Thursday, March 31, 2016

किसी की मौत, किसी की मौज

चित्र -१ : होशंगाबाद जिले में स्थित चांदौन गांव के किसान अशोक शर्मा ने १९ नवंबर, २०१४ को अपने खेत में सल्फास खाकर प्राण त्याग दिये। कहीं कोई हलचल नहीं हुई। मीडिया को इस खुदकुशी में कोई नयी बात नजर नहीं आयी। नेता भी चुप्पी साध गये। यह तो रोजमर्रा का किस्सा है। एक किसान चुपके से दुनिया में आता है और इंसानी व कुदरत की मार को न सह पाने के कारण खुदकुशी कर लेता है। महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में तो किसानों की आत्महत्याओं की खबरें आम हो चुकी हैं। किसानों की अंधाधुंध मौतों पर सत्ताधीशों और दमदार नेताओं के चेहरे पर कोई शिकन नहीं आती। नौकरशाह तो मन के राजा हैं, उनके लिए अन्नदाता की कोई अहमियत नहीं है। दो एकड जमीन के मालिक अशोक पर बैंक का लगभग ६० हजार रुपये का कर्जा था। बारिश की वजह से खेत में लगी सोयाबीन की खेती के नष्ट हो जाने के कारण वह हताश और निराश हो गया था। बैंक के वसूली अधिकारियों के चलाये गये आतंकी अभियान ने उसे इस कदर भयभीत कर दिया कि उसने अंतत: आत्मघाती रास्ता चुन लिया।
चित्र - २ : साल २०१५ का सितंबर महीना। राजाराम उर्फ रज्जू आदिवासी ने कीटनाशक पीकर आत्महत्या कर ली। उसकी उम्र थी महज तीस वर्ष। वह सागर जिले के देवरी तहसील के डोंगर सलैया गांव का निवासी था। उसे भी फसल की बरबादी ने कहीं का नहीं छोडा। उस पर मात्र ५० हजार रुपये का कर्ज था। ऐसा नहीं था कि उसकी कर्ज अदा करने की नीयत नहीं थी। सोयाबीन और धान की फसल के सूख जाने के कारण वह कर्ज की रकम लौटा पाने में असमर्थ था, लेकिन बैंक वाले ब्याज सहित रकम वसूलने पर अडे थे। उसकी मजबूरी उन्हें बहाना लगती थी। खुद्दार रज्जू आदिवासी को यह तौहीन बर्दाश्त नहीं हुई। उसने चुपचाप विष निगला और सदा-सदा के लिए विदा हो गया। उसका खपरैल वाला कच्चा घर उदासी की कब्र बन कर रह गया है। मां-बाप की गीली आंखें सूखने का नाम नहीं लेतीं। कुछ पत्रकार जब उसके गांव पहुंचे तो उन्होंने देखा कि रज्जू का घर एकदम खुला पडा था। कहीं कोई ताला नहीं। वैसे भी ताले तो धनवानों के घरों के दरवाजों पर ही लगते हैं। रज्जू का घर तो खाली था और खाली है। यहां तक कि चुल्हा भी तब जलता है जब घर में आटा-चावल आता है, लेकिन ऐसा चमत्कार भी रोज तो नहीं होता।
चित्र - ३ : बैंको के अरबों रुपये के कर्जदार के जीने का अपना निराला अंदाज है। वह अकेला नहीं चलता। उसके साथ आठ-दस नौकर-चाकर और अंगरक्षक चलते हैं। एक नौकर तो चांदी की तश्तरी में तीन-चार मोबाइल फोन सजाकर चलता है। उसके किसी न किसी फोन की घण्टी हमेशा बजती रहती है। कभी-कभी तो सभी फोन एक साथ बजने लगते हैं। जिससे उसे बात करनी होती है, उसी से ही वह बात करता है। उसके नौकर-चाकर जानते हैं मालिक की किससे बात करवानी चाहिए। यह शाही ठाठ-बाट वाला चित्र है विजय माल्या का जो उद्योगपति होने के साथ-साथ देश का सम्मानित सांसद भी है। वह विभिन्न बैंको को ९ हजार करोड रुपये से अधिक रकम की चपत लगाकर सात समंदर पार भाग गया और बैंको के कर्ताधर्ता हाथ पर हाथ धरे रह गये। किसी जांच एजेंसी को भनक तक नहीं लगी। फिर सरकार तो सरकार