Thursday, January 5, 2017

सत्ता की बगावत

तमाशे तो बहुत देखे थे, लेकिन ऐसा तमाशा पहली बार देखा। पिता और पुत्र के अजूबे दंगल ने एक बार फिर राजनीति का बदरंग चेहरा दिखाया। समाजवादी पार्टी की अंदरूनी कलह ने भाजपा, बसपा को उछालने का मौका दे दिया। कांग्रेस और रालोद के सपनों को पर लगा दिए। उत्तरप्रदेश में चुनावों की तारीखों की घोषणा हो गयी है। टिकटों को लेकर जिस तरह से बाप-बेटे में घमासान मचा, वह भी सबने देख लिया। इसमें दो मत नहीं हो सकते कि मुलायम सिंह राजनीति के पुराने खिलाडी हैं। लेकिन अखिलेश ने भी अपने शासनकाल में खासी प्रभावी छवि बनायी है। उन्हें यकीन है कि वे अपनी व्यक्तिगत छवि के दम पर विरोधियों को मात दे सकते हैं। वे शिक्षित हैं और उन पर भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद का भी कभी कोई आरोप नहीं लगा। नेताजी पर तो तरह-तरह के छींटे पडते रहे हैं। उन्होंने तो समाजवाद और लोहियावाद के नाम पर अपने भाई, भतीजे, पुत्र-पुत्रवधू और चहेतों को मंत्री, सांसद और विधायक बनाकर परिवारवाद और मित्रवाद की जैसे परंपरा ही स्थापित कर डाली। इस उम्रदराज नेता ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि जिस बेटे को उन्होंने यूपी का मुख्यमंत्री बनाया वही उनके लिए सिरदर्द बन जाएगा। यहां यह बताना भी जरूरी है कि राजनीति के कुछ धुरंधरों का कहना है कि बाप और बेटे के इस तथाकथित अलगाव के पीछे भी बहुत बडी राजनीति छिपी हुई है। यह मात्र ड्रामा है। राजनीति में हमेशा दो और दो चार नहीं होते। जो दिखता है, वही सच नहीं होता। लेकिन आम जनता इतनी गहराई से कहां सोच पाती है। उसे तो वही सच लगता है जो उसे दिखता और सुनायी देता है। समाजवादी पार्टी में जो घमासान मचा है, आमजन की उसी पर नजरे हैं। सवाल उठाये जा रहे हैं कि क्या अखिलेश अहसानफरामोश हैं। मुख्यमंत्री की कुर्सी ने उन्हें अहंकारी और विद्रोही बना दिया है? गौरतलब है कि युवा अखिलेश सिंह ने जब यूपी की सत्ता संभाली थी तब शुरुआती दौर में यादव कुनबे का ही दबदबा था। ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता था कि अखिलेश को मुख्यमंत्री बना तो दिया गया है, लेकिन उन्हें शासन और प्रशासन को चलाने के संपूर्ण अधिकार नहीं दिए गये हैं। मुलायम सिंह और उनके परिवार से जुडे राजनेताओं को यकीन था कि अखिलेश उनके इशारे पर नाचते रहेंगे, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। अखिलेश अपनी अलग छवि बनाने में जुट गये। उन्होंने स्वतंत्र निर्णय लेने शुरू कर दिए। यादवी कुनबे से अलग छवि बनाने का उनका प्रयास रंग लाने लगा। उन्होंने उन अपराधी प्रवृत्ति के चेहरों से भी दूरी बनायी जो पिता मुलायम के करीबी थे। अखिलेश का धीरे-धीरे नायक की तरह उभरना मुलायमवादियों को ही रास नहीं आया। उनके स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता के कारण विरोधी नेताओं के तो मुंह बंद हो गये, लेकिन अपनों के वार बढते चले गए। पिता मुलायम सिंह ने ही अनेको बार मुख्यमंत्री के कामकाज पर ऐसी-ऐसी कटु टिप्पणियां कीं, जो मीडिया की सुर्खियां तो बनीं, लेकिन उनके कद को छोटा कर अखिलेश की निर्विवाद बेदाग छवि का डंका पीट गर्इं। प्रदेश में अखिलेश की बढती चमक ने सबसे ज्यादा परेशान किया उनके चाचा शिवपाल और अमर सिंह जैसे सत्ता के दलालों को। नेताजी के दुलारों ने अखिलेश को पटकनी