Thursday, December 29, 2016

बदलाव की इबारत

उन दिनों प्रियंका समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या करे। उसका किसी काम में मन नहीं लगता था। घर में होने वाली रोज-रोज की कलह का उसकी पढाई पर भी असर पडने लगा था। सहेलियां भी हैरान थीं कि वह पढाई-लिखाई में लगातार पिछडती क्यों जा रही है। वह हर वक्त खामोश और उदास रहने लगी थी। सहेलियां उसकी परेशानी की वजह पूछतीं तो वह रूआंसी हो जाती। वह आखिर उन्हें कैसे बताती कि उसके शराबी पिता के कारण उनका घर नर्क बन चुका है। मां का तो जीना ही मुहाल हो गया है। शराब के नशे में धुत पिता जब-तब मां पर हाथ उठा देते हैं। गाली-गलौज का तो अनवरत सिलसिला चलता रहता है। आर्थिक हालात इतने खराब हो गये हैं कि किसी-किसी दिन तो पूरे परिवार को भूखे पेट सोना पडता है। छोटे-भाई बहन हमेशा डरे-सहमे रहते हैं। शराब के गुलाम हो चुके पिता ने काम पर जाना भी बंद कर दिया था। समाज में बदनामी होने लगी थी। एक दिन मां की सहनशीलता जवाब दे गई। वह आत्महत्या के इरादे से घर छोडकर चली गई। प्रियंका के पैरोंतले की जमीन ही खिसक गई। उसकी आंखों के सामने अंधेरा छा गया। उसे लगा कि उसका दिमाग सुन्न हो गया है। वह काफी देर तक जडवत बैठी रही। फिर जैसे-तैसे उसने खुद को संभाला और अपनी मां को खोजने के लिए निकल पडी। काफी देर खोजने के बाद मां मिली तो दोनों मां-बेटी गले लगकर रोती रहीं। मां घर वापस आने को तैयार ही नहीं थी। बुरी तरह से बिखर चुकी मां को प्रियंका ने किसी तरह से मनाया और घर वापस ले आई। अंधेरा घिर आया था। पिता घर में बेसुध सोये थे। प्रियंका ने पहले कभी भी पिता के सामने मुंह नहीं खोला था, लेकिन आज वह किसी निष्कर्ष तक पहुंचने का दृढ फैसला कर चुकी थी। उसने पिता को झिंझोड कर जगाया। हडबडाये पिता ने उसे घूरा जैसे कह रहे हों कि तुमने मुझे नींद से जगाने की जुर्रत कैसे की? प्रियंका ने पिता के हाव-भाव के प्रत्युतर में कहा, 'पापा आज तो आप फैसला कर ही लीजिए कि आपको शराब के साथ जीना है, या हमारे साथ। हमें अब एक पल भी नहीं रहना है ऐसे नर्क में। आप तो नशे में धुत रहते हैं और आसपास के लोग हम पर हंसते हैं, ताने कसते हैं। आपको तो पता ही नहीं होगा कि हमें किस तरह से नज़रें झुका कर चलना पडता है। हर निगाह हमें देखकर यही कहती प्रतीत होती है कि इनके पिता तो हद दर्जे के शराबी हैं, निकम्मे हैं जो चौबीस घण्टे नशे में धुत रहते हैं। यदा-कदा जब कभी होश में आते हैं तो लडते-झगडते रहते हैं। पापा आप वर्षों से मम्मी को यातनाएं देते चले आ रहे हैं, लेकिन अब बर्दाश्त की हर सीमा पार हो चुकी है। आपके जुल्मों से तंग आकर आज मम्मी आत्महत्या करने चली थी। मैं उन्हें बडी मुश्किल से मना कर घर लाई हूं। अब आप बता ही दीजिए कि मम्मी तथा हम सबको आप जिन्दा देखना चाहते हैं या यह चाहते है कि हम सब आत्महत्या कर लें।'
