Thursday, March 9, 2017

नफरत की फसल

अब तो देश में हंगामा बरपा होने में देरी नहीं लगती। इसमें सोशल मीडिया की भूमिका तो बेमिसाल है। यह भी स्पष्ट दिखायी दे रहा है कि बडे ही सुनियोजित तरीके से फिज़ा में जहर घोलने की कोशिश की जा रही है। कुछ लोग बिना सोचे-समझे कुछ भी कह देते हैं और जब विरोध के स्वर फूटते हैं तो वे यह याद दिलाने पर तुल जाते हैं कि भारतवर्ष दुनिया का सबसे बडा लोकतांत्रिक देश है जहां सभी को अपनी बात रखने की आज़ादी है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर भडकाऊ लफ्फाजी करने का ढोल पीटने वालों को बडी आसानी से पहचाना जा सकता है। बेतुकी बयानबाजी कर मीडिया की सुर्खियां पाने की चाहत रखने वालो के नकाब उतरने के बावजूद भी उनके हौसलें बुलंद हैं! बीते वर्ष देश की राजधानी में स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में 'भारत तेरे टुकडे होंगे' जैसे नारे के साथ-साथ अफजल के कातिलों के जिन्दा होने का रोना रोया गया था और कुछ लोगों ने कन्हैया कुमार और उमर खालिद जैसे बददिमाग़ घटिया चेहरों को नायक बनाने का अभियान छेड दिया था। इन दोनों प्रायोजित नायकों ने तो भारतीय न्याय व्यवस्था पर भी अविश्वास जताया था और आतंकवादियों और देशद्रोहियों के प्रति अपार सहानुभूति दर्शायी थी। उमर खालिद ने तो अपनी खोखली विद्वता यह कह कर प्रकट की थी कि हिन्दुस्तान के सुप्रीम कोर्ट के जज को अफजल को दोषी ठहराने का अधिकार ही नहीं। 'थोथा चना बाजे घना' की तर्ज पर भाषणबाजी करने वाले तथाकथित क्रांतिकारी कन्हैया कुमार ने १९८४ के दंगों को गुजरात के दंगों से कम संगीन बताकर यह भी बता दिया कि वह कितना नासमझ है। वह वही बोलता है जो उसके आका उसे पढाते और सिखाते हैं। दिल्ली यूनिवर्सिटी के रामजस कॉलेज में २०१७ के फरवरी महीने में जेएनयू काण्ड के कुख्यात खलनायक को सेमिनार में भाग लेने के लिए निमंत्रित किया गया। भारतीय जनता पार्टी के छात्र संगठन एबीवीपी (अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद) के छात्रों ने इसका तीव्र विरोध करते हुए भारी हंगामा किया और विरोध में एक मार्च (प्रदर्शन) किया। दूसरी तरफ लेफ्ट विंग स्टूडेंट्स (आइसा व एफएफआई) (संगठन) खालीद के समर्थन में उतर आया। दोनों छात्र संगठनों-गुटों में जमकर झडप हुई। भारी पुलिस बल की मौजूदगी में पत्थरबाजी व धक्का-मुक्की भी हुई। इसमें करीब बीस छात्र जख्मी हो गए। पुलिस ने लाठीचार्ज भी किया। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का कहना था कि राष्ट्र के खिलाफ नारे लगाने और राष्ट्रद्रोहियों को महिमामंडित करने वाले शख्स को किसी भी हालत में डीयू में बोलने नहीं दिया जा सकता। जबकि लेफ्ट विंग स्टूटेंट्स की जिद थी कि खालीद को बोलने से नहीं रोका जा सकता। इस देश में सबको अपनी बात रखने की आजादी है। खालीद के विरोध के फलस्वरूप कॉलेज में ‘"बस्तर मांगे आजादी, कश्मीर मांगे आजादी और छीन के लेंगे आजादी" जैसे उग्र भडकाऊ नारे गूंजते रहे।
गौरतलब है कि गत वर्ष जेएनयू में कश्मीर और मणिपुर की आजादी के नारे लगाये गये थे। कांग्रेस की छात्र इकाई एनएसयूआई और आम आदमी पार्टी के छात्र संगठन ने भी आग में घी डालकर माहौल को और गरमा दिया। अभी यह बवाल चल ही रहा था कि रामजस कॉलेज (डीयू) की एक छात्रा गुरमेहर कौर ने सोशल मीडिया पर यह ट्विट कर डाला कि- ‘"मैं डीयू स्टुडेंट हूं। मैं एबीवीपी से नहीं डरती। मैं अकेली नहीं हूं। पूरा देश मेरे साथ है।" गुरमेहर की इस पोस्ट के बाद तो सोशल मीडिया पर उक्त घटना के विरोध और समर्थन में बयानबाजी की जैसे प्रतिस्पर्धा सी चल पडी। गौरतलब है कि गुरमेहर कौर १९९९ के कारगिल युद्ध में शहीद हुए कैप्टन मंदीप सिंह की बेटी हैं। कई लोगों को गुरमेहर का उमर खालीद और लेफ्ट विंग स्टुडेंट्स के पक्ष