Thursday, May 24, 2018

बचपन की तस्करी

यह सच किसी भी संवेदनशील भारतीय को स्तब्ध कर सकता है कि अपने देश में प्रतिवर्ष हजारों बच्चे गुम हो जाते हैं, गायब कर दिये जाते हैं। बच्चों की सुरक्षा को लेकर भी हमारे यहां काफी ज्यादा लापरवाही बरती जाती है। बच्चों के खिलाफ होने वाली हिंसा के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करने वाले नोबल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी का कहना है कि देश में हर घंटे में दो बच्चों के साथ यौन उत्पीडन होता है। हर ८ मिनट में किसी बच्चे को चुराया जाता है। घरों में, स्कूलों में, पडोस में कही भी बच्चे सुरक्षित नहीं हैं। दोस्त, रिश्तेदार, शिक्षक, डॉक्टर और पुलिसवाले तक किसी के भी इरादे गंदे हो सकते हैं। घर की इज्जत और मान मर्यादा के नाम पर बच्चों की आवाज को दबा दिया जाता है। अपराधी बेखौफ घूमते हैं। दुनियाभर में अस्सी प्रतिशत से ज्यादा मानव तस्करी यौन शोषण के लिए की जाती है और बाकी बंधुआ मजदूरी के लिए। भारत को एशिया में मानव तस्करी का गढ माना जाता है।
मानव तस्करी और मानव व्यापार इंसानों का काम नहीं हो सकता। यह तो राक्षसी कृत्य है। अफसोस... मानवता को शर्मसार करने और धन-दौलत को सर्वोपरि मानने वालो की संख्या इक्कीसवीं सदी में बहुत ज्यादा है। इसी प्रगतिशील सदी में मासूम बच्चे कूडे में से खाना तलाशते हैं। गगनचुंबी इमारतों के निर्माण के लिए अपने मासूम कंधों पर र्इंटे ढोते हैं, अपने सिर पर रेत और सीमेंट की बोरियां रख कर अपने बचपन को लुटता देखते हैं। अखबार बेचते हैं, सब्जी बेचते हैं और चाय आदि के ठेले लगाने के साथ-साथ विभिन्न अपराधों में लिप्त हो जाते हैं। शासक नेता, नौकरशाह, समाजसेवक, धनपति यह मानकर अपनी आंखें बंद कर लेते हैं कि यही इनका मुकद्दर है और मुकद्दर तो ऊपर वाला तय करता है।  जिन परिवारों के बच्चे गुम हो जाते हैं उनका तो जीना ही मुहाल हो जाता है। पुलिस थानों के चक्कर काटते-काटते महीनों गुजर जाते हैं। पुलिस की बेरुखी भी उन्हें तोडकर रख देती है। कई मां-बाप ऐसे भी होते हैं जो अपने बच्चे की गुमशुदगी की रिपोर्ट थाने में दर्ज करवाने जाते ही नहीं। दरअसल उन्हें पता होता है कि अधिकांश पुलिस वाले बिना रिश्वत के काम ही नहीं करते। जिन बच्चे और बच्चियों की तस्करी और अपहरण कर लिया जाता है उन्हें अमानवीय यातनाएं और अपंग बनाकर भीख मंगवाने और देह व्यापार में झोंक देने की खबरें हम और आप वर्षों से पढते और सुनते चले आ रहे हैं। कई सफेदपोश और संगठित गिरोह बच्चों को गायब करने के काम में लगे हैं। उनके लिए यह उनका धंधा है, कारोबार है जिससे मोटी कमायी होती है। इस मोटी और काली कमायी के लिए कई लोग नवजातों की तस्करी में लगे हुए हैं। पिछले वर्ष पश्चिम बंगाल के नार्थ २४ परगना इलाके में एक नर्सिंग होम के कर्ताधर्ता नवजातों के सौदे का काला कारोबार करते हुए पकडे गए। देश में ऐसे सैकडो 'कारोबारी' हैं। सभी तो पकड में नहीं आते। देश और विदेश में जिन दंपत्तियो के बच्चे नहीं होते, उन्हें मोटी कीमत पर नवजातों को बेचा जाता है। नवजातों की अलग-अलग कीमत होती है। जिन बच्चों का रंग गोरा होता है उन्हें दो लाख रुपये और काले और सांवले बच्चों को एक से डेढ लाख में बेचा जाता है। अगर कोई महिला अबॉर्शन कराने आती है तो उसे भी पैसे देकर बच्चे को जन्म देने को कहा जाता है। इस तरह का कारोबार करने वाले नर्सिंग होम और पॉली क्लिनिक में जो बच्चे पैदा होते हैं उनके मां-बाप को बताया जाता है कि नवजात जिन्दा नहीं पैदा हुआ। गरीब मां-बाप आसानी से यकीन कर लेते हैं। कम ही होते हैं जो ज्यादा पूछताछ करते हैं। ज्यादा विरोध करने वाले गरीब मां-बाप का चंद रुपये देकर मुंह बंद कर दिया जाता है।
पचास-साठ साल बाद पूरी तरह से जागृत हो चुके भारतीय यह पढ और सुनकर यकीनन चकरा जाएंगे कि एक दौर ऐसा भी था जब देश में बचपन बिकता था। बेटे और बेटियों की तस्करी कर उन्हें अमानवीय यातनाएं दी जाती थीं और उन्हें तरह-तरह की मंडियों के हवाले कर दिया जाता था। मासूमों को सामान की तरह बेचा-खरीदा जाता था। उनकी फरियाद और चीखें अनसुनी कर दी जाती थीं। पैसा कमाने के लिए ईमानदार रास्तों और तरीकों के होने के बावजूद यह अमानवीयता और दरिंदगी चरम पर थी। उस सचेत पीढी के मन में यह विचार भी जरूर आयेगा कि जब बचपन पर ऐसा जुल्म हो रहा था तब सजग देशवासी कहां थे। ऐसी कौन-सी मजबूरी थी जिसके चलते राजनेताओं, सत्ताधीशों, समाज सेवकों और बुद्धिजीवियों ने आंखें बंद कर ली थीं और जुबानों पर ताले जड लिए थे? इन पंक्तियों को पढने के बाद मेरे पाठक मित्र यह सवाल भी कर सकते हैं कि यदि पचास-साठ साल बाद भी हालात नहीं बदले तो? ऐसे में मेरा जवाब है हमें आशावादी होना ही होगा।

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