Thursday, May 2, 2019

कटघरे में पत्रकार और अखबार

सीधे और सरल शब्दों में कहूं तो सच यही है कि देश का अधिकांश मीडिया भी आज दो भागों में विभक्त हो चुका है। नफरती न्यूज चैनलों और अखबारों की भीड में चंद सच्चे और अच्छे भी हैं जो स्वच्छ पत्रकारिता करते हुए लोकतंत्र के चौथे खम्भे की सशक्त भूमिका निभा रहे हैं। सत्यता, निष्पक्षता, निर्भीकता तथ्यपरकता, स्वतंत्रता, संतुलन और न्यायसंगता ही पत्रकारिता की रीढ की हड्डी है। पिछले चार सालों में जिस तरह से अधिकांश न्यूज चैनलों ने खुद पर किसी न किसी पार्टी के भोंपू, अंधे भक्त और पक्षधर होने का ठप्पा लगवाया है, उससे सजग देशवासी अच्छी तरह से अवगत हैं। यही सच देश के अधिकांश समाचार पत्रों का भी है! कौन-सा अखबार सत्ता का गुलाम है, किस पार्टी की तरफ उसका झुकाव है और वह किन-किन राजनेताओं के स्तुति गान को प्राथमिकता देता है इसकी खबर उन पाठकों को सदैव रहती है जो अपनी आखें खुली रखते हैं। राष्ट्रीय साप्ताहिक 'राष्ट्र पत्रिका' की दसवीं वर्षगांठ के शुभअवसर पर हम लोकतंत्र में अखबारों के हालात पर बात करना चाहते हैं। यह सबको पता है कि देश में लगभग सभी समाचार पत्र पूंजीपतियों के द्वारा चलाये जा रहे हैं। अखबार चलाने के पीछे की उनकी असली नीयत भी अब बेपर्दा हो चुकी है। अक्सर ऐसा होता है कि जब किसी नये अखबार का स्वामी, संपादक, पत्रकार किसी प्रतिष्ठित हस्ती को अपना परिचय देता है तो उससे सबसे पहला यही सवाल किया जाता है कि आपका अखबार किस राजनीतिक दल से वास्ता रखता है। दरअसल यह उनकी गलती नहीं है। यह तो अखबार और उन्हें चलाने वालों की छवि का नतीजा है, जिससे वे कभी बाहर नहीं निकलते और पाठकों को निरंतर बेवकूफ बनाने में लगे रहते हैं। वैसे भी सच कभी छिपा तो नहीं रहता।
२०१९ के लोकसभा चुनाव में दिखायी दे रही पत्रकारिता की हैरतअंगेज तस्वीर को क्या नजरअंदाज किया जा सकता है? स्पष्ट दिखायी दे रहा है कि निष्पक्षता का तो जैसे गला घोटने की ठान ली गई है। खुद को पत्रकारिता के शहंशाह कहने वाले अधिकांश पत्रकार, संपादक या तो भाजपा की भक्ति में लगे हैं या फिर घोर विरोध की पताका थामे हुए हैं। कुछ पत्रकारों ने तो अंधभक्ति और चाटूकारिता की सभी सीमाएं लांघ दी हैं। उनकी यह हरकत इन्हें कहां ले जाएगी यह तो आनेवाला वक्त बतायेगा, लेकिन अपनी-अपनी अंधभक्ति के कारण अंतत: इन्हीं का अहित होना तय है। धन और अन्य भौतिक सुख-सुविधाएं भले ही इन्हें मिल जाएं पर वो सम्मान नहीं मिलने वाला जो निष्पक्ष पत्रकारों को मिलता है। देशवासियों की निगाह से गिर चुके हैं ऐसे कलमकार। मैं उन्हें लेकर बहुत भयभीत और चिंतित हूं कि कहीं आने वाले परिणाम उन्हें इस हालत में न पहुंचा दें कि वे शर्मिन्दगी के मारे किसी को अपनी शक्ल ही न दिखा पाएं। पागलखाने में भर्ती होने या फिर आत्महत्या करने की सोचने की नौबत आ जाए। अखबार पाठकों को सच से अवगत कराने के लिए निकाले जाते हैं, न कि किसी की चरणवंदना करने के लिए। राजनेता तो किसी के सगे नहीं होते। फिर सत्ता तो उन्हें अक्सर अंधा बना ही देती है।
