Thursday, June 9, 2016

हालात बदल भी सकते हैं

राजा अपनी पीठ थपथपा रहे हैं। उनकी खुशी की कोई सीमा नहीं है। जनता खुश भी है, निराश भी। राजा उसकी उम्मीदो पर पूरी तरह से खरे नहीं उतरे हैं। राजा ने जो वादे किये थे उनके पूरे होने पर संशय के बादल मंडरा रहे हैं। राजा का कहना है कि अभी तो तीन साल बाकी हैं। दो वर्ष में जितना कर सकते थे उससे कहीं अधिक करने का उन्होंने कीर्तिमान बनाया है। पहले वाले राजा से उनकी तुलना करके देख लो। हम उनसे लाख बेहतर हैं। वे तो अपनी मालकिन के इशारे पर चलते थे। हम अपने दिल और दिमाग के साथ दौड रहे हैं। उनके राज में बेईमानो की चांदी थी। भ्रष्टाचारियों का बोलबाला था। हमने तो सत्ता पर काबिज होते ही ऐलान कर दिया था कि न खाएंगे और ना ही खाने देंगे। कोई माई का लाल मेरी सरकार पर भ्रष्टाचार और भाई-भतीजा वाद का आरोप नहीं लगा सकता। मेरे सभी मंत्री-संत्री गंगाजल की तरह पवित्र हैं। बस अपने काम से मतलब रखते हैं। किसी के फटे में टांग नहीं अडाते।
विरोधी कहते हैं वे तो खुद को शहंशाह समझते हैं, लेकिन वे खुद को प्रधानसेवक की पदवी से नवाज कर बार-बार यही उलाहना देते हैं कि मेरे शत्रुओं को एक चाय वाले का देश की सत्ता पर काबिज होना रास नहीं आ रहा है। उनके शोर मचाने और माथा पीटने से सच नहीं बदलने वाला। जो काम करेगा वो ढिंढोरा तो पीटेगा ही। यह प्रचार का जमाना है। लोगों तक अपनी उपलब्धियों की जानकारी पहुंचाने के लिए ढोल पीटना जरूरी है। जिन्हें विरोध करना है, करते रहें। किसानों के सच्चे हमदर्द एक फिल्म अभिनेता ने सरकार की कार्यप्रणाली से नाराज होकर कहा है कि सरकार ने अपने दो साल के कामकाज के प्रचार के लिए १००० करोड फूंकने से पहले कम-अज़-कम इस तथ्य का तो ध्यान रखा होता कि भारतवर्ष एक ऐसा देश है जहां अन्नदाता को कर्ज की मार के चलते आत्महत्या करनी पडती है। शासक यह कैसे भूल गये कि महज सात सौ करोड के कर्ज के कारण महाराष्ट्र में किसानों की आत्महत्याओं का अनवरत सिलसिला चला आ रहा है। यदि सरकार ने सर्व जनहित के कामों को अंजाम दिया हो तो उसे अपनी उपलब्धियों को गिनाने के लिए इतनी बैंड-बाजे बजाते हुए करोडों रुपये स्वाहा नहीं करने पडते। इन रुपयों से तो दो राज्यों के किसानों का कर्जा माफ हो सकता था। वैसे भी देश इन दिनों सूखे से जूझ रहा है। इस सरकार को भी अपने भविष्य की चिन्ता खाये जा रही है। वह भी पहले वाली सरकार के रास्ते पर चल रही है। खुद को प्रजा का सेवक कहने वाले राजा ने परदेस में तो अपनी शानदार छवि बनायी है, लेकिन देश के अधिकांश लोग नाखुश हैं। ऐसे में किसी विद्वान की यह पंक्तियां याद हो आती हैं कि पारिवारिक मोर्चे पर असफल व्यक्ति बाहर कितने भी झंडे गाड ले, कितना ही नाम कमा ले, निरर्थक है। पहले घर यानी देश में जय-जय होना जरूरी है। यकीनन मोदी इस मामले में पिछड गए हैं। साफ-साफ दिखायी दे रहा है कि लोकतंत्र पर राजतंत्र हावी हो चुका है। सांसद खुद को राजा-महाराजा से कम नहीं समझते। जनता की तकलीफों को अनदेखी करने की उन्हें आदत पड चुकी है। कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं। प्रशासन भी उनकी जी-हजूरी करने में जमीन आसमान एक कर देता है। सत्ताधारी दल की सांसद पूनम महाजन को बीना से तत्काल भोपाल पहुंचाने के लिए स्पेशल ट्रेन दौडाने वालों को आम यात्रियों की तकलीफें कभी दिखायी नहीं देतीं। जनता कष्ट भोगती रहे और सांसद-मंत्री मौज करते रहें यही आज का लोकतंत्र है। लोग सब जानते-समझते हैं। बार-बार छले जाने की पीडा ने लोगों की नींद हराम कर दी है। पिछले दो सालों में दलितों, शोषितों, अल्पसंख्यकों पर हमले बढे हैं। सत्ताधारी दल के ही कुछ सांसदों और उनके चेले चपाटों ने देश में दहशत का वातावरण बनाने में कोई कसर नहीं छोडी है। इस सच से मुंह नहीं मोडा जा सकता कि जब तक देश के जन-जन को सुरक्षित होने का यकीन नहीं होता तब तक हर तरक्की बेमानी है। देश का हर नागरिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता चाहता है। वह क्या खाना चाहता है क्या उसे पहनना पसंद है इसका फैसला दूसरे करें यह भला कैसे हो सकता है? खाद्य पदार्थों की कीमतों में अंधाधुंध वृद्धि, रुपये की कीमत में गिरावट और रोजगार न बढने से लोगों में अपार निराशा है। राजा का यह दावा भी खोखला साबित होकर रह गया है कि उनके राज में खाने और खिलाने की परिपाटी का खात्मा होगा। देश की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और उनके बेटे व सांसद दुष्यंत सिंह पर भ्रष्टाचार और भाई-भतीजा वाद के संगीन आरोपों के साथ-साथ छत्तीसगढ के मुख्यमंत्री रमन सिंह का ३६ हजार करोड का घोटाला सामने आया, लेकिन राजा चुप्पी साधे रहे। कहीं कोई कार्रवाई नहीं हुई। महाराष्ट्र सरकार में मंत्री पंकजा मुंडे के करोडों रुपये के भ्रष्टाचारी कांड पर भी कोई हलचल नहीं हुई। महाराष्ट्र के ही राजस्वमंत्री एकनाथ खडसे का भ्रष्टाचारी कारनामा सामने आने के बाद भी उन्हें बचाने की कोशिशें की गयीं। यह भी सच है कि सरकार ने कई जनहितकारी योजनाओं को लागू करने की घोषणा तो की हैं, लेकिन उनका वास्तविक प्रतिफल दिखायी नहीं दे रहा है। यकीनन क्रियान्वयन में कहीं न कहीं बहुत बडी कमी है। इसलिए देश का गरीब तबका, किसान, मजदूर और युवा वर्ग बेहद आहत है। अभी तो दो ही साल बीते हैं। सरकार के पास तीन साल का समय बाकी है। वह अगर लोगों के सपनों को पूरा करने में अपनी पूरी ताकत लगा देती है तो यकीनन हालात बदल भी सकते हैं।

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