Thursday, March 16, 2017

नतमस्तक हैं हम

बेटों की परवरिश में सर्वस्व लुटाने की सोच रखने वाले ऐसे लोग देश में आज भी भरे पडे हैं जो बेटियों को पराया धन समझते हैं। वे अपना खून-पसीना बहाकर बेटों को पढाते-लिखाते हैं और उन्हें कमाने-धमाने के लायक बनाना अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य मानते हैं। लेकिन बेटियों की शिक्षा पर धन खर्चेने में कतराते हैं। हां उन्हें बेटियों के दहेज की खासी चिन्ता रहती है। बेटी के पैदा होते ही वे उसकी शादी में दिए जाने वाले जेवर व दहेज की चिन्ता में बचत करना शुरू कर देते हैं। बेटों की तरह बेटियों को भी पढाने-लिखाने और अपने पैरों पर खडे करने की चाहत रखने वाले माता-पिताओं की देश में ऐसी खासी तादाद नहीं है कि जिस पर नाज किया जा सके। यह भी सच है कि देश में जागृती की मशाल जलती दिखायी देने लगी है। कई माता-पिता में परिवर्तन स्पष्ट दिखायी देने लगा है। वे अपनी बेटियों को इतना योग्य बनाना चाहते हैं कि जिससे लडके वाले खुद-ब-खुद प्रस्ताव लेकर आएं और शादी में दहेज की मांग भी न करें। मध्यप्रदेश के उज्जैन जिले में स्थित गांव घुडावन में रहते हैं शिक्षक गणपतसिंह पवार। उनके यहां एक-एक कर तीन बेटियों ने जन्म लिया। उन्होंने तभी ठान लिया कि मैं अपनी बेटियों को शिक्षित करूंगा। बेटियों को इतना काबिल बनाऊंगा कि रिश्ते खुद चलकर आएं। उन्होंने बेटियों की शादी में दहेज नहीं देने की ठान ली थी। घुडावन गांव में रहने वाले अधिकांश राजपूत परिवार बेटियों को पढाना अच्छा नहीं मानते थे। जो माता-पिता अपनी बेटियों को उच्च शिक्षा दिलाने की बात करते उनका पुरजोर विरोध किया जाता था। यही वजह है कि गांव की कोई भी बेटी आठवीं से आगे नहीं पढ पाई थी। शिक्षक गणपतसिंह को यह बात बहुत चुभती थी। उन्होंने लोगों के विरोध, तानों की परवाह न करते हुए अपनी तीनों बेटियों को पढाने-लिखाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। उनकी पढाई के लिए उन्हें गांव छोडकर उज्जैन जाना पडा। वहां पर किराये के घर में रहे और नाममात्र के वेतन से परिवार के लालन-पालन के साथ-साथ अपने सपने को साकार करने में सफलता पायी। बेटियों ने भी खूब मेहनत की। आज इस जुनूनी शिक्षक की बडी बेटी साधना पटवारी है, दूसरी बेटी विचित्रा एमबीबीएस डॉक्टर है और तीसरी बेटी टीना जनपद पंचायत में सीओ के पद पर विराजमान है।
धनबाद के एक छोटे से गांव में रहने वाले चरवाहा चुडका मरांडी ने अपनी प्यारी बिटिया को इंजीनियर बनाकर ही दम लिया। वे बताते हैं कि- "तंगहाली ऐसी थी साहब, कि बडी बेटी रांकिनी ने स्कूल का रास्ता तक नहीं देखा। हां बाद में कलौदी पैदा हुई तो गांव के ही बच्चों के साथ स्कूल में पढने के लिए जाने लगी। जब वह पांचवी में थी, तब उसके स्कूल के मास्टर ने बताया कि वह नवोदय की परीक्षा में पास हो गई है। लेकिन, मुझ अभागे गरीब के पास उसे वहां भेजने और उसका एडमिशन कराने तक के पैसे नहीं थे। तब मैंने अपनी गाय और बकरियां बेचकर उसका एडमिशन कराया। बेटी ने भी पढाई में पूरी लगन दिखाई। जब वह इंजीनियरिंग में सिलेक्ट हुई तो अपने भाईयों से कर्ज तथा एक जोडी बैल बेचकर बेटी का एडमिशन कराया।" बेटी की फीस के लिए पत्थर तोडने से लेकर तरह-तरह के काम करने वाले पिता के संघर्ष में मां ने भी भरपूर साथ दिया। बेटी को किसी भी तरह से इंजीनियर बनाने का संकल्प ले चुके इस जुनूनी पिता के बारे में जब मीडिया में खबरें आर्इं तो सरकार ने चुडका मरांडी की पीठ थपथपायी और कलौदी की पढाई के लिए नगद पचास हजार रुपये और दो गाय देने की घोषणा की। यहां पर भी सरकारी व्यवस्था अपना असली चेहरा दिखाने से बाज नहीं आई। चुडका को चालीस हजार रुपये ही मिल पाए। दोनों गायें भी पता नहीं कहां गायब हो गर्इं। केमिकल इंजीनियरिंग की पढाई कर रही कलौदी को अपने पिता की हिम्मत पर गर्व है। वह जीवन पर्यंत उन दिनों को नहीं भूलना चाहती जब उनके परिवार को कई-कई दिनों तक खाली पेट सोना पडता था। पिता को जहां कहीं मजदूरी मिलती, वे वहीं काम पर चले जाते थे। तब वह खुद चरवाहे का काम करने जाती थी। किताबें भी अपने साथ ले जाती थी।
