डायन, चुडैल, भूतनी, टोनहिन, प्रेतनी कलंकिनी, डाकिन आदि ऐसे दिल और दिमाग को छलनी कर देने वाले शाब्दिक बाण हैं जिनसे गरीब, असहाय, दबी कुचली महिलाओं को अपमानित किया जाता है। उन्हें मनचाही शारीरिक यातनाएं दी जाती हैं। भारत के विभिन्न राज्यों में डायन बताकर अब तक कितनी महिलाओं को मौत के घाट उतार दिया गया इसका कोई आंकडा दे पाना कतई संभव नहीं है। डायन घोषित की गई महिलाओं के बाल काटने, उनके साथ बलात्कार करने, उनको नंगा करके गांव में घुमाने, उनके जननांगों को क्षति पहुंचाने और मुंडन कर देने के साथ-साथ उन्हें समाज के लिए खतरनाक बताने के लिए कई कहानियां और कहावतें गढ ली जाती हैं।
उनकी उम्र है ६३ वर्ष। नाम है बीरूबाला रामा। उन्होंने असम में डायन हत्या जैसे अंधविश्वास के खिलाफ लडाई लडते हुए कई हमले झेले, अपमान का शिकार हुर्इं, लेकिन फिर भी नहीं घबरायीं। असम के कई गांव आज भी अंधविश्वास की जंजीरों में कैद हैं। झाड फूंक करने वाले बाबाओं पर ग्रामवासी इस कदर विश्वास करते हैं कि यदि कोई उनके खिलाफ आवाज उठाता है तो उसकी हत्या तक कर दी जाती है। सजग आदिवासी ग्रामीण महिला बीरूबाला ने ढोंगी बाबाओं के खिलाफ अपना स्वर बुलंद किया तो उन्हें तरह-तरह से प्रताडित किया गया। अंधविश्वास के खिलाफ उनकी लडाई की शुरुआत तब हुई जब १९९६ में उनके बडे बेटे को मलेरिया हो गया था। गांव के कुछ लोगों ने उसे देवधोनी (कथित अवतार) के पास ले जाने की सलाह दी। वे उनका कहा मानकर उसके पास चली गयीं। देवधोनी ने बेटे को देखते ही कहा उनके बेटे को किसी पहाडी देवी की आत्मा ने जकड लिया है जिससे छुटकारा मिलना असंभव है। उनका बेटा बस अब तीन दिन का ही मेहमान है। उसे दुनिया की कोई ताकत नहीं बचा सकती। वे चुपचाप अपने बेटे को घर ले आयीं। दो दिन के बाद बेटा बिस्तर से उठ खडा हुआ। तभी से वे बाबाओं के खेल को समझ गयीं। उन्होंने अंधविश्वास के खिलाफ कमर कसने की ठान ली। लेकिन यह काम उतना आसान नहीं था। बीरूबाला के कथित अवतार और भूत प्रेत के खिलाफ मुंह खोलते ही बाबाओं के अनुयायियों में खलबली मच गयी। उन्होंने बीरूबाला के खिलाफ मोर्चा खोलते हुए समाज से बाहर करने के साथ-साथ गांव से चले जाने का फरमान सुना दिया। उन्हें तीन साल तक गांव से बाहर रहना पडा। वे डायन प्रथा और पाखंडी बाबाओं का पर्दाफाश करने की ठान चुकी थीं, इसलिए उनकी आवाज बुलंद होती चली गयी। कई हमले झेल चुकी इस जुनूनी महिला को गोवाहाटी विश्वविद्यालय ने मानद डॉक्टरेट की उपाधि से नवाजा है।
यह हकीकत वाकई हैरान-परेशान करने वाली है कि मध्यप्रदेश में १०० में से ४० बच्चे कुपोषित हैं। यह खबर २०१६ के सितंबर महीने की है। देश को आजाद हुए ६९ वर्ष बीत गये, लेकिन हम बच्चों को स्वस्थवर्धक भोजन और चिकित्सा सुविधाएं तक उपलब्ध नहीं करवा पाये! उस पर अंधश्रद्धा के नाग ने लोगों को बुरी तरह से जकड रखा है। इसलिए कई मां-बाप अपने कुपोषित बच्चों को इलाज के लिए डॉक्टरों के पास ले जाने की बजाय बाबाओं के तंत्र-मंत्र