Friday, November 23, 2018

नेताओं और मीडिया का ख्वाब

जनता अगर खामोश है तो इसका मतलब यह नहीं कि वह बेवकूफ है। अनाडी और अंधी है। नेता और मीडिया पता नहीं इस सच को समझने को तैयार क्यों नहीं हैं। साफ-साफ दिखायी दे रहा है कि अधिकांश मीडिया और राजनेता आपस में मिले हुए हैं। देश के कम पढे-लिखे आम आदमी को भी पता चल गया है कि कौन-सा न्यूज चैनल किसके साथ है और किस-किस अखबार के मालिकों ने राजनेताओं और सत्ताधीशों की गुलामी स्वीकार कर ली है। तयशुदा राजनेताओं और दलों के इशारों पर तेजी से अंधों की तरह दौड रहे पत्रकार और संपादक अभी भी इस भ्रम में हैं कि वे जो लिखेंगे और कहेंगे उस पर जनता फौरन यकीन कर लेगी। अधिकांश नेताओं की भी यह उम्मीद बरकरार है कि उनकी काठ की हांडी हमेशा चढती रहेगी। वोटरों की भीड बेवकूफ बनती आयी है और बनती रहेगी। चौबीस घंटे रोजी-रोटी के चक्कर में उलझे रहने वाले गरीबों को तो अपने जाल में फंसाना कोई मुश्किल काम नहीं है। पैसा पानी की तरह बहाओ और हर चुनाव जीत जाओ। विरोधी हमारे खिलाफ कितना भी चीख-चिल्ला लें, लेकिन जब तक अखबार और न्यूज चैनल वाले साथ हैं तब तक हमारा बाल भी बांका नहीं हो सकता। नेताओं का अहंकार सभी सीमाएं पार करता चला जा रहा है।
एक समय ऐसा था जब चुनाव के समय विरोधियों के लिए सम्मानजनक भाषा का इस्तेमाल किया जाता था। एक-एक शब्द सोच-समझ कर बोला जाता था। अब तो तहजीब और शालीनता की हत्या करने में कोई संकोच नहीं किया जा रहा। छोटे ही नहीं, बडे नेता भी गाली-गलौच करना शान की बात समझते हैं। उनके मुंह से चोर, रावण, नाली का कीडा, नीच, कुत्ता, कमीना, यमराज, नपुंसक, बंदर और मौत का सौदागर जैसे एक-दूसरे को गुस्सा दिलाने और नीचा दिखाने वाले तेजाबी शब्द ऐसे निकलते हैं जैसे उन्होंने अपनी सारी शिक्षा-दीक्षा सडक छाप बदमाशों की पाठशालाओं से ग्रहण की हो। एक-दूसरे के मुंह पर थूकने और जूता मारने को उतारू रहने वाले ऐसे ही नेताओं की बहुत ब‹डी जमात विधायक और सांसद बनने में सफल होती चली आ रही है। कुछ प्रत्याशी मतदाताओं को रिझाने के लिए ऐसी-ऐसी ऊटपटांग हरकतें करने में भी नहीं सकुचाते जो उन्हें हंसी का पात्र बना देती हैं। मध्यप्रदेश के इन्दौर की सांवर सीट से भाजपा के उम्मीदवार ने तो चाटुकारिता की सारी हदें ही पार कर दीं। एक घर में जब वे वोट मांगने के लिए पहुंचे तो बरामदे में रखे जूठे बर्तनों को मांजने लगे। महिला उन्हें रोकती रही, लेकिन वे पूरे बर्तन धोने के बाद ही वहां से इस आश्वासन के साथ विदा हुए कि इस घर के सभी सदस्यों का वोट उन्हें ही मिलेगा। इसी तरह एक और तस्वीर शहर गुना में देखी गई जहां पर सपा प्रत्याशी जगदीश खटीम अपने जनसंपर्क के दौरान रास्ते में मिलने वाले हर राहगीर के पैर पक‹डने लगे। उन्होंने तब तक पैर नहीं छोडे जब तक सामने वाले ने वोट देने का प्रबल आश्वासन और जीत का आशीर्वाद नहीं दिया।
