Thursday, June 8, 2017

ऐसे खुलते हैं बंद दरवाजे

किसी ने एकदम सही कहा है कि कामयाबी के दरवाजे उन्हीं के लिए खुलते हैं, जो उन्हें खटखटाने का हौसला और ताकत रखते हैं। कितने लोग ऐसे होते हैं जो सपने देखने में तो माहिर होते हैं, लेकिन उन्हें साकार करने के लिए अपने कदम आगे बढाने की पहल ही नहीं करते। उनका सारा जीवन सोचते-सोचते गुजर जाता है। छोटी-सी तकलीफ उनके लिए पहाड बन जाती है। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो पहाड खोदकर सडक बना देते हैं। मंजिले खुद उनके पास चलकर आने को विवश हो जाती हैं। हमारी इस दुनिया में कुछ भी आसानी से नहीं मिलता। रोडे अटकाने वालों की लम्बी श्रृंखला है। दिव्यांगों के लिए तो यही माना जाता है कि वे दूसरों की भीख पर जिन्दा रहने के लिए पैदा हुए हैं। राजस्थान के पाली मारवाड में जन्मी उम्मुल खेर ने लाइलाज बीमारी के बाद भी अपने सपनों को साकार करने की जिद और जोश को बरकरार रख दिखा दिया कि हिम्मत और जुनून ही जिन्दा इंसान की असली पहचान हैं। जिसमें यह गुण नहीं उसका जीना महज दिखावा है। ऐसे लोग ही परजीवी कहलाते हैं। दूसरों की दया पर जीना ही इनकी फितरत होती है। अभी हाल ही में आए आइएएस के परिणाम में कर्मठ उम्मुल ने ४२वें पायदान पर जगह बनाकर सभी विपरीत हालातों को ऐसी पटकनी दी कि जमाना देखता रह गया। इस बहादुर बेटी को बचपन से ही अजैले बोन डिसऑर्डर नामक बीमारी है। यह बीमारी हड्डियों को कमजोर कर देती है। इससे पीडित मरीज धीरे से भी गिर जाए तो भी उसकी हड्डियां टूट जाती हैं। इसलिए उम्मुल को २८ की उम्र तक १६ फ्रैक्चर और आठ सर्जरी का सामना करना पडा। उम्मुल खेर बताती हैं कि पिता दिल्ली में फेरी लगाकर मुंगफली बेचते थे। मां लोगों के घरों में झाडू-पोंछा कर हमें पालती थी। माता-पिता के पास इतने रुपये नहीं थे कि वे मुझे अच्छे स्कूल में पढा सकें। इस वजह से सातवीं कक्षा में पढते हुए मैंने छोटे-छोटे बच्चों को ट्यूशन पढाना शुरू कर दिया। इससे मिले पैसों से अपनी पढाई करती रही और बीमारी से भी लडती रही। उन्हीं दिनों मेरे मन में आईएएस बनने का सपना जागा था। अपनी शारीरिक दुर्बलता की परवाह न करते हुए मैं अपने सपनों को साकार करने में तल्लीन हो गई तो सभी बंद दरवाजे भी खुलते चले गए। मुझे साउथ कोरिया में हुए इंटरनेशनल लीडरशिप प्रोग्राम में भारतीयों का प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिला वहीं यूएन ने विकलांगता पर हुए विश्व सम्मेलन में आमंत्रित कर मेरा उत्साह बढाया। प्रशासनिक अधिकारी बनकर जरूरतमंद और शारीरिक दुर्बलताओं से जूझ रही महिलाओं के लिए कुछ कर गुजरने की दिली चाहत रखने वाली उम्मुल खेर लीडरशिप ट्रेनिंग प्रोग्राम में शामिल होने वाली चौथी भारतीय हैं।
उम्मुल की तरह ही शारीरिक अक्षमता के बावजूद २९ वर्षीय एरिक पॉल ने कार चलाकर लेह से कन्याकुमारी तक सफर कर रिकॉर्ड बनाया। उन्होंने सबसे कम समय में यह यात्रा पूरी की। जिसकी वजह से उनका नाम 'लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड' के पन्नों पर दर्ज हो गया। गौरतलब है कि पॉल का सीने से नीचे का पूरा हिस्सा लकवाग्रस्त है। उन्होंने विशेष तौर पर तैयार और हैंड कंट्रोल वाली हैच बैक कार से सफर पूरा किया। फरवरी २०१२ में हुए एक सडक हादसे के बाद वे व्हीलचेअर तक सीमित हो गए थे, लेकिन फिर भी कुछ कर गुजरने के जज्बे ने उनकी मनचाही इच्छा पूरी कर ही दी। इतनी बडी उपलब्धि हासिल करने वाले इस युवा का कहना है कि अभी तो मैंने मील का पत्थर पार किया है। मुझे काफी लम्बी दूरी तय करनी है और वह मैं करके रहूंगा। पहले भी कार से लम्बी दूरी कम समय में तय करने के कई रिकॉर्ड बना चुके इस जुनूनी को लेह से कन्याकुमारी तक के सफर में कई चुनौतियां का सामना करना पडा। रास्ते में दिव्यांगों के लिए शौचालय, आराम की जगह, रहने के स्थान का घोर अभाव, खराब मौसम, मोबाइल नेटवर्क न होना, खराब सडकें और भूस्खलन जैसी चुनौतियां भी उनके मनोबल को नहीं डिगा सकीं।
जेएनयू की पीएचडी स्कॉलर्स प्रांजल पाटिल ने सफलता के बाद दिव्यांगता को कमी बताकर ठुकराने वालों को यूपीएससी परीक्षा में १२४ रैंक हासिल कर करारा जवाब दे दिया। प्रांजल ने दिव्यांग वर्ग में भी टॉप किया। अब प्रांजल का सपना आईएएस बनकर देश सेवा करना है। अपनी मां को आइडियल मानने वाली प्रांजल आत्मविश्वास के साथ आगे बढने की प्रेरणा पाती हैं। प्रांजल का कहना है कि मैं उन लोगों को यह दिखाना चाहती हूं कि मैं दिव्यांग नहीं थी, बल्कि उनकी सोच थी कि उन्होंने मेरे जज्बे को समझा नहीं। इंटरनेशनल रिलेशन में पीएचडी स्कॉलर्स प्रांजल पाटिल ने बताया कि, 'बेशक मैं आंखों की रोशनी न होने के चलते इस दुनिया के रंगों को देख नहीं सकती हूं पर महसूस करती हूं। पिछला साल बेहद कडवे अनुभवों से बीता। महज छह साल की उम्र में अचानक आंखों की पूरी तरह रोशनी चली जाने के बाद भी अपनी मां ज्योति पाटिल की आंखों से दुनिया को देख रही थी। हालांकि, यूपीएससी परीक्षा २०१५ में ७७३वीं रैंक लेने के बाद भी रेलवे मंत्रालय ने मुझे नौकरी देने से इनकार कर दिया। क्योंकि उन्होंने मेरी आंखों की सौ फीसदी नेत्रहीनता को कमी का आधार बनाया था। मेरी यह जिद थी कि मैं उन लोगों को अपना सपना तोडने नहीं दूंगी। मैंने यूपीएससी परीक्षा की दोबारा तैयारी शुरू की और १२४वां रैंक हासिल किया है। अब मुझे आईएएस मिलेगा, क्योंकि यहां पर मेरी नेत्रहीनता कमी नहीं होगी। मूलरूप से महाराष्ट्र निवासी प्रांजल के पिता एलजी पाटिल सरकारी मुलाजिम हैं और मां ज्योति घरेलू महिला हैं।'
बिहार की राजधानी पटना के एक ९७ साल के बुजुर्ग ने वो कमाल कर दिखाया जो यकीनन अचम्भे में डाल देने वाला है। उम्रदराज राजकुमार वैश्य को भारी लू और गर्मी के बीच जब लोगों ने एमए की परीक्षा देते देखा तो वे हतप्रभ रह गए। चलने में दिक्कत होने के बावजूद वैश्य ने तीन घण्टे तक परीक्षा में बैठकर पर्चा लिखा। उनके साथ बैठे परीक्षार्थियों की उम्र उनके पोते-पोतियों से भी कम थी। नालंदा ओपन यूनिवर्सिटी पटना की ओर से आयोजित एमए अर्थशास्त्र की परीक्षा में बैठे इस शख्स ने १९३८ में स्नातक किया था। उनका उद्देश्य डिग्री हासिल करना नहीं, अध्ययन करना है। १९४० में वे कानून की डिग्री भी हासिल कर चुके हैं। वे युवाओं को संदेश देना चाहते हैं कि हार को कभी स्वीकार मत करो। हताश होने और अवसादग्रस्त होने की जरूरत नहीं है। मौका और अवसर हर वक्त रहता है, सिर्फ खुद पर विश्वास होना चाहिए।
संघर्ष की कंटीली राहों पर गुजरें बिना कामयाबी की दास्तान नहीं लिखी जा सकती। 'बाहुबली-२' का यह डायलॉग भला दर्शक कैसे भूल सकते है, "औरत पर हाथ डालने वाले की उंगलियां नहीं काटते, काटते हैं गला।" इस डायलॉग के लेखक हैं मनोज मुंतशिर जिन्होंने अपने सपने को साकार करने के लिए अपनी कई रातें फुटपाथ पर भिखारियों के बीच सोकर काटीं। ख्वाब बुनते-बुनते लगभग दो साल बीत गए। एक दिन पता चला कि अभिताभ के शो 'कौन बनेगा करोडपति' की तैयारी चल रही है। वे चैनल वालों से मिले। चैनल वालों ने अमिताभ के सामने बिठा दिया। सदी के महानायक ने दस मिनट बोलने का मौका दिया जिसमें वे खरे उतरे और आगे बढने के लिए एक लंबा रास्ता मिल गया। फिल्म के लिए गीत लिखने हों या टीवी रिएलिटी शो के लिए डायलॉग मनोज की कलम किसी की मोहताज नहीं है। हर पल कुछ नया सोचने और करने का जुनून सिर पर सवार रहता है। एक विलेन फिल्म का गीत 'तेरी गलियां...' लिखकर संगीत प्रेमियों के दिलों पर राज करने वाले गीतकार मनोज मुंतशिर जब मायानगरी मुंबई पहुंचे तो वहां उनका न कोई ठिकाना था और न ही गॉडफादर। जेब भी खाली थी। बस लेखक बनने की भरपूर तमन्ना थी। इसी के लिए तो उन्होंने अपना घर-परिवार छोडा था। वे जब दसवीं में पढते थे तभी उन्हें अहसास हो गया था कि उनके पास शब्दों की अपार ताकत है। जब माता-पिता को बताया कि वह लेखक बनना चाहते हैं तो उन्हें कतई अच्छा नहीं लगा। लेकिन मनोज ने तो ठान लिया था कि चाहे कुछ भी हो जाए लेखक ही बनना है। दुनियाभर के पापड बेलने के बाद आखिर उन्हें वो मंजिल मिल ही गई जिसका उन्होंने सपना देखा था। आज मनोज फिल्मी संसार का एक जाना-पहचाना नाम है।

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