कोलकाता के ओम प्रभु की बेटियां गायत्री सिंह रंजीतकर और बंटी रंजीतकर ताइक्वांडो में परचम लहरा रही हैं। यह एक ऐसा खेल, जिसे डेढ दशक पहले तक न तो कोई जानता था और न कोई पूछने वाला था। ताइक्वांडो में सेकेंड डन ब्लैक बेल्टधारी २९ वर्षीया गायत्री अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश का नाम रोशन कर चुकी है। उसने २००६ में लखनऊ में हुई 'फर्स्ट गुडविल इंटरनेशनल ताइक्वांडो चैंपियनशिप' में भारत का प्रतिनिधित्व कर रजत पदक जीता था। राष्ट्रीय स्तर पर भी वह कई पदक अपने नाम कर चुकी हैं। वहीं फर्स्ट डन ब्लैक बेल्टधारी २५ साल की बंटी राज्य स्तर पर पदक जीत चुकी हैं। ६५ साल के इस पिता को अपनी इन बेटियों पर नाज़ है। मूल रूप से नेपाल के काठमांडू के वादे ओम प्रभु सिंह ने जब अपनी बेटियों को ताइक्वांडो सिखाने का निश्चय किया था तो सबने मना किया। कहा-लडकियों को चोट लग गई तो आगे चलकर शादी-ब्याह में दिक्कत हो जाएगी, लेकिन ओम प्रभु ने तो चट्टानी इरादा कर लिया था। उन्होंने कहा-'आज के दौर में सबको अपनी रक्षा खुद करने में सक्षम होना बेहद जरूरी है, खासकर लडकियों को।ङ्क कहते हैं-चैरिटी बिगिंस एट होम, इसलिए मैंने इसकी शुरुआत अपने घर से की और अब मेरी बेटियां ताइक्वांडो चैंपियन बनने के बाद दूसरों को आत्मरक्षी बना रही हैं। हावडा एसी मार्केट इलाके में एक छोटे से घर में रहने वाले ओम प्रभु सिंह पेशे से शिक्षक हैं। वे टंडेल बगान गुरु नानक विद्यालय में पढाते हैं। उन्होंने कर्ज लेकर बेटियों को ताइक्वांडो सिखाया और जगह-जगह प्रतियोगिताओं में लडने भेजा। गायत्री एवं बंटी अपने पिता पर गर्व करते हुए कहती हैं कि आज वे जो भी हैं, अपने पिता की बदौलत हैं। हमारे पिताजी ने न सिर्फ हमें आत्मरक्षी बनाकर अपने पैरों पर खडा किया है, बल्कि दूसरी लडकियों को सशक्त करने के लिए भी प्रेरित किया।
वो २२ अप्रैल २००३ की रात थी जब धनबाद के तीन मनचलों ने सोनाली पर तेजाब फेंक कर उसकी जिन्दगी अथाह पीडा से भर दी। सत्रह वर्षीय इस होनहार कॉलेज छात्रा का इस तेजाबी हमले से सत्तर फीसद चेहरा और शरीर झुलस गया। जीवित रहने की उम्मीद कम थी। ऐसे घोर यातनादायी वक्त में सोनाली का पूरा साथ दिया उनके पिता चंडीदास मुखर्जी ने। उन्होंने अपनी बेटी को दर्द से मुक्ति दिलाने और उसके आत्मबल को जगाने के लिए अपनी नींदें कुर्बान कर दीं। जितने दिनों तक उनकी लाडली छटपटाती रही, उतने ही दिनों तक पिता चंडीदास भी तेजाबी जलन की जानलेवा पीडा सहते रहे। उन्होंने प्रतिज्ञा की, कि बेहतरीन इलाज करवाने के साथ-साथ बेटी को दर्द देने वाले शोहदों को सजा दिलवाये बिना चैन से नहीं बैठना है। उन्होंने बेटी के इलाज में अपनी सारी पूंजी खर्च कर दी। पैतृक जमीन तक बेचनी पडी। बेटी का पुराना चेहरा लौटाने के लिए धनबाद और दिल्ली के बडे अस्पतालों में २२ ऑपरेशन कराए। फिर भी ज्यादा बदलाव नहीं आया। पिता का बस चलता तो बेटी के इलाज के लिए खुद को बेच देते। बेटी जब अस्पताल के बिस्तर पर कराहती थी तो वे खून के आंसू पीकर रह जाते थे। उन्हें जब बेटी का बेतहाशा दर्द बर्दाश्त नहीं हुआ तो २०१३ में उन्होंने राष्ट्रपति से सहयोग या इच्छा मृत्यु की गुहार लगायी। मीडिया ने भी बेटी और पिता की पीडा देश और दुनिया तक पहुंचायी। जिसके चलते मुंबई की कुछ बडी हस्तियों ने सहयोग का हाथ बढाया। २८ सर्जरी के बाद सोनाली अब काफी हद तक ठीक हो चुकी है। उसका आत्मविश्वास भी काफी हद तक लौट आया है। पिछले वर्ष उसने फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन के "कौन बनेगा करोडपति" में भाग लिया और २५ लाख रुपये जीते। झारखंड सरकार ने जहां उसे सरकारी नौकरी दी वहीं २०१५ में ओडिसा के रहने वाले इंजीनियर चितरंजन तिवारी ने उसका हाथ थामकर जीवन में उजाला ही उजाला भर दिया। सोनाली आज एक प्यारी सी बेटी की मां भी बन चुकी हैं। वे मुस्कराते हुए कहती हैं कि बेटी के रूप में उसने अपना खोया चेहरा पा लिया है। वह अपना कष्टों वाला अतीत भूलकर बेटी के साथ भरपूर जिन्दगी जीना चाहती है।

No comments:

Post a Comment