Thursday, May 30, 2019

ईश्वर के दूत

यह वो समय है जब किसी के पास फुर्सत नहीं है। न जाने कितनी संताने ऐसी हैं, जो अपनी ही दुनिया में गुम हैं। उन्होंने अपने जीवित मां-बाप को मृत मान लिया है। तभी तो वे उन्हें बडी बेरहमी से कहीं भी फेंक देती हैं। लावारिस छोड देती हैं। वृद्धों की तरह ही कुष्ठ रोगियों को भी असंख्य यातनाएं झेलनी पडती हैं। गैर तो गैर अपने भीअछूत मान उनके निकट नहीं आते। ऐसे दौर में जब कुछ लोग ऐसे दुखियारों के चेहरे पर मुस्कान लाने और उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के अभियान में जुटे नजर आते हैं तो मन में यह विचार आता है कि यदि ऐसे संवेदनशील, उदार लोग नहीं होते तो यह दुनिया तो पूरी तरह से काली और डरावनी हो जाती।
नागपुर की ज्योति मुंजे ने अपने घर को ही वृद्धाश्रम में तब्दील कर दिया है। यहां पर ज्योति उन माता-पिता को पनाह देती हैं, जिन्हें उनकी नालायक औलादों ने कहीं का नहीं रखा। सबकुछ होने के बावजूद भी आज वे खाली हाथ हैं। सडकों, गलियों, चौराहों पर मारे-मारे भटक कर हाथ फैलाने को विवश हैं। ऐसे बदकिस्मतों पर सभी को दया नहीं आती। कुछेक के अंदर की ही इंसानियत जागती है और वे इंसान से फरिश्ता बन जाते हैं। तरह-तरह के छलावों के शिकार हुए माता-पिता को अपनत्व और सुरक्षा प्रदान करने वाली ज्योति उन वृद्धों के लिए तो भगवान का ही प्रतिरूप हैं जिन्हें उन्होंने अपने घर में आश्रय दिया है। अपने ही घर में वृद्धाश्रम चलाने का विचार ज्योति के मन में कैसे और क्यों आया? नि:स्वार्थ समाजसेवी पिता की पुत्री ज्योति कभी घर-घर जाकर गैस रिपेरिंग का कार्य करती थी। इसी दौरान वह गैस रिपेरिंग के लिए शहर के एक रईस की कोठी में गईं। पूरा परिवार पूरी शानो-शौकत के साथ रहता था। परिवार के सभी सदस्य हर तरह की भौतिक सुख-सुविधाओं का मज़ा लूट रहे थे, लेकिन उस आलीशान कोठी की बालकनी में परिवार के मुखिया की वृद्ध मां कटे-फटे बोरे पर प‹डी कराह रही थी। उसकी वेदना और दर्द भरी पुकार को सुनने वाला कोई नहीं था। ज्योति जब उस बीमार और कमजोर मां के निकट पहुंची तो उसने उनसे हाथ जोडते हुए अनुरोध किया कि वह इन जालिमों के चंगुल से छुडाकर उसे अपने साथ ले जाए। इस विशाल कोठी में सभी उसके मरने का इंतजार कर रहे हैं, लेकिन वह जीना चाहती है। ज्योति तब उस मजबूर मां की कोई सहायता तो नहीं कर पाईं, लेकिन उन्होंने जीवन के अंतिम दिनों में असहाय, अपनों के सताये लोगों के लिए कुछ कर गुजरने की ठान ली। ज्योति की समाजसेवा की चाहत