Thursday, March 3, 2016

सत्ता का अहंकार, कैसे-कैसे चाटुकार

कल एक तस्वीर पर नजर पडी। बस गौर से देखता ही रह गया। एक सत्तर-पचहत्तर वर्षीय वृद्ध कांग्रेस नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया के चरणों में झुके हैं और सिंधिया का हाथ आशीर्वाद देने की गर्वीली मुद्रा में वृद्ध के कंधे पर हैं। मन में विचार आया कि अपने बाप-दादा की उम्र के बुजुर्ग से अपना पैर पकडवाने में सांसद सिंधिया को कुछ शर्म-वर्म भी आयी होगी या यह सब उनकी सामंती आदत में शुमार है। उम्रदराज लोगों को अपने कदमों में झुकाते रहो और खुद के राजा-महाराजा होने के जन्मजात अहंकार में डूबे रहो। उम्रदराज लोगों के द्वारा नेताओं के चरण छूने, जूता पहनाने और उनके पैरों पर माथा टेकने की अनेकों तस्वीरें देखने में आती रहती हैं। इन नतमस्तक होने वालों में अधिकांश असहाय और गरीब भारतवासी होते हैं। जिनकी कहीं नहीं सुनी जाती और वे नेताओं के दरबार में बहुत उम्मीदों के साथ खिंचे चले आते हैं, लेकिन यहां भी उन्हें कमतर होने का अहसास कराया जाता है। ऐसा भी नहीं है कि सभी झुकने वाले सिर बेबसों और मजबूरों के होते हैं। कई शातिर भी राजनेताओं के समक्ष नतमस्तक होने की कलाकारी दिखाते हुए अपने स्वार्थ सिद्ध करने में सफल, तो कभी असफल हो जाते हैं। ऐसी हैरतअंगेज हकीकतों की लम्बी फेहरिस्त है...। पिछले दिनों दलितो की तथाकथित मसीहा मायावती के पैरों को छूती एक महिला की तस्वीर जब अखबारों और सोशल मीडिया में छायी तो लोगों को कतई हैरानी नहीं हुई। भाग्यवान मायावती के लिए यह कोई नयी बात नहीं थी। उनकी चरणवंदना को लालायित रहने वालों में प्रतिस्पर्धा चलती रहती है। वे किसी भी तरह से बहन जी के समीप पहुंचने और उनकी नजरों में आने को बेचैन रहते हैं। कुछ तो इस भ्रम में रहते हैं कि उनका आशीर्वाद उन्हें फर्श से अर्श तक पहुंचा सकता है। वे रंक से राजा बन सकते हैं, लेकिन इस बार तो जैसे धमाका हो गया। महिला तस्वीर को छुपाकर नहीं रख पायी। शायद वह प्रचार पाने की जल्दी में थी। बहन जी ने चरण छूती तस्वीर को जगजाहिर करने के लिए न केवल उस महिला को फटकारा, अपनी बहुजन समाज पार्टी से भी बाहर का रास्ता दिखा दिया। उनके इस हिटलरी फैसले ने महिला को अपना मुंह खोलने को विवश कर दिया। महिला का धमाकेदार बयान आया कि वह लाखों रुपये की थैलियां बहन जी को अर्पित कर चुकी हैं। उसे विधानसभा की टिकट देने का आश्वासन दिया गया था। इसलिए उसने बहन जी की मांग के अनुसार धन अर्पण करने में कोई कमी नहीं रखी। चरण छूकर उसने टिकट देने के वायदे के लिए धन्यवाद और आदर का जो प्रदर्शन किया था उसी की तस्वीर फेसबुक पर डाली गयी थी। घूमते-घुमाते यह तस्वीर देशभर के अखबारों में छप गयी। इसमें मेरा क्या दोष है?
तामिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता के चरणों में लोटपोट होने वाले भक्तों की भी कितनी तस्वीरें मीडिया में जगह पाती रहती हैं। यह मीडिया का ही कमाल है कि खामोश तस्वीरें भी बोलने लगती हैं और दबा-छिपा कडवा सच एकाएक बाहर आ जाता है। मायावती पर धन लेकर चुनावी टिकटें बांटने के संगीन आरोप लगना कोई नयी बात नहीं है। मायावती ही क्यों देश के लगभग हर राजनीति दल पर मोटी दक्षिणा लेकर धनवानों को चुनावी मैदान में उतारने का हो-हल्ला मचता रहता है, लेकिन इसे भी लोकतंत्र की मजबूरी और जरूरत मानकर खामोशी की चादर तान ली जाती है। बेचारे समर्पित नेता और कार्यकर्ता हाथ मलते रह जाते हैं और खरीददारों की मायावी ताकत कहां से कहां पहुच जाती है। यही वजह है कि आज देश की राजनीति में थैलीशाहों का वर्चस्व है। चंद गरीबों की ही देश और प्रदेशों की सत्ता में नाममात्र की भागीदारी है। जिनकी जेबें खाली होती हैं उनके लिए चुनाव लडना आकाश के तारे तोडने की कोशिश जैसा है। दरअसल, उनके लिए तो 'न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी' वाली नौबत ला दी जाती है। यानी जिनके पास भरपूर तेल होता है वे नाचते भी हैं और नचवाते भी हैं।
