Thursday, August 17, 2017

अपनी जान के दुश्मन

मैं तो यही मानता हूं कि यह जीवन विधाता का दिया एक ऐसा उपहार है जिसकी हिफाजत और कद्र की ही जानी चाहिए। जो लोग आत्महत्या करते हैं वे यकीनन भ्रमित और कायर होते हैं। उनमें जीवन की राह में आने वाले संघर्षों का सामना करने की ताकत नहीं होती। निर्बल और विवेकहीन भी होते हैं यह लोग। रोजमर्रा की छोटी-मोटी समस्याओं को अटल पहाड मान घबरा जाते हैं। मुंह छिपाकर भाग निकलने में ही अपनी भलाई समझते हैं। इनकी सारी शिक्षा-दीक्षा भी अर्थहीन हो जाती है। बच्चे कहीं न कहीं बडों से ही प्रेरणा लेते हैं। जब बडे ही अपने कर्तव्य से भागने लगें, अपने जीवन को नीरस मानने लगें और समस्याओं से टकराने का दम ही न रहे तो सोचिए बच्चे किस राह पर चलेंगे? मेरी आखों के सामने रह-रहकर बक्सर के डीएम मुकेश पांडे का चेहरा कौंधने लगता है। अखबारी दुनिया से बेहद करीबी का वास्ता रखने के कारण आम मौतों और दुर्घटनाओं की खबरें ज्यादा नहीं चौंकातीं। हां किसी जुआरू नेता, अधिकारी, समाजसेवक, साहित्यकार की आत्महत्या की खबर मुझे हिलाकर रख देती है। बिहार के बक्सर जिले के जिलाधिकारी मुकेश पांडे का शव बीते सप्ताह की रात गाजियाबाद स्टेशन से एक किमी दूर कोटगांव के पास रेलवे ट्रैक के पास क्षत-विक्षत हालत में मिला। एक सुसाइड नोट भी बरामद हुआ। २०१२ बैच के इस आइएएस अधिकारी ने अपने सुसाइड नोट में लिखा कि, 'मैं अपनी जिन्दगी से काफी परेशान हो गया हूं। मेरा इंसान के अस्तित्व पर से ही विश्वास उठ गया है। मेरे मां-बाप और पत्नी में हमेशा तनातनी रहती है। हमेशा उलझते रहते हैं, जिससे मेरा जीना दुश्वार हो गया है। दोनों गलत नहीं हैं, दोनों आपस में प्यार करते हैं, लेकिन हर बार अति अच्छी नहीं होती। मेरी पत्नी मुझसे प्यार करती है। मेरी बेटी भी है। मेरी शादी के बाद जीवन में उथल-पुथल है। हम दोनों की छवि बिल्कुल अलग है। हम दोनों का कोई मेल नहीं है, फिर भी मैं दोनों से प्यार करता हूं। मेरी मौत के लिए मेरी छवि ही जिम्मेदार है। मैं खुले दिल का नहीं हूं। मैं जिन्दगी से परेशान हूं। मैंने सोचा कि तप करूं या समाज सेवा करूं, पर मेरा जीवन से मन भर गया है।'
मुकेश की मौत के बाद उनकी पत्नी, सास और ससुर जब मौके पर पहुंचे तो उनकी आंखें भीग गयीं। सास और ससुर अपने दामाद को कोसने से भी खुद को नहीं रोक सके। हां, ऐसे लोग सहानुभूति के अधिकारी नहीं होते। रस्म अदायगी तो करनी ही पडती है। यही संसार की रीत है। छोटी-छोटी बातों से आहत होकर मौत को गले लगा लेना नपुंसकता की निशानी है। कोई भी शख्स यूं ही आइएएस अधिकारी नहीं बन जाता है। बहुत मेहनत करनी पडती है। मुकेश भी यकीनन परिश्रमी और बुद्धिमान रहा होगा। घर-परिवार में होने वाले मनमुटावों ने उसे इतना विवेकहीन कैसे बना दिया कि उसने मौत के लिए रेल की पटरी चुन ली? मुकेश के सुसाइड नोट को पढने के बाद यह आभास भी होता है कि वह अपनी पत्नी, बेटी और मां-बाप को बहुत चाहता था। वह शांतिप्रिय था। तनातनी