ममता बनर्जी जब प्रदेश की सत्ता पाने के लिए छटपटा रहीं थीं तब उनकी शालीनता की कई कहानियां सुनी और सुनायी जाती थीं। उन्हें बंगाल की शेरनी भी कहा जाता था। अखबारों के संपादकों, मालिकों को बेखौफ अपना कर्तव्य निभाने की सीख देते नहीं थका करती थीं। चाटूकार पत्रकारों को ऐसी फटकार लगाती थीं कि वे ममता के समक्ष आने से हिचकिचाते थे। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनने के बाद वे ऐसी बदलीं कि लोग हैरत में पड गए। प्रदेश में अब वही अखबार पढे जाते हैं, जिन्हें सरकार पसंद करती है। जी हां, सरकार ही तय करती है कि सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त पुस्तकालयों में लोग कौन-सा अखबार पढें, कौन-सा नहीं। ममता दीदी को उन अखबारों तथा उनके मालिकों, संपादकों से सख्त नफरत है, जो उनकी सरकार के खिलाफ लिखते हैं। दीदी को खुद पर किसी भी तरह का कटाक्ष पसंद नहीं। वे तो सिर्फ और सिर्फ अपनी प्रशंसा करने वालों को ही अपने आसपास खडा होने देती हैं। चापलूसी उन्हें अपार सुख देती है। अपनी आरती गाने वाले कई अखबार के संपादकों, मालिकों को राज्यसभा भेज चुकीं ममता के पुरस्कृत करने के इस अंदाज से जहां सच्चे पत्रकार आक्रोश में हैं तो वहीं बिकाऊओं की तो बस यही चाहत है कि ममता ही हमेशा मुख्यमंत्री बनी रहें। अकेली ममता ही ऐसी नहीं हैं। भारतवर्ष के अधिकांश राजनेता और सत्ताधीश इसी आदत के रोगी हैं, जो तरह-तरह से खेल खेलते रहते हैं। गिरगिट की तरह रंग बदलने वाले नेताओं के समक्ष नतमस्तक होकर पत्रकारिता का अपमान करने वाले पत्रकार, संपादक यह मान चुके हैं कि गुलामी किये बिना अखबार निकाले ही नहीं जा सकते। इनकी बडी-बडी उपदेशात्मक बातें किसी को भी अचंभे में डाल सकती हैं। अपना देश उपदेशकों से भरा पडा है। जब कर्तव्य निभाने की बारी आती है तो यह तरह-तरह की बहानेबाजी पर उतर आते हैं। देश प्रेम और अपना कर्तव्य कैसे निभाया जाता है इनसे सीखें:
गुजरात के अहमदाबाद में एक ऐसे व्यक्ति ने बडे गर्व के साथ मतदान किया जिनके दोनों हाथ नहीं हैं। मतदान से पूर्व पैर के अंगूठे पर मतदानकर्मी ने जब अमिट स्याही लगायी तब उनके चेहरे की चमक कह रही थी कि क्या हुआ मेरे हाथ नहीं हैं, देश प्रेम का ज़ज्बा तो है, जो कभी भी कम नहीं हो सकता। बिहार के मधुबनी में दिव्यांग जगन्नाथ कुमार राय ने भी दोनों हाथ नहीं होने के बावजूद अपने पैर से ईवीएम का बटन दबाकर अपने मताधिकार का प्रयोग कर भारत के सचेत पुत्र होने का सबूत पेश किया। झारखंड के कामता गांव निवासी जसीमुद्दीन अंसारी ने भी उन सुविधा भोगियों के मुंह पर तमाचा जडा है जो मतदान के दिन सैर-सपाटे पर निकल जाते हैं या फिर घर में बैठकर तरह-तरह के पकवानों का मज़ा लेते हुए राजनेताओं तथा सरकार की कमियां गिनते-गिनाते रहते हैं। बीस वर्ष पूर्व उग्रवादियों ने उन्हें चेताया था कि वोट देने न जाएं, लेकिन वे उनके वोट बहिष्कार के फरमान को नजरअंदाज कर अपने दोस्त महादेव के साथ वोट देने पहुंच गए थे। गुस्साये माओवादियों ने जसीमुद्दीन का हाथ तथा महादेव का अंगूठा काट डाला था। महादेव का देहावसान हो चुका है, लेकिन जसीमुद्दीन जिन्दा हैं और हर चुनाव में नियमित मतदान कर जिन्दा होने का प्रमाण भी पेश करते चले आ रहे हैं।
निष्पक्षता, निर्भिकता और निरंतरता के साथ पत्रकारिता के मूल धर्म को निभाते चले आ रहे राष्ट्रीय साप्ताहिक 'राष्ट्र पत्रिका' की वर्षगांठ पर समस्त पाठकों, संवाददाताओं, अभिकर्ताओं, लेखकों, शुभचिंतकों, विज्ञापनदाताओं को बधाई और अपार शुभकामनाएं।

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