ध दृष्टि शाब्दिक आग उगलने वाले विवादास्पद चेहरों पर गढी रहती है। मौका पाते ही वे उन्हें अपने पाले में ले लेते हैं। अभी तक हम यही सुनते और देखते आ रहे थे कि लोग देशद्रोहियो से पूरी तरह से नफरत करते हैं, लेकिन पिछले दिनों जिस तरह से संसद हमले के दोषी अफजल गुरु और आतंकी मकबूल बट्ट के चहेतों के नारे सुने तो स्तब्ध रह गये। इन्हीं नारों के शोर के बीच कन्हैया का नाम किसी तूफान की तरह सामने आया और चर्चा का विषय बन गया। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया को सात समंदर पार तक ख्याति, कुख्याति दिलवाने में मीडिया के साथ-साथ चतुर बयानवीरों की भूमिका हैरत में डाल देती है। देशद्रोह के आरोप में जमानत पर जेल से बाहर आए कन्हैया को कुछ राजनैतिक दलों ने ऐसे दुलारा-पुचकारा जैसे पिता अपने बेटे की पीठ थपथपाता है। ऐसा भी लगा कि इस देश में एक नये क्रांतिकारी नेता ने जन्म ले लिया है। कन्हैया ने अपनी भाषणबाजी से उनका दिल जीत लिया जिन्हें मोदी सरकार खटकती रहती है। उसे जेल भेजा तो गया था देशद्रोह के आरोप में, लेकिन वह जेल से नायक बनकर निकला। क्या कन्हैया और उसे 'हीरो' बनाने को आतुर लाल चेहरेधारी इस सच को नकार सकते हैं कि कन्हैया जिस जेएनयू छात्र संघ का अध्यक्ष है उसी में यह भडकाऊ नारे नहीं लगे? : 'कितने अफजल मारोगे, घर घर से अफजल निकलेगा... भारत तेरे टुकडे होंगे, इंशा अल्ला... इंशा अल्ला... भारत की बर्बादी तक, जंग रहेगी, जंग रहेगी।'
आम आदमी को रोष और आक्रोश की आग में झुलसा देने वाले इन नारों के पक्ष में चाहे कितनी भी दलीले दी जाएं, कन्हैया को बेकसूर, नादान, भोला और मासूम बताया जाए, लेकिन इस कलम को यह कतई मंजूर नहीं। सच को छुपाना भी छल है, देश से गद्दारी है। ऐसा तो हो नहीं सकता कि वह इन नारों को ईजाद करने वालों और गुंजाने वालों से अनभिज्ञ हो। कन्हैया की तस्वीर को येन-केन-प्रकारेण भावी नेता के फ्रेम में सजाने को आतुल नक्सलवादियों के हितैषी बुद्धिजीवी अपने होश खो चुके लगते हैं या फिर साजिशन आखें बंद किये हैं। सजग देशवासी यह कैसे भूल सकते हैं कि जेएनयू के कारण देश के अन्य विश्वविद्यालओं के छात्र भी उत्तेजक और अलगाववादी नारेबाजी पर उतर आये। उन्हें भी आतंकी याकूब मेनन, मकबूल और अफरोज बेगुनाह नजर आने लगे। उसके बाद तो जैसे सिलसिला सा चल पडा। जेएनयू के बाद जादवपुर विश्वविद्यालय में छात्रों की भीड के द्वारा यह नारे लगाना... 'हर अफजल बोले आजादी, गिलानी बोले आजादी, हम छीन के लेंगे आजादी- आखिर कौन से सच और सोच को दर्शाता है? ...इन्हें प्रेरणा तो कन्हैया के विश्वविद्यालय से ही मिली। इन नारों को उछालकर देश का वातावरण बिगाडने की कोशिश से इंकार तो नहीं किया जा सकता।
कौन राष्ट्रद्रोही है और कौन देशप्रेमी... इस सवाल में उलझने की बजाय यह जानने-समझने की भरसक कोशिश की जानी जरूरी है कि ऐसे हालातों के बनने और बनाने के पीछे कौन सी बाहरी और अंदरूनी ताकतें काम कर रही हैं। आस्तीन के सांपों को तो हर हालत में कुचला ही जाना चाहिए। हवा में हाथ उछालने, गुस्सा दर्शाने और फतवे जारी करने से कुछ भी हासिल नहीं हेने वाला। इससे तो देश के दुश्मनों के हौसले और बुलंद होंगे। उनके हितैषी और खुद वे भी यही तो चाहते हैं। कन्हैया जैसे ही जमानत पर बाहर आया तो उसके कट्टर विरोधी पोस्टरबाजी पर उतर आये। पूर्वांचल सेना नाम के संगठन की ओर से लगाए गए पोस्टर में कन्हैया को गोली मारने वाले को ११ लाख रुपये का इनाम देने का ऐलान कर उत्तेजना और सनसनी फैलाने की भरपूर कोशिश की गयी। वहीं बदायूं के भाजपा नेता कुलदीप ने कन्हैया की जीभ काटने वाले को पांच लाख के पुरस्कार से नवाजने की घोषणा कर भारत के टुकडे करने के सपने देखने वाले अफजल प्रेमियों के सीनों को और चौडा कर दिया। एक तरफ जहां कन्हैया पर जुबानी हमलों के बारुद दागे जा रहे थे वहीं दूसरी तरफ लुधियाना की रहने वाली पंद्रह साल की जाह्नवी ने कन्हैया को खुली बहस की चुनौती देकर नारेबाजों के खिलाफ गुस्से में तमतमाते भारतीयो को आइना दिखाया कि यह वक्त होश में रहने का है, बेहोश होने का नहीं। दसवीं की पढाई कर रही इस छात्रा को कन्हैया के द्वारा प्रधानमंत्री की खिल्ली उडाना कतई रास नहीं आया। उसका मानना है कि कन्हैया और उसका गिरोह राजनीति से प्रेरित होकर प्रधानमंत्री और देश की साख को बट्टा लगाने पर तुला है।
नरेंद्र मोदी भारत वर्ष के प्रधानमंत्री हैं न कि भाजपा के। कन्हैया जैसे लोग भाजपा के खिलाफ कुछ भी बोलने के लिए स्वतंत्र हैं। अभिव्यक्ति की उन्हें पूरी आजादी है, लेकिन देश के प्रधानमंत्री का अपमान कतई बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। कन्हैया वक्तृत्व कला में माहिर है। राजनीतिक दलों को ऐसे चेहरे हमेशा लुभाते रहे हैं। इसलिए उसे अपने-अपने जाल में फंसाने की पूरी तैयारियां हो चुकी हैं। राजनेता हमेशा अपना फायदा देखते हैं। वोटों के लालच में देश भी दांव पर लग जाए तो उन्हें कोई फर्क नहीं पडता। अपने मन-मस्तिष्क के दरवाजों और खिडकियों पर ताले जड चुकी मुखौटेबाज मतलबपरस्तों की टोली क्या निम्न पंक्तियों के अर्थ को समझने की कोशिश करेगी? :
'वो दौर भी देखा है
तारीख की आंखों ने
लम्हों ने खता की थी
सदियों ने सज़ा पायी।'
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