में खडे होकर एबीवीपी के विरोध में खुलकर सामने आना रास नहीं आया। इसी दौरान उसकी एक पुरानी पोस्ट (तस्वीर) भी वायरल हो गई। इस तस्वीर में वह एक तख्ती लेकर खडी है जिसमें अंग्रेजी में लिखा है -'मेरे पिता को पाकिस्तान ने नहीं, युद्ध ने मारा।' इसके बाद तो जैसे जंगल की सूखी घास में ही आग लग गई। भाजपा के एक सांसद ने गुरमेहर की तुलना माफिया सरगना, हत्यारे दाऊद इब्राहिम से कर दी तो किसी ने उसे देशद्रोहियों के हाथों का खिलौना घोषित कर तरह-तरह से अपनी भडास निकालने में देरी नहीं की। उसे रेप की धमकियां भी दी गयीं। सोशल मीडिया, अखबारों और न्यूज चैनलों पर गुरमेहर से जुडी तरह-तरह की खबरें पढने और सुनने के बाद इस कलमकार को कई सवालों ने घेर लिया। आखिर एक बीस बरस की लडकी ने -'मैं एबीवीपी से नहीं डरती और मेरे पिता को पाकिस्तान ने नहीं, युद्ध ने मारा है।' जैसे बयान देकर ऐसा कौन-सा बडा गुनाह कर डाला कि देश के मंत्री, अभिनेता, क्रिकेटर आदि सभी उसे राष्ट्रद्रोही करार देने पर आमादा हो गये। उसका पहले वाला बयान निश्चय ही एबीवीपी को चुनौती लगा होगा। जिससे  उसने और उसके अनुयायियों ने जमीन-आसमान एक करते हुए एक शहीद की बेटी को चुप्पी तोडने की ऐसी सजा दी जिसकी उसने कभी सपने में भी कल्पना नहीं की होगी। सवाल यह है कि कोई भी भारतवासी एबीवीपी या किसी राजनीति दल से क्यों खौफ खाए? क्या किसी संगठन या दल की स्थापना लोगों को डराने के लिए होती है। किसी को इन पर उंगली उठाने का भी अधिकार नहीं है? जिन संगठनों और राजनीति दलों को आम जनों की समस्याओं को सुलझाने, वक्त पडने पर उनके काम आने को प्राथमिकता देनी चाहिए अगर वही दहशत का पर्याय बन जाएं तो उनका नहीं होना ही बेहतर है। किन्हीं भावनाओं के वशीभूत होकर गुरमेहर ने अगर यह कह दिया कि उनके पिता को युद्ध ने मारा है तो इसमें आसमान सिर पर उठाना समझ में नहीं आता। विरोध के परचम लहराने वालो को इस बयान में पाकिस्तान के प्रति नरम रूख अपनाने की शरारत नजर आयी। सोचने और अर्थ निकालने की कोई सीमा नहीं होती। गुरमेहर ने कहीं भी पाकिस्तान को शांतिप्रिय देश नहीं बताया। एक बात और भी गौर करने लायक है कि इतने बडे देश में रामजस कॉलेज ने अतिथि वक्ता के रूप में कुख्यात उमर खालीद को ही क्यों निमंत्रित किया! आयोजकों को पता था कि एबीवीपी की तरफ से हर हाल में विरोध होगा फिर भी...?
यह हम और आपके बीच के लोग ही हैं जिन्होंने शहीद की बेटी को पाकिस्तान के पाले-पोसे शैतान दाऊद के समकक्ष खडा कर दिया। सबसे पहले तो वो लोग दोषी हैं जिन्हें देश के खिलाफ बोलने वालों में अपार प्रतिभा नजर आती है और वे उन्हें सम्मानित वक्ता के रूप में बुलाकर मंच पर बिठाते हैं। एबीवीपी भाजपा का अनुषांगिक संगठन है। हो सकता है कि उसे इस बात का गुमान हो कि देश में उनकी सत्ता है इसलिए वे कुछ भी करने को स्वतंत्र हैं। शासकों की छवि भी खौफ, मनमानी और अहंकार का सैलाब लाती है। २२ फरवरी २०१७ को अमेरिका के कंसास राज्य में दो भारतीय नागरिकों पर एक अमेरिकी ने नफरत के कारण जानलेवा हमला कर दिया। इसमें से एक उसकी गोली का शिकार हो अपनी जान गंवा बैठा जबकि दूसरा बुरी तरह से घायल हो गया। इन दोनों युवकों पर उस समय हमला किया गया जब वे एक पब में बैठे थे। अमेरिकी ने उन पर यह कहते हुए हमला कर दिया कि गैर अमेरिकियों को हमारे देश में रहने का कोई हक नहीं है, इसलिए तुम वापस अपने देश लौट जाओ। इस घटना के कुछ ही दिन बाद यानी २ मार्च को ४३ वर्षीय भारतीय मूल के एक व्यवसायी की उसके घर के बाहर गोली मार कर हत्या कर दी गई।  ध्यान रहे कि अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने २०१५ में अपना चुनाव अभियान शुरू करने के बाद नफरत की फसल बोनी शुरू कर दी थी।

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