एक ही झटके में इतना कुछ कह गई बेटी की धौंकनी की तरह चलती सांसों की आवाज़ ने पिता को हतप्रभ कर दिया। उन्होंने बेटी के इस उग्र रूप की कभी कल्पना नहीं की थी। बेटी ने भी तो कभी उनके सामने खडे होने की हिम्मत नहीं की थी। किसी भी पिता के लिए वो पल बहुत भारी होते हैं जब उसकी औलाद के मुख से उसके प्रति रोष का लावा और बगावती स्वर फूटते हैं। फिर बेटी का वार तो बहुत ज्यादा वार करता है। पिता के पास बेटी के सवालों का कोई जवाब नहीं था। उन्होंने अपनी नजरें झुका लीं। प्रियंका अपने पिता की आंखों से बहते आंसुओं को देखकर खुद को संभाल नहीं पायी और उनके गले से जा लगी। पिता ने भी बेटी का माथा चूमा और वादा किया कि अब वे शराब को कभी हाथ भी नहीं लगायेंगे। पिता के द्वारा शराब से हमेशा-हमेशा के लिए दूरी बनाने पर प्रियंका को जैसे दुनिया भर की खुशियां मिल गर्इं। घर में सुख-शांति लौट आई। प्रियंका को गांव के कुछ और लोगों के घोर शराबी होने के बारे में भी पता था। उसने सोचा कि जब उसके समझाने पर उसके पापा शराब छोड सकते हैं तो उसकी समझाइश का असर दूसरों पर क्यों नहीं हो सकता! धीरे-धीरे उसने हर पीने वाले के घर में दस्तक देनी शुरू कर दी। अपनी आपबीती से अवगत कराने के साथ-साथ शराब से होनेवाले भयंकर दुष्परिणामों के बारे में बताया। उसकी मेहनत रंग लायी। कई पियक्कडों ने शराब से तौबा कर ली। प्रियंका वर्तमान में ८-१० लडकियों के साथ मिलकर शराबबंदी और लडकियों को जागृत करने के अभियान में लगी है। सभी लडकियां आसपास के गांवों में जाकर अशिक्षा और नशे के खिलाफ अपना स्वर बुलंद कर लोगों को जगाती हैं। २०१६ के दिसंबर महीनें में नशाखोरी, अंधविश्वास और अशिक्षा के खिलाफ लडाई लडने वाली जिन लडकियों को इन्दौर में सम्मानित किया गया उसमे प्रियंका का भी समावेश है।
लोगों के जीवन में खुशियां और बदलाव लाने वाले देवदूत आसमान से नहीं टपकते। उनका जन्म तो इसी धरती पर होता है। वैसे भी हमारा देश बडा अनोखा है। यहां हवा-हवाई चमत्कारों को नमस्कार किया जाता है। कोई धूर्त किसी पत्थर पर सिंदूर लगाकर सडक के किनारे रख देता है तो हम उस पत्थर को ही देवता मान अपना सिर झुका लेते हैं। धीरे-धीरे अनुसरण करने वालों की भीड बढने लगती है और नियमित पूजा-पाठ का सिलसिला आरंभ हो जाता है। अपने यहां इंसानों को पहचानने में बहुत देरी लगा दी जाती है। देश की राजधानी दिल्ली के अनेक लोगों के लिए आज ओमनाथ शर्मा उर्फ मेडिसन बाबा का नाम खासा जाना-पहचाना है। पैरों से चालीस फीसदी दिव्यांग होने के बावजूद उनका जनसेवा का अटूट ज़ज्बा देखते बनता है। ८० वर्षीय यह मेडिसन बाबा लोगों से दवाएं मांग कर जरूरतमंदों को निशुल्क उपलब्ध कराने के लिए प्रतिदिन कई किमी पैदल चलते हैं। उन्होंने २००८ में लक्ष्मीनगर में मेट्रो हादसे के बाद कई लोगों को दवा की कमी के चलते तडपते और रोते-बिलखते देखा। उस दर्दनाक मंजर ने उन्हें अंदर तक झकझोर दिया। तब उन्होंने अपनी जमा-पूंजी से दवाएं खरीदीं और जरूरतमंदों की सहायता की। वो दिन था और आज का दिन है कि उनका असहायों और गरीबों को सहायता पहुंचाने का सिलसिला थमा नहीं