Thursday, June 2, 2016

ऐसे भी बदलती है दुनिया

नशे के अंधेरे में पूरी तरह से खो गया था भूषण पासवान। वह रिक्शा चलाता था। खून-पसीना बहाकर जो कुछ भी कमाता शराब और जुए पर लुटा देता। परिवार  भुखमरी के कगार पर जा पहुंचा था। मां कलावती देवी लोगों के घर बर्तन-झाडू कर कुछ रुपये कमाती तो ही चूल्हा जल पाता। कई बार तो भूषण मां से भी पैसे छीनकर नशाखोरी में उडा देता। पंजाब के लाखों नौजवान नशे के गुलाम हो चुके हैं। पूरे देश को यही चिंता खाए जा रही है कि नशे की अंधेरी दुनिया की तरफ भागते नौजवानों को कैसे सही रास्ते पर लाया जाए। नशे के गर्त में समा चुका भूषण अनपढ नहीं था। पानी की तरह शराब पीने से होने वाली तमाम बीमारियों से वाकिफ था। फिर भी नशे को उसने अपना सच्चा साथी मान लिया था। वर्ष २००४ का एक दिन था जब संत बलबीर सिंह सीचेवाल उस झुग्गी बस्ती में पहुंचे जहां भूषण रहता था। उन्होंने आसपास के लोगों के साथ बैठक की। लोगों को नशे की बुराइयों से अवगत कराते हुए उससे मुक्ति पाने का संदेश दिया। संत को यह देखकर बहुत पीडा हुई कि झुग्गी बस्ती में रहने वाले बच्चे शिक्षा के अभाव में दिशाहीन होते चले जा रहे हैं। अशिक्षा और धनाभाव के चलते मां-बाप उन्हें स्कूल भेजने में असमर्थ हैं। उन्होंने बच्चों को शिक्षित करने के उद्देश्य से गांववासियों को प्रेरित करते हुए कहा कि अगर उनके बीच ही कोई पढा-लिखा व्यक्ति हो तो यह काम असानी से हो सकता है। भूषण मैट्रिक पास था इसलिये सभी ने उसे यह दायित्व सौंपने का सुझाव दिया। भूषण को तो शराब और जुए से ही फुर्सत नहीं थी। मां के कहने पर बमुश्किल वह संत के पास पहुंचा।
संत ने भूषण से सवाल किया, क्या तुम अपनी जिन्दगी यूं ही बरबाद कर दोगे?... क्या तुम्हें पता है कि झुग्गी के बच्चे शिक्षा के अभाव में पिछड रहे हैं! क्या तुम इन बच्चों को पढाना पसंद करोगे? ‘संत की भेदती आंखों और उनके शब्दों ने भूषण पर कुछ ऐसा असर डाला कि वह राजी हो गया। पेड के नीचे झुग्गी बस्ती के बारह बच्चों से क्लास की शुरुआत हुई। भूषण के लिए यह नया अनुभव था। शुरू -शुरू में शराब से दूरी बनाना उसे किसी मुसीबत से कम नहीं लगा। लेकिन धीरे-धीरे बच्चों को पढाना उसे अच्छा लगने लगा। वो दिन भी आया जब उसने नशे से तौबा कर ली। २००६ में भूषण ने इंटरमीडियट किया, २०१० में बीए भी कर लिया। कभी रिक्शा चलाने वाला शराबी और जुआरी भूषण पासवान आज शानदार इमारत में चल रहे ननकाना चेरिटेबल स्कूल में प्रिंसीपल है। लाचार बच्चों की जिंदगी संवारने में लगे भूषण की जिंदगी पूरी तरह से बदल चुकी है। गांव के लोग इज्जत से पेश आने लगे हैं। दूर-दराज के गांव वाले भी विभिन्न कार्यक्रमों में बुलाते हैं और मंच पर बिठाकर सम्मानित करते हैं। अब तो प्रिंसिपल साहब ने नशे के खिलाफ भी अभियान चला दिया है। किसी को पीते देखते हैं तो बडे सलीके से समझाते हैं और अपनी बीते कल की काली कहानी दोहराते हैं।
इसी देश में एक गांव है, नानीदेवती। मात्र पैंतीस सौ के आसपास की जनसंख्या वाले इस छोटे से गांव में देसी शराब के दस अड्डे थे। सभी अड्डों पर जमकर शराबखोरी होती थी। सुबह, शाम गुलजार रहते थे सभी ठिकाने। अपने काम धंधे को छोडकर युवक इन्हीं मयखानों पर जमे और रमे रहते थे। कुछ बुजुर्ग भी रसरंजन के लिए पहुंच जाते थे। अपराध भी बढते चले जा रहे थे। पांच साल के भीतर १०० से अधिक युवक शराब की लत के चलते चल बसे। युवा बेटों की मौत के सिलसिले ने मां-बाप को तो रूलाया ही, गांव के चिंतनशील तमाम बुजुर्गों को भी झकझोर कर रख दिया। आखिर ऐसा कब तक चलता रहेगा? शराब की लत के शिकार होकर उनके गांव के बच्चे यूं ही अपनी जान गंवाते रहेंगे! शराबखोरी से लगातार हो रही मौतों से शराब कारोबारी भी पूरी तरह से अवगत थे। बुजुर्ग पुरुषों और महिलाओं ने उनसे कई बार गांव से अपने शराब के अड्डे हटाने की फरियाद की थी। धनपशुओं में इंसानियत होती तो मानते! उनके लिए तो कमाई ही सबकुछ थी। युवकों की बरबादी और बदहाली उनके लिए कोई मायने नहीं रखती थी। जागरूक गांव वालों को समझ में आ गया कि धनलोभियों से किसी भी तरह की उम्मीद रखना बेकार है। इस समस्या का हल निकालने के लिए गांव वालों ने बैठक ली। स्त्री-पुरुष सभी एकत्रित हुए। यही निष्कर्ष निकला कि गांव में शराब पीने पर  प्रतिबंध लगाये बिना युवकों की मौत पर विराम नहीं लगाया जा सकता। सभी ने शराब को हाथ भी न लगाने की कसम खायी। यह भी तय किया गया कि जो भी व्यक्ति शराब पीता पाया गया उससे पांच हजार से लेकर पचास हजार तक का जुर्माना वसूला जायेगा। बुजुर्गों की सीख का युवकों पर भरपूर असर पडा। उनकी आंखें खुल गयीं। अब नानीदेवती गांव शराब से मुक्ति पा चुका है। शराब के सभी अड्डे भी बंद हो चुके हैं।

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