है जो जगाने पर ही जागती है। सभी को पता था कि मस्तीखोर विजय माल्या की कंपनियां घाटे में चल रही हैं। देश और विदेशों में वह सम्पत्तियों पर संपत्तियां खरीदता चला जा रहा है। वह बैंको का कर्ज लौटाने में असमर्थ है। कर्ज लेकर घी पीने की उसकी आदत पड चुकी है फिर भी उस पर सभी मेहरबान रहे। एक आम आदमी को रहने को एक घर मिल जाए तो वह खुद को मुकद्दर का सिकंदर मान लेता है, लेकिन विजय माल्या के पास कई घर और अपार जमीन, जायदादों की भरमार है। दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरू, गोवा और पता नहीं कहां-कहां उसके आलीशान ठिकाने हैं जहां वह रंगरेलियां मनाता रहा है। बैंक अधिकारी सबकुछ देख-समझ रहे थे कि यह प्ले ब्वॉयनुमा कारोबारी कर्ज में ली गयी रकमों को धंधे में लगाने की बजाय जहां-तहां लुटा रहा है। इसके इरादे नेक नहीं हैं। फिर भी उन्होंने अपने बैंकों की तिजोरियां उसके लिए खोले रखीं। जितना धन चाहो ले लो। तुम भी मस्त रहो और हमारा भी उद्धार करते रहो। दरअसल शातिर माल्या इस देश का आम नहीं खास आदमी है जो इस सोच के साथ जीता है कि कल किसने देखा है। हाथ आये मौके को लपक लेना ही समझदारी है। यह जिन्दगी सिर्फ और सिर्फ एक बार मिली है। जितनी ऐश करनी है कर लो। भले ही दिवाला ही क्यों न पिट जाए।
यह अपने देश में ही संभव हैं कि कोई कर्जदार राजा-महाराजाओं को मात देने वाली शानोशौकत भरी शाही जिन्दगी जी सकता है। माल्या के पास क्या नहीं था...? तीन आलीशान सर्वसुविधायुक्त हवाई जहाज जिनमें एक बोइंग ७२७, एक गल्फ स्ट्रीम और एक हाल्कर ७०० विमान के साथ कई फार्म हाऊस, द्वीप और २५० से अधिक विंटेज कारें। इनका मजा वह अकेले नहीं लूटता था। नेता, नौकरशाह, सत्ताधीश, सत्ता के दलाल, कई पत्रकार, संपादक, अखबारों और न्यूज चैनलों के मालिक आदि...आदि बहती गंगा में डूबकियां लगाते थे।
चित्र - ४ : बैंको से कर्ज लेकर चम्पत हो जाने वालों में और भी कई नामीगिरामी उद्योगपति शामिल हैं। भूषण स्टील के उच्च प्रतिभावान मालिकों ने देश के बैकों को ४० हजार करोड का चूना लगाया तो एस्सार स्टील ने ३० हजार करोड को चपत लगाकर चम्पत हो जाने में ही अपनी भलाई समझी। भारती शिपयार्ड, एबीजी शिपयार्ड, होटल लीला, विनसन डायमंड एंड ज्वेलरी, सूर्य विनायक इंडस्ट्रीज लि., जूम डेवलपर्स आदि ने भी विजय माल्या की राह पर चलते हुए अरबों-खरबों खाये, पचाये और फुर्र हो गये। यह परम्परा अभी भी बरकरार है। दिल्ली, मुंबई, नागपुर, पुणे, सूरत, अहमदाबाद, बेंगलुरू, रायपुर, इंदौर जैसे नगरों, महानगरो के कई धनपति सरकारी बैंको से लिये गये करोडों-करोडों रुपयों के कर्ज को चुकाने में आनाकानी कर रहे हैं। मजे की बात यह भी है कि इनकी शानो-शौकत में कहीं कोई कमी नहीं आयी है। यह भी कम हैरत की बात नहीं कि जहां कर्जदार किसानों की आत्महत्याओं की एक के बाद एक खबरें सुनने-पढने में आती हैं वहीं किसी भी दिवालिया हुए कारोबारी की आत्महत्या की खबर शायद ही सुनने में आती हो। इस जमात को डिफाल्टर होने के बाद भी फलते-फूलते देखा जाता है। कुछ चतुर व्यापारी तो शौकिया अपना दिवाला पिटवाते हैं।

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