देने के लिए अनेकों साजिशें रचीं। चाचा शिवपाल और भतीजे अखिलेश की अनबन की खबरें लगातार आती रहीं। नेताजी ने अमर qसह को पार्टी में फिर से शामिल कर भले ही 'दोस्ती' निभायी हो, लेकिन पुत्र को सोचने पर विवश कर दिया। नेताजी को पक्का यकीन था कि बेटा उनका परमभक्त है। कभी बागी नहीं बनेगा। उन्हें यह भी यकीन था कि सभी समाजवादी उनके साथ हैं, और रहेंगे। वे एक इशारा करेंगे और सारे विधायक उनके पीछे खडे आएंगे। अखिलेश को उन्होंने ही मुख्यमंत्री बनाया है इसलिए उसका कोई साथ नहीं देगा। सत्ता की राजनीति में हमेशा किंगमेकर की चलती है। दरअसल, नेता जी पुत्र की तरक्की और छवि का आकलन नहीं कर पाए। अगर वे चाहते तो जगहंसाई की नौबत ही नहीं आती। राजनीतिक वर्चस्व की लडाई तो हर राजनीतिक दल में चलती रहती है, लेकिन ऐसी तमाशेबाजी बहुत कम देखने में आती हैं। फिर यहां तो पिता और पुत्र आमने-सामने हैं। चुनावी टिकटों के बंटवारे ने भी बाप-बेटे में दूरियां बढायीं। पिता की लिस्ट में कई ऐसे चेहरे थे जो घोर विवादास्पद रहे हैं। अखिलेश नहीं चाहते कि ऐसे लोगों को चुनाव मैदान में उतारा जाए जिनकी छवि संदिग्ध हो और हार तय हो। अखिलेश को अपने भविष्य की चिन्ता है। उन्होंने पांच वर्ष तक यूपी में शासन कर अपनी जो स्वच्छ छवि बनायी है उसे वे कलंकित नहीं होने देना चाहते। बाहुबलि अतीक अहमद और दलाल अमर सिंह जैसों की तरफदारी में अपनी संपूर्ण ताकत लगा देने वाले समाजवादी मुलायम सिंह एक तरफ तो यह कहते हैं कि उनकी राजनीतिक यात्रा पूरी तरह से पाक-साफ रही है। उन्होंने कभी कोई गलत काम नहीं किया। दूसरी तरफ अमर सिंह को दोबारा गले लगाने पर उठने वाले प्रश्नों का जवाब देते हुए कहते हैं कि अमर सिंह मेरे भाई जैसा है। मेरे इस भाई ने कभी मुझे जेल जाने से बचाया था। मैं उसका अहसान कभी नहीं भूल सकता। नेताजी से यह सवाल तो किया ही जा सकता है कि क्या पाक-साफ और ईमानदार शख्स पर भी कभी जेल जाने की नौबत आती है? मुलायम सिंह और अखिलेश के बीच जारी युद्ध पर कुछ पत्रकारों-संपादकों ने लिखा है कि इतिहास खुद को दोहराता है। इक्कसवीं सदी में सत्ता के लिए पिता पुत्र की यह लडाई मुगल शासक औरंगजेब और शाहजहां के बीच की जंग की याद दिलाती है। जब बेटे औरंगजेब ने अपने पिता से बगावत करते हुए उन्हें कैद कर दिल्ली का तख्त कब्जा लिया था। मेरे विचार से यह बेहद बचकानी सोच है। अतिशयोक्ति से परिपूर्ण। लोकतंत्र में ऐसी कल्पना करने वाले पता नहीं कौन सी दुनिया में रहते हैं। देश के विशालतम प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में अपनी बेहतर साख बनाने वाले अखिलेश कोई कू्रर मार्ग नहीं अपना सकते। पितृभक्ति उनमें कूट-कूट कर भरी है। उन्होंने अपने पिता का सदैव सम्मान किया है। उन्होंने पिता-पुत्र के बीच की मर्यादा भी कभी नहीं लांघी है। ऐसे में उन्हें औरंगजेब कहना बहुत बडी बेइंसाफी है। उनकी लडाई तो उन साजिशों के खिलाफ है जो उन्हें दोबारा मुख्यमंत्री नहीं बनने देना चाहतीं। मुख्यमंत्री बनने के बाद भी अखिलेश यादव ने राजनीति से ज्यादा रिश्तों का मान रखा है। उनका यह कहना गलत तो नहीं है कि जब मैंने पांच साल तक प्रदेश में शासन किया है तो परीक्षा भी मुझे ही देनी है। तो ऐसे में चुनावी टिकटों के आवंटन का संपूर्ण अधिकार मेरे पास ही होना चाहिए।

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