है। उन्होंने मेट्रो की दुर्घटना के बाद ही निर्णय कर लिया था कि अब वे अपना समस्त जीवन जनसेवा को समर्पित कर देंगे। तभी से उन्होंने घर-घर जाकर दवाईयां इकट्ठी करनी शुरू कर दीं। शुरू-शुरू में जब वह किसी अनजान घर में जाकर दवा की मांग करते तो लोग सवाल-जवाब करने के साथ-साथ तानाकशी और हंसी उडाने से नहीं चूकते थे। उन्हें जरूरतमंदो की सेवा के अभियान में लगे एक वर्ष ही हुआ था कि एक दिन कुछ व्यक्तियों ने उन्हें रोका और कहा कि आप न तो फार्मासिस्ट हो और न ही डॉक्टर, फिर ऐसे में दवाएं कैसे बांट सकते हैं? उसके बाद उन्होंने दवाइयां चैरिटेबल ट्रस्ट और अस्पतालों में देनी शुरू कर दीं। लोगों का उनपर विश्वास बढने लगा। धीरे-धीरे आर्थिक मदद की बरसात होने लगी। दवाओं का ढेर लगने लगा। ऐसे में मेडीसन बाबा ने किराये का घर लेकर एक हिस्से में आशियाना और दूसरे हिस्से में दवाखाना बनाकर फार्मासिस्ट रख लिया। जरूरतमंदो को इस दवाखाने से दवाएं तो मिलती ही हैं साथ ही अगर कोई चिकित्सक या अस्पताल गरीबों के लिए दवा या जीवनरक्षक उपकरण मांगते हैं तो उन्हें उपलब्ध कराए जाते हैं। उनके यहां आज लाखों रुपये की दवाएं जमा हो चुकी हैं। बहुत से लोग खुद दवा पहुंचाने आते हैं। देश-विदेश से लोग दवाइयों के पार्सल भी भेजते हैं, लेकिन मेडिसन बाबा अभी भी लोगों के घरों में जाकर दवा मांगते है। वे उन्हें जागरूक करते हैं कि घर में बची दवा फेंके नहीं, इसे किसी जरूरतमंद तक पहुंचाएं।
यदि किसी गरीब मरीज की किडनी फेल है या कैंसर पीडित है तो बाबा अपने पास से दवाएं खरीदकर देते हैं। हर माह ४० हजार रुपये से ज्यादा की दवा खरीदते हैं। बाबा कहते हैं कि बाजार में दवाएं बहुत महंगी बिकती हैं। कई परिवार दवा खरीदने में ही तबाह हो जाते हैं। सरकार को कोई ऐसा रास्ता निकालना चाहिए जिससे कम अज़ कम गरीबों को तो दवाएं सस्ती मिलें।
कुछ लोग अपने-अपने तरीके से प्रेरक बदलाव की इबारत लिख रहे हैं। उन्हें न नाम की भूख है और ना ही ईनामों की। वे तो बडी खामोशी से अपने काम में लगे हैं। बिहार के गोपालगंज के डीएम ने वो काम कर दिखाया जिसे अधिकांश अधिकारी करने से कतराते हैं। दरअसल उच्च पदों पर विराजमान अफसर बने-बनाये सांचे और किताबों से बाहर निकल ही नहीं पाते। हुआ यूं कि गोपालगंज के एक गांव के दबंगों ने स्कूल में मिड-डे मील बनाने वाली सुनीता देवी के हाथ से बना खाना खाने पर पाबंदी लगाने का फरमान सुना दिया। उनका तर्क था कि विधवा के हाथों से बना खाना अशुद्ध हो जाता है। उसे खाने से सेहत और दिमाग पर बहुत बुरा असर पडता है। इस घटिया और शर्मनाक फरमान की खबर जब राहुल कुमार तक पहुंची तो वे खुद स्कूल जा पहुंचे। वहां पर उन्होंने जमीन पर बैठकर सुनीता देवी के हाथों से बना खाना सबके सामने खाया। राहुल कुमार को उन लोगों से सख्त नफरत है जो अंधविश्वास फैलाते हैं और तरह-तरह की बुराइयों को पालने-पोसने में अपनी सारी ताकत झोंक देते हैं।

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