लगभग हर पार्टी जान-समझ चुकी है कि चुनाव के दौरान जारी किये जाने वाले उनके घोषणापत्र पर अब लोग कतई यकीन नहीं करते। वे अच्छी तरह से जान गये हैं कि पार्टियों के चुनावी घोषणापत्र सिर्फ और सिर्फ झूठ का पुलिंदा होते हैं। चुनाव जीतने के लिए किये जाने वाले दूसरे छल-प्रपंचों की तरह ही घोषणापत्रों के माध्यम से भी मतदाताओं की आंख में धूल झोंकी जाती है। अब एक नया खेल खेलते हुए जनता को सब्जबाग दिखाने वाले राजनीतिक दलों ने संकल्प पत्र और वचन पत्र जारी करने प्रारंभ कर दिये हैं। 'संकल्प' और 'वचन' ऐसे शब्द हैं जो बोलने और लिखने में ही खासे प्रभावी और वजनदार प्रतीत होते हैं। फिर भी इस नयी चाल को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है।
मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ के विधानसभा चुनाव में जिन धाकड नेताओं को टिकट नहीं मिली उन्होंने अपनी असली औकात दिखाने में जरा भी देरी नहीं लगायी। कुछ नेता तो अपने समर्थकों के कंधों पर सिर रखकर बच्चों की तरह रोते-बिलखते नज़र आये। इनमें से कुछ महानुभावों ने अपने बडे नेताओं पर टिकट बेचने का आरोप भी मढ दिया। जब तक इन्हें पार्टी टिकट देती रही तब तक सब ठीक था। टिकट नहीं मिली तो पार्टी के वो सर्वेसर्वा भी बेईमान हो गए जिनके समक्ष यह नतमस्तक होते रहते थे। जैसे ही उन्हें दूसरी पार्टी की टिकट मिली तो अपनी उस वर्षों की साथी पार्टी की हजार बुराइयां भी गिनाने लगे जिसके प्रति अटूट निष्ठा का दावा करते नहीं थकते थे। दरअसल नेता हों या मालिक, पत्रकार, संपादक, अधिकांश व्यापारी और कारोबारी हो गये हैं। इनकी नज़र हमेशा कमायी पर लगी रहती है। इससे नुकसान तो देश और समाज को हो रहा है। मीडिया लोकतंत्र का चौथा खम्भा है जिसका एकमात्र धर्म है निष्पक्षता और निर्भीकता के साथ सच और सिर्फ सच का चेहरा दिखाना। आज आप कोई भी न्यूज चैनल खोलिए तो आपको हिंदू, मुसलमान और मंदिर-मस्जिद का शोर सुनायी देगा। कृषि, किसान, गांव, बेरोजगारी और लगातार बढती असमानता की खबरें तो न्यूज चैनलों और अखबारों से गायब हो गई हैं। ३२ से ४८ पेज के अखबार जिनका लागत मूल्य ही बीस से तीस रुपये होता है उन्हें पांच से सात रुपये में कैसे बेचा जा रहा है यह कोई बहुत बडे शोध का विषय नहीं है। मीडिया ही धन बटोरने का बहुत बडा माध्यम बन गया है। पत्रकारिता के नाम पर, पत्रकारिता की आड में बडी-बडी शैतानियां और लूटमारियां चल रही हैं। हैरतअंगेज डकैतियां हो रही हैं और इनमें शामिल हैं वो सत्ताधीश, नेता और मीडिया के दिग्गज जो सच्चे देशसेवक होने के साथ-साथ पूरी तरह से ईमानदार होने का दिन-रात ढोल पीटते हुए सभी देशवासियों को पूरी तरह से अंधा और बहरा बनाने के ख्वाब देख रहे हैं, लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है और ना ही, कभी हो पायेगा...।

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