धन और लोकप्रियता की माया भी बडी अपरंपार है। कभी-कभी तो कुख्याति, ख्याति को मात दे देती है और दस्यु सुंदरी फूलन देवी लोकसभा का चुनाव जीतकर लोकतंत्र के सबसे बडे मंदिर...संसद भवन में पहुंच जाती है। देश की राजनीति में शातिर दिमागधारियों की कमी नहीं है। जो कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं। सत्ता ही उनका ईमानधर्म है। यह चालाक चेहरे कहीं पर निगाहें तो कहीं पर निशाना की कहावत को चरितार्थ करते हुए अपनी चालें चलते रहते हैं। अभिनेता-सांसद शत्रुघ्न सिन्हा को बयान पर बयान देने का महारोग है। उन्हें लगता है कि देशवासी उनकी तथाकथित विद्वता से अवगत होने को सतत आतुर रहते हैं। उनका एक ताजा-ताजा बयान है कि फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन को राष्ट्रपति बनाया जाए। उन्होंने जिस अंदाज में यह हास्यापद सुझाव रखा है उससे तो यही लगता है कि राष्ट्रपति के चुनाव में यारों की सिफारिश का अहम रोल है। वे जो कहेंगे उसे फौरन मान लिया जायेगा। यह वही शत्रुघ्न हैं जो खुद मोदी सरकार में मंत्री बनने के लिए नाक और ऐडियां रगडते-रगडते थक गये हैं और अब अपने हम निवाला, हम प्याला को राष्ट्रपति के सिंहासन पर विराजमान होते देखना चाहते हैं। अपनी ही पार्टी के नेताओं के द्वारा लगातार दुत्कारे जाने वाले इस भाजपा सांसद ने शिगूफेबाजी की सभी हदें पार कर दी हैं। यह बताने की जरूरत नहीं है कि राजनीति के वो धुरंधर जो वर्षों से राष्ट्रपति भवन में पहुंचने को बेचैन हैं वे किसी दूसरे की दाल नहीं गलने देंगे। चाहे वो रतन टाटा ही क्यों न हों, जो निर्विवाद और बेदाग हैं। रतन टाटा को राष्ट्रपति पद के लिए सर्वोत्तम बताने वालों को किसी शंका के कटघरे में खडा नहीं किया जा सकता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी उन्हें पसंद करते हैं। इसमें दो मत नहीं हो सकते कि रतन टाटा, अंबानी और अदानी जैसे उद्योगपतियों से अलग हैं। विवादों से दूर रहने वाले रतन टाटा को भारत की शान माना जाता है। सन २००० में पद्मभूषण और २००८ में पद्म विभूषण से नवाजे जा चुके इस गौरवशाली उद्योगपति को २०१२ में अमेरिका के रॉक फेलर फाउंडेशन ने लाइफटाइम एचिवमेंट अवार्ड से सम्मानित किया। रतन टाटा सही मायने में जनसेवा में विश्वास रखने वाले परोपकारी और दानी स्वभाव की आदर्श शख्सियत हैं। अपने उद्योग-व्यापार को बढाने के साथ-साथ देशवासियों की चिन्ता करने और उनके विकास के प्रति समर्पित रहनेवाले रतन टाटा ने अपने ६५ फीसदी से अधिक शेयर चैरिटेबल ट्रस्ट में निवेश कर यह दर्शा दिया कि वे उन पूंजीपतियों में शामिल नहीं हैं जो देश में कमायी गयी धन-दौलत को सुख-सुविधाओं का अंबार खडा करने में लुटाकर चैन की नींद सोते रहते हैं। लाखों लोगों को नौकरी और रोजगार उपलब्ध कराने वाले रतन टाटा की राष्ट्रपति की उम्मीदवारी पर सजग देशवासियों को तो कोई आपत्ति नहीं होगी, यकीनन वे गर्वित और हर्षित होंगे, लेकिन राजनीति शायद ही ऐसा होने दे। उसे विजय माल्या जैसे विलासितापूर्ण जीवन जीने वालों से कोई परहेज नहीं होता जो सरकारी बैंकों का अरबो-खरबों रुपया खा-पचा जाते हैं। राजदलों के मुखिया ऐसे भोगी और विलासी लोगों को विधानसभा और राज्यसभा का सदस्य बनवा कर गर्व महसूस करते हैं।

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