और लडाई-झगडे जैसी समस्याएं तो कई घरों में होती हैं। समझदार लोग उनको खत्म करने के लिए मिल-बैठकर हल तलाशते हैं। जीवन का अंत नहीं करते। मुकेश तो पढा-लिखा था। उसके लिए इस परेशानी का हल निकालना असंभव नहीं था। उसने पत्र में खुद को खुले दिल का बताया है। उसकी पत्नी के साथ उसके विचार मेल नहीं खाते थे। यह समस्या भी आम है। एक खास आदमी के द्वारा आम समस्या से घबराकर मौत को गले लगने की भयावह हकीकत उसी की अक्लमंदी, योग्यता, निष्ठा, मिलनसारिता और शिक्षा-दीक्षा को कठघरे में खडा कर देती है।
आज के इस आधुनिक दौर में बच्चों को मौत के हवाले करने वाले कई खेल ईजाद कर दिये गए हैं। बारह-पंद्रह साल के बच्चे खेल ही खेल में जिस तरह से मौत को गले लगा रहे हैं उससे चिन्ता भी होती है और भय भी लगता है। कुछ हफ्ते पूर्व महाराष्ट्र के सोलापुर में चौदह साल के एक बच्चे मनप्रीत ने सातवीं मंजिल से कूदकर जान दे दी और इस हफ्ते पश्चिम बंगाल में स्थित मिदनापुर जिले के आनंदपुर में चौदह वर्षीय दसवीं क्लास के छात्र अनकन ने इंटरनेट गेम ब्ल्यू व्हेल के हिंसक मायावी चक्कर में आत्महत्या कर ली। इन दोनों बच्चों को 'ब्ल्यू व्हेल' खेलने की लत लग गई थी। ब्ल्यू व्हेल गेम को २०१३ में रूस के फिलिप बुडेईकिन ने बनाया था। पचास दिन तक चलने वाले इस गेम में एक एडमिन होता है जो खेलने वाले को गेम कैसे खेलना है और आगे क्या करना है, इसके बारे में बताता है। खिलाडी को हर दिन एक कोड नम्बर दिया जाता है। जो हॉरर से जुडा होता है। इसमें हाथ पर ब्लेड से ५७ लिखकर इसकी फोटो अपलोड करनी होती है। फाइनल राउंड में पहुंचने से पहले बच्चों को स्वयं को भयानक कष्ट देकर होने वाले रोमांच और आनन्द के लिए उकसाया जाता है और अपने ही प्रति हिंसा करनी होती है। उन्हें गेम जीतने के लिए आत्महत्या के लिए उकसाया जाता है। इस खेल को एक बार शुरू करने पर बीच में नहीं छोडा जा सकता। यदि कोई बच्चा ऐसा करने की कोशिश करता है तो माता-पिता को मारने की धमकी तथा तरह-तरह से ब्लैकमेल किया जाता है। इस हत्यारी गेम के तैयार करने वाले फिलिप का कहना है कि इस खेल को खेलकर अपनी जान देने वाले लोग इस धरती पर रहने और जीने के लायक नहीं थे। समाज की सफाई के लिए ही उसने यह गेम तैयार किया है। गौरतलब है कि अब तक दुनिया भर में इस खेल के चक्कर में ढाई सौ से अधिक बच्चे अपनी जान गंवा चुके हैं। भारत में भी इस हत्यारी गेम ने बडी तेजी से बच्चों को अपने शिकंजे में लेना शुरू कर दिया है। जानलेवा इंटरनेट गेम के मक्कडजाल का शिकार हुआ मुम्बई का किशोर मनप्रीत बडा होकर पायलट बनना चाहता था। आनंदपुर का अनकन भी पढाई-लिखाई में होशियार था। उसके मां-बाप ने उसके उज्ज्वल भविष्य के कई-कई सपने देखे थे। मनप्रीत ने सोसायटी की इमारत की पांचवी मंजिल से कूदकर मौत को गले लगाया तो अनकन ने घर के बाथरूम में। इंदोर में ब्ल्यू व्हेल के लती एक बच्चे को आत्महत्या करने से बचाया गया।

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