पर ज्यादा भरोसा करते हैं। खांसी और बुखार से ग्रसित बच्चों को लहसुन और पीपल के पत्तों की माला पहनाने तथा पेट पर नाडा बांध देने से वे यह मान लेते हैं कि उनके कमजोर बच्चे तंदुरुस्त हो जाएंगे। यह देखकर घोर ताज्जुब होता है कि इस आधुनिक दौर में भी किस कदर अंधश्रद्धा का बोलबाला है। कई लोगों का यह भ्रम भी निरर्थक है कि अशिक्षित और ग्रामीण ही तंत्र-मंत्र और अंधविश्वास की काली छाया के शिकार हैं। महाराष्ट्र के शहर नागपुर में सैकडों मनोरोगी ऐसे हैं जो घरों में कैद होकर रह गये हैं। यह लोग कभी अच्छे भले थे। अचानक उन्हें मानसिक रोग ने अपनी चपेट में ले लिया तो उनका जीवन नरक से भी बदतर हो गया। परिजन यही समझते रहे कि किसी भूत या बाहरी हवा ने उन्हें अपने चंगुल में ले लिया हैं। २२ साल के रामलाल की जिन्दगी की गाडी बडे मज़े से चल रही थी। वह शहर की नामी ट्रांसपोर्ट कंपनी में काम करता था। पाच साल पूर्व अचानक उसकी दिमागी हालत गडबडा गयी। अपना काम-धाम छोडकर वह बस्ती की गली में पागलों की तरह गाना गाते घूमता नजर आने लगा। उसकी इस हालत को देखकर लोग अपनी-अपनी राय व्यक्त करने लगे। ज्यादातर का यही कहना था कि किसी ने उस पर जादू-टोना कर दिया है। अब तो कोई पहुंचा हुआ ओझा ही उसे ठीक कर सकता है। परिवार वाले उसे भूत भगाने वाले तांत्रिक के पास ले गये, लेकिन उसकी हालत नहीं सुधरी। उसके इधर-उधर भटकने पर अंकुश लगाने के लिए उसके हाथ-पैर जंजीरों से बांध दिए गए और घर में कैद कर दिया गया। जंजीरों में बंधा रहने से उसकी हालत जब बिगड गयी तो उसे आजाद कर दिया गया। लेकिन इससे तो मामला और भी बिगड गया। एक दिन वह बिजली के ट्रांसफार्मर पर चढ गया तो उसके हाथ-पैर बुरी तरह से जल गए। सरकारी अस्पताल में ले जाने पर डॉक्टर ने कहा कि वह तो मनोरोगी है। भूत का कोई चक्कर नहीं है। उसका समुचित इलाज होने पर वह शीघ्र ठीक हो जाएगा। मगर परिवार वालों को डॉक्टर की सलाह रास नहीं आयी। लोगों की सलाह पर फिर से उन्होंने तंत्र-मंत्र करने वाले किसी बाबा की शरण में जाना उचित समझा।
नागपुर में स्थित कलमना, निवासी संजीवन के पांच में से तीन पुत्रों ने अपना मानसिक संतुलन खो दिया है। हालात यह हैं कि तीनों घर में ही पडे रहते हैं। कभी बॉथरूम में छिप जाते हैं तो कभी किसी चीज़ के लिए बच्चों की तरह जिद करने लगते हैं। बुजुर्ग पिता को कुछ तांत्रिकों ने बच्चों पर भूत-प्रेत का साया बताकर ऐसा डराया कि उनसे तीस-चालीस हजार रुपये एेंठ लिए। इसके लिए उन्हें अपनी जमीन गिरवी रखनी पडी। जब तंत्र-मंत्र से कोई फर्क नहीं पडा तो उन्होंने जानकार डॉक्टरों की सलाह पर मनोचिकित्सालय में भर्ती कराया है।
नारंगी शहर नागपुर में कई मनोरोगी उचित इलाज के अभाव के कारण मौत के मुंह में समा चुके हैं। सैकडों मनोरोगी घरों में कैद हैं। उन्हें मनोरोग ने कब जकड लिया इसकी खबर परिवार वालों को भी तब लगी जब मामला बिगड गया। परिवार वाले यही समझते रहे कि किसी ने जादू-टोना कर दिया है। किसी तंत्र-मंत्र के जानकार को दिखाने पर सब ठीक हो जाएगा। लेकिन किसी ओझा, बाबा का तंत्र-मंत्र उन्हें ठीक नहीं कर पाया। ऐसा परिवार कम ही है जो मनोरोगी को इलाज के लिए डॉक्टर के पास ले जाते हैं। उनका तो यही मानना है कि तांत्रिक-मांत्रिक ही भूतप्रेत के साये से मुक्ति दिला सकते हैं।
