Thursday, May 17, 2018

खुद के हत्यारे

वो पुलिस अधिकारी जिससे अपराधी कांपते हों, जिसकी कर्तव्यपरायणता के किस्से लोग वर्षों से सुनते चले आ रहे हों, जो असंख्य लोगों का प्रेरणास्त्रोत हो, आदर्श हो उसकी एकाएक आत्महत्या की खबर आए तो दिमाग का सुन्न हो जाना और सवालों का खडा होना लाजिमी है। महाराष्ट्र के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक हिमांशु रॉय की खुदकशी की खबर सुनकर मन में यह विचार आया कि क्या इसके सिवाय और कोई चारा नहीं था? क्या जीने के सभी रास्ते बंद हो गये थे? ऐसे कौन से कारण हैं जो जिद्दी और जुनूनी व्यक्ति को भी मिट्टी में मिलने को विवश कर देते हैं। महज ५५ वर्ष की उम्र में रिवॉल्वर को अपने मुंह में रखकर गोली चला खुदकुशी करने वाले हिमांशु रॉय के ऐसे कई किस्से हैं, जिन्होंने ऐसे लौहपुरुष के रूप में स्थापित किया जो हारना नहीं, जीतना जानता था। १९८८ बैच के इस आईपीएस अधिकारी ने कुख्यात माफिया सरगना दाऊद इब्राहिम की सम्पत्ति को जब्त कराने के अभियान में प्रमुख भूमिका निभायी थी। दाऊद के भाई इकबाल कासकर के ड्राइवर आशिफ के एनकाउंटर, पत्रकार जेडे हत्या प्रकरण, लैला खान एवं लॉ ग्रेजुएट पल्लवी पुरकायस्थ डबल मर्डर केस जैसे मामलों की जांच को अंजाम तक पहुंचा कर ही दम लिया था।
पाकिस्तानी मूल के अमेरिका में जन्मे लश्कर-ए-तैयबा आतंकी डेविड हेडली के मामले की जांच करने वाली टीम में भी वे शामिल थे। आइएस में शामिल होने जा रहे अरीब मजीद को वापस लाने में उनकी प्रमुख भूमिका थी। साल २०१३ के आईपीएल स्पॉट फिक्सिंग केस को भी सुलझाने में आगे रहने वाले इस वर्दीधारी के लिए सभी अपराधी बराबर थे। वे किसी के रुतबे और पहुंच की परवाह नहीं करते थे। उन्होंने १९९१ में मालेगांव में हुई अपनी पहली नियुक्ति में बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद भडके दंगों को बडी सूझ-बूझ के साथ नियंत्रित कर अपनी योग्यता का परिचय दे दिया था। बडी से बडी कठिनाइयों के सामने डटकर खडे होने वाले लडाकू के द्वारा हड्डियों के कैंसर से भयभीत होकर मौत से पहले मौत को गले लगाने की सच्चाई जिन्दगी से धोखाधडी से कम नहीं। लडाकू कभी भी ऐसी मौत नहीं मरा करते। वे तो आखिर तक लडा करते हैं। उनके इस कदम से उन लोगों को बेहद निराशा हुई है जो उन्हें असली नायक मानते थे। कई गंभीर कैंसर रोगी समुचित इलाज से ठीक होते देखे गए हैं। कैंसर से छुटकारा पाने के लिए उन्हें वर्षों तक निर्भीक यौद्धा की तरह लडते देखा गया है। रॉय ने अपने मित्रों से कहा था कि उन्होंने नौकरी के दौरान कई दबावों और तकलीफों को झेला है। इस दर्द को भी बडी बहादुरी के साथ सह लेंगे। कौन नहीं जानता कि पुलिस के उच्च अधिकारियों पर मंत्रियों और नेताओं का दबाव रहता है। वे उन्हें अपने इशारों पर नचाना चाहते हैं। हिमांशु रॉय ने इसी तकलीफ की तरफ इशारा किया था। रॉय जैसे अधिकारी अपने कर्तव्य को ही प्राथमिकता देते हैं। इसलिए प्रताडना के शिकार होते हैं।
