Thursday, June 29, 2017

अभी बहुत कुछ बाकी है

यह दौर आश्वस्त करने वाला भी है और हैरान परेशान करने वाला भी। कई बार ऐसा लगता है कि इंसानियत और भाईचारे का जनाजा उठ गया है। लोगों में आपसी प्रेम भावना खत्म हो चुकी है। नजदीकी रिश्तों के तार टूटते चले जा रहे हैं और आपसी सदभाव की हत्या करने वालों की भीड बढती चली जा रही है। नकारात्मक और सकारात्मक खबरों के बीच मानवता सिसकती नजर आ रही है। ताहिरपुर में एक पिता ने तांत्रिक की बातों में आकर अपनी तीन साल की बेटी के दोनों कान काट दिए। यह क्रूर पिता रातों-रात धनपति बनना चाहता था और खून-पसीना बहाने से कतराता था। तंत्र-मंत्र पर भी उसे भरपूर यकीन था। इसलिए अक्सर वह एक तांत्रिक के यहां हाजिरी लगाया करता था। उसी तांत्रिक ने उसके दिमाग में यह बात भर दी कि उसके ग्रहों की दिशा सही नहीं चल रही है। यदि उसे करोडपति बनना है और अशांति से मुक्ति पानी है तो घर के किसी सदस्य की बलि देनी होगी। रात को खाना खाने के बाद उसने अपनी पत्नी और बच्चों को छत पर सोने के लिए भेज दिया। उसने बडी ही चालाकी से अपनी तीन साल की बेटी को अपने पास रोक लिया और एक कान जड से काट दिया। खून से लथपथ बच्ची दर्द के मारे कराहने लगी। पत्नी और बच्चे छत से तुरन्त नीचे पहुंचे। उन्हीं की आंखों के सामने उसने बच्ची का दूसरा कान भी काट दिया। बच्ची की मां ने शोर मचाना शुरू कर दिया। वह बच्ची की गर्दन काटकर उसे मौत के घाट उतारने जा ही रहा था कि पडोसी मौके पर पहुंच गए और उसके हाथ से हथियार छीन लिया। थोडी देर बाद पुलिस भी पहुंच गई। निष्ठुर और धन लोभी बाप को गिरफ्तार करने के बाद खून से लथपथ बच्ची को अस्पताल में भर्ती कराया गया। वारदात के समय वह शराब के नशे में था और यही रट लगाए था कि प्रेत आत्मा ने उसे अपने बस में कर लिया है और उसी के कहने पर उसने इस वारदात को अंजाम दिया है।
एक जमाना था जब लोग एक दूसरे की सहायता करने में कोई कंजूसी नहीं करते थे। अब तो सडकों पर हादसे का शिकार होने के बाद इंसान तडपते रहते हैं, लेकिन लोग यूं गुजर जाते हैं कि मानो कुछ हुआ ही न हो। दरअसल, यह सहायता करने का नहीं तस्वीरें उतारने का जमाना है। दूसरों को आहत करने की मनोवृत्ति बेलगाम घोडे की तरह कहीं भी किसी को रौंद डालती है। बीते सप्ताह गाजियाबाद-मथुरा शटल ट्रेन में जुनैद नामक युवक की बेवजह निर्मम हत्या कर दी गई। जुनैद ईद को लेकर अपने भाइयों शाकिर व हाशिम और अपने दोस्त मौसिम के साथ दिल्ली के सदर बाजार में खरीदी करने गया था। खरीदी करने के बाद ये सभी लोग ट्रेन से फरीदाबाद लौट रहे थे। तुगलकाबाद में २-३ लोग उसी कोच में चढे जिसमें वे सवार थे। जुनैद के कपडों को देखते ही उन लोगों ने साम्प्रदायिक टिप्पणी की और कहा कि तुम लोगों को ट्रेन में बैठने की जरूरत नहीं है। तुम्हें तो ट्रेन के ऊपर बैठना चाहिए। कोच में और भी यात्री थे, लेकिन छेडखानी करने वाले बदमाशों ने हिन्दू-मुस्लिम की बात कहकर सभी को अपने पक्ष में कर लिया था। तीन-चार बच्चे एक तरफ और १४-१५ लोग एक तरफ। इस बीच वे लोग बीफ की बात करने लगे। फिर कहने लगे तुम कटुआ हो, देशद्रोही, पाकिस्तान चले जाओ। वे लोग पूरे रास्ते गालीगलौज करते रहे। जब ट्रेन बल्लभगढ पहुंची तो उन्हें उतरने नहीं दिया गया। एक ने चाकू निकाला और उन पर हमला कर दिया। जुनैद ने मौके पर ही दम तोड दिया। हाशिम ने इस बर्बरकांड की पूरी दास्तान जब अपनी मां को सुनाई तो वह तो जैसे अधमरी होकर रह गई। अखबारों में भी जब यह खबर छपी तो संवेदनशील भारतीयों का दिल दहल गया। उन्हें इस अमानवीयता और दरिंदगी ने हिलाकर रख दिया।