उनकी उम्र है ६३ वर्ष। नाम है बीरूबाला रामा। उन्होंने असम में डायन हत्या जैसे अंधविश्वास के खिलाफ लडाई लडते हुए कई हमले झेले, अपमान का शिकार हुर्इं, लेकिन फिर भी नहीं घबरायीं। असम के कई गांव आज भी अंधविश्वास की जंजीरों में कैद हैं। झाड फूंक करने वाले बाबाओं पर ग्रामवासी इस कदर विश्वास करते हैं कि यदि कोई उनके खिलाफ आवाज उठाता है तो उसकी हत्या तक कर दी जाती है। सजग आदिवासी ग्रामीण महिला बीरूबाला ने ढोंगी बाबाओं के खिलाफ अपना स्वर बुलंद किया तो उन्हें तरह-तरह से प्रताडित किया गया। अंधविश्वास के खिलाफ उनकी लडाई की शुरुआत तब हुई जब १९९६ में उनके बडे बेटे को मलेरिया हो गया था। गांव के कुछ लोगों ने उसे देवधोनी (कथित अवतार) के पास ले जाने की सलाह दी। वे उनका कहा मानकर उसके पास चली गयीं। देवधोनी ने बेटे को देखते ही कहा उनके बेटे को किसी पहाडी देवी की आत्मा ने जकड लिया है जिससे छुटकारा मिलना असंभव है। उनका बेटा बस अब तीन दिन का ही मेहमान है। उसे दुनिया की कोई ताकत नहीं बचा सकती। वे चुपचाप अपने बेटे को घर ले आयीं। दो दिन के बाद बेटा बिस्तर से उठ खडा हुआ। तभी से वे बाबाओं के खेल को समझ गयीं। उन्होंने अंधविश्वास के खिलाफ कमर कसने की ठान ली। लेकिन यह काम उतना आसान नहीं था। बीरूबाला के कथित अवतार और भूत प्रेत के खिलाफ मुंह खोलते ही बाबाओं के अनुयायियों में खलबली मच गयी। उन्होंने बीरूबाला के खिलाफ मोर्चा खोलते हुए समाज से बाहर करने के साथ-साथ गांव से चले जाने का फरमान सुना दिया। उन्हें तीन साल तक गांव से बाहर रहना पडा। वे डायन प्रथा और पाखंडी बाबाओं का पर्दाफाश करने की ठान चुकी थीं, इसलिए उनकी आवाज बुलंद होती चली गयी। कई हमले झेल चुकी इस जुनूनी महिला को गोवाहाटी विश्वविद्यालय ने मानद डॉक्टरेट की उपाधि से नवाजा है।
यह हकीकत वाकई हैरान-परेशान करने वाली है कि मध्यप्रदेश में १०० में से ४० बच्चे कुपोषित हैं। यह खबर २०१६ के सितंबर महीने की है। देश को आजाद हुए ६९ वर्ष बीत गये, लेकिन हम बच्चों को स्वस्थवर्धक भोजन और चिकित्सा सुविधाएं तक उपलब्ध नहीं करवा पाये! उस पर अंधश्रद्धा के नाग ने लोगों को बुरी तरह से जकड रखा है। इसलिए कई मां-बाप अपने कुपोषित बच्चों को इलाज के लिए डॉक्टरों के पास ले जाने की बजाय बाबाओं के तंत्र-मंत्र पर ज्यादा भरोसा करते हैं। खांसी और बुखार से ग्रसित बच्चों को लहसुन और पीपल के पत्तों की माला पहनाने तथा पेट पर नाडा बांध देने से वे यह मान लेते हैं कि उनके कमजोर बच्चे तंदुरुस्त हो जाएंगे। यह देखकर घोर ताज्जुब होता है कि इस आधुनिक दौर में भी किस कदर अंधश्रद्धा का बोलबाला है। कई लोगों का यह भ्रम भी निरर्थक है कि