हिमांशु की दु:खद आत्महत्या ने मुझे मुकेश पांडे की याद दिला दी जिन्होंने २०१७ के अगस्त माह में खुदकुशी कर ली थी। राजधानी दिल्ली से सटे गाजियाबाद के स्टेशन से एक किमी दूर रेलवे ट्रैक के पास उनका क्षत-विक्षत शव मिला था। २०१२ के बैच के इस युवा आइएएस अधिकारी ने अपने सुसाइड नोट में लिखा था- "मुझे जिंदगी ने बहुत थका दिया है। इसके दांव-पेच से मैं इस कदर परेशान हो गया हूं कि मेरा इंसान के अस्तित्व से ही विश्वास उठ गया है। मेरे मां-बाप और पत्नी हमेशा आपस में लडते-झगडते रहते हैं। उनके बीच की तनातनी ने मेरा जीना दुश्वार कर दिया है। मेरी पत्नी और मेरे विचारों में जमीन-आसमान का अंतर है। हमारी एक बेटी भी है। मैं पत्नी और बेटी से बेहद प्यार करता हूं। मेरी मौत के लिए मेरी छवि भी जिम्मेदार है। मैं स्वीकार करता हूं कि मैं खुले दिल का नहीं हूं। पत्नी को बदल पाना मेरे बस की बात नहीं है। मेरा जीवन से मन भर गया है इसलिए खुदकुशी कर रहा हूं। रेलवे ट्रैक पर गर्दन रखकर आत्महत्या करने से पहले मुकेश एक गगनचुंबी इमारत के दसवें माले पर छलांग लगाने के लिए चढे थे पर पता नहीं उनके मन में कौन-सा विचार आया कि वे वहां से उतरकर गाजियाबाद की तरफ चल दिए। तय है कि उन्होंने एकाएक खुदकुशी नहीं की। कई तरह के विचारों से जूझते रहे। यह कितनी हैरानी की बात है कि जो बुद्धिमान प्रशासनिक अधिकारी दूसरों की समस्याओं को चुटकी बजाकर हल कर देता था वह अपने घरेलू झगडों का हल नहीं निकाल सका। यह भी सच है कि देश में होने वाली आधी से ज्यादा आत्महत्याएं पारिवारिक कलह का परिणाम होती हैं।
यह सच बेहद चौंकाने वाला है कि दुनिया में हर ४० सेकंड में एक आत्महत्या हो जाती है। प्रतिवर्ष औसत आठ लोग आत्महत्या कर लेते हैं मनोविज्ञानियों का कहना है कि यदि समय रहते आत्महत्या करने की ठान चुके शख्स को भावनात्मक संबल मिल जाए तो वह अपना इरादा बदल सकता है, कोई भी व्यक्ति हताश और निराशा होने पर नहीं, बल्कि सही सलाह और सहारा नहीं मिलने पर आत्महत्या कर गुजरता है वह अंत तक इंतजार करता है कोई उसकी पी‹डा को समझे। उसे अपनी अवहेलना बर्दाश्त नहीं होती। जीवन से निराश हो चुके व्यक्ति का चेहरा ही उसका दर्पण होता है। उसकी उदासी, समस्याएं, तकलीफें, चिंताएं चेहरे पर ही नजर आ जाती हैं। उसके स्वभाव और दिनचर्या में भी काफी बदलाव आ जाता है। वह सभी से दूरी बनाने की कोशिश करने लगता है। यह वो संकेत हैं जो परिवार के सदस्यों, दोस्तों और करीबियों का ध्यान खींचने के लिए काफी हैं। यह ध्यान रहे कि ऐसे व्यक्ति से ज्यादा पूछताछ और सवाल करने की बजाए उसकी ही बात सुनी और समझी जानी चाहिए। खाने-पीने, सोने और सेहत का पूरी तरह से ख्याल रखा जाना चाहिए। अपनों का करीब रहना, उनका खुलकर बात करना, खुश रहने के मौके उपलब्ध करवाना और हर तरह की मदद के लिए तत्पर रहना किसी अच्छे चिकित्सक के गहन इलाज से कम नहीं होता। उसे ज्यादा से ज्यादा समय देकर प्रेम और सांत्वना से सकारात्मक विचारों से जोडने की कोशिश उसके लिए हितकारी साबित होती है।

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