ऐसी चिन्ताग्रस्त कर देने वाली खबरों के बीच जब इंसानियत की मिसाल पेश करने वाली कुछ खबरें पढने-सुनने को मिलती हैं तो किसी कवि की कविता की पंक्तियां याद हो आती है जिनका भावार्थ है कि, अभी भी सबकुछ खत्म नहीं हुआ है। अभी बहुत कुछ बाकी है। कोई भी अंधेरा उम्मीद की किरणों के आडे नहीं आ सकता। दानवों की भीड में ऐसे महामानवों का भी समावेश हैं जिनका वजूद कभी खत्म नहीं हो सकता। इन्हीं की बदौलत यह सारी सृष्टि चल रही है। अपने देश में ऐसे नेता भरे पडे हैं जो हिन्दू-मुस्लिम एकता के तराने तो खूब गाते हैं, लेकिन उनकी कथनी और करनी का अथाह अंतर सारी हकीकत सामने लाकर रख देता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि हिन्दुस्तान में आपसी भाईचारे की ज्योति को जलाए रखने में सीधे-सादे आम भारतीयों का ही प्रमुख योगदान है। महाराष्ट्र के आदिवासी बहुल गढचिरोली जिले की हिन्दू व मुस्लिम वर्ग की दो छात्राओं ने दोस्ती की जो मिसाल कायम की है उससे तो इस देश के मतलबपरस्त नेताओं को जरूर सबक लेना चाहिए। स्मिता और सानिया की दोस्ती की नींव बचपन में ही पड गई थी। वर्तमान में दोनों कॉलेज में पढती हैं और एक साथ कॉलेज जाती हैं। दोस्ती का मान-सम्मान रखने और उसे बरकरार रखने के लिए स्मिता हर वर्ष रोजा रखती है। दोनों के परिवारों में भी घनिष्ठ संबंध हैं। एक-दूसरे के त्योहारों में बडे उत्साह के साथ शामिल होते हैं। दोनों सहेलियों का यह अटूट आत्मीय रिश्ता दूसरों को भी हिन्दू-मुस्लिम एकता की प्रेरणा देता है। क्षेत्र के तमाम लोग एक साथ रोजे रखने वाली दोनों सहेलियों की प्रशंसा करते नहीं थकते। सानिया भी स्मिता के यहां होने वाले सभी पारिवारिक और धार्मिक कार्यक्रमों में बढ-चढ कर हिस्सा लेती है। स्मिता का कहना है कि भले ही सानिया और मेरा रहन-सहन अलग हो मगर हमने किसी भी विषय को लेकर कभी कोई भेदभाव नहीं किया है। देश में हिन्दू-मुस्लिम समाज में काफी गलतफहमियां पैदा हो रही हैं जिनको दूर करने और दोनों वर्गों में एकता बनाए रखने के लिए मैं रोजे रखती हूं। स्मिता और सानिया की तरह और भी हजारों हिन्दू-मुसलमान हैं जिनकी दोस्ती की मिसालें पेश की जाती हैं। यह तो राजनीति ही है जो मंदिर और मस्जिद की बात कर हिन्दुओं और मुसलमानों में दरारें डालने की साजिश करती रहती है। कितने हिन्दू ऐसे हैं जो मस्जिदों के प्रति समर्पित हैं और मुसलमानों का भी मंदिरों से काफी निकटता का नाता है।
कानपुर में १०० वर्ष से ईदगाह की देखभाल एक हिन्दू परिवार करता चला आ रहा है। वर्तमान में ईद की चौकीदारी और साफसफाई करने वाले बबलू बताते हैं कि मेरे दादा १५ वर्ष की उम्र में घर से भागकर कानपुर आ गए थे। पांच दिनों तक भूखे काम तलाशते रहे फिर उनकी मुलाकात ईदगाह के उस वक्त के मुन्नवल्ली फखरुद्दीन से हुई जो उन्हें ईदगाह ले आए और पनाह दी। उन्हें ईदगाह में माली और साफसफाई का काम सौंपा गया। बबलू उस परिवार की तीसरी पीढी के हैं। उत्तर प्रदेश की सबसे बडी यह ईदगाह १५० वर्ष पुरानी है। बबलू कहते हैं: "मैं अपना कर्तव्य बडी ईमानदारी से निभाता हूं। मैं अपने त्योहार भी दूसरे हिन्दुओ की तरह मनता हूं। उसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं है। ईद के दिन मैं खुफिया विभाग वालों के साथ रहता हूं और देखता हूं कि कोई असामाजिक तत्व ईदगाह में न घुस आए। कानपुर ऐसा शहर है जहां कई बार साम्प्रदायिक दंगे हुए हैं। पर न कभी हमने ईदगाह छोडने की सोची, न ही कभी किसी ने वहां से हटने को कहा।"

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