अशिक्षित और ग्रामीण ही तंत्र-मंत्र और अंधविश्वास की काली छाया के शिकार हैं। महाराष्ट्र के शहर नागपुर में सैकडों मनोरोगी ऐसे हैं जो घरों में कैद होकर रह गये हैं। यह लोग कभी अच्छे भले थे। अचानक उन्हें मानसिक रोग ने अपनी चपेट में ले लिया तो उनका जीवन नरक से भी बदतर हो गया। परिजन यही समझते रहे कि किसी भूत या बाहरी हवा ने उन्हें अपने चंगुल में ले लिया हैं। २२ साल के रामलाल की जिन्दगी की गाडी बडे मज़े से चल रही थी। वह शहर की नामी ट्रांसपोर्ट कंपनी में काम करता था। पाच साल पूर्व अचानक उसकी दिमागी हालत गडबडा गयी। अपना काम-धाम छोडकर वह बस्ती की गली में पागलों की तरह गाना गाते घूमता नजर आने लगा। उसकी इस हालत को देखकर लोग अपनी-अपनी राय व्यक्त करने लगे। ज्यादातर का यही कहना था कि किसी ने उस पर जादू-टोना कर दिया है। अब तो कोई पहुंचा हुआ ओझा ही उसे ठीक कर सकता है। परिवार वाले उसे भूत भगाने वाले तांत्रिक के पास ले गये, लेकिन उसकी हालत नहीं सुधरी। उसके इधर-उधर भटकने पर अंकुश लगाने के लिए उसके हाथ-पैर जंजीरों से बांध दिए गए और घर में कैद कर दिया गया। जंजीरों में बंधा रहने से उसकी हालत जब बिगड गयी तो उसे आजाद कर दिया गया। लेकिन इससे तो मामला और भी बिगड गया। एक दिन वह बिजली के ट्रांसफार्मर पर चढ गया तो उसके हाथ-पैर बुरी तरह से जल गए। सरकारी अस्पताल में ले जाने पर डॉक्टर ने कहा कि वह तो मनोरोगी है। भूत का कोई चक्कर नहीं है। उसका समुचित इलाज होने पर वह शीघ्र ठीक हो जाएगा। मगर परिवार वालों को डॉक्टर की सलाह रास नहीं आयी। लोगों की सलाह पर फिर से उन्होंने तंत्र-मंत्र करने वाले किसी बाबा की शरण में जाना उचित समझा।
नागपुर में स्थित कलमना, निवासी संजीवन के पांच में से तीन पुत्रों ने अपना मानसिक संतुलन खो दिया है। हालात यह हैं कि तीनों घर में ही पडे रहते हैं। कभी बॉथरूम में छिप जाते हैं तो कभी किसी चीज़ के लिए बच्चों की तरह जिद करने लगते हैं। बुजुर्ग पिता को कुछ तांत्रिकों ने बच्चों पर भूत-प्रेत का साया बताकर ऐसा डराया कि उनसे तीस-चालीस हजार रुपये एेंठ लिए। इसके लिए उन्हें अपनी जमीन गिरवी रखनी पडी। जब तंत्र-मंत्र से कोई फर्क नहीं पडा तो उन्होंने जानकार डॉक्टरों की सलाह पर मनोचिकित्सालय में भर्ती कराया है।
नारंगी शहर नागपुर में कई मनोरोगी उचित इलाज के अभाव के कारण मौत के मुंह में समा चुके हैं। सैकडों मनोरोगी घरों में कैद हैं। उन्हें मनोरोग ने कब जकड लिया इसकी खबर परिवार वालों को भी तब लगी जब मामला बिगड गया। परिवार वाले यही समझते रहे कि किसी ने जादू-टोना कर दिया है। किसी तंत्र-मंत्र के जानकार को दिखाने पर सब ठीक हो जाएगा। लेकिन किसी ओझा, बाबा का तंत्र-मंत्र उन्हें ठीक नहीं कर पाया। ऐसा परिवार कम ही है जो मनोरोगी को इलाज के लिए डॉक्टर के पास ले जाते हैं। उनका तो यही मानना है कि तांत्रिक-मांत्रिक ही भूतप्रेत के साये से मुक्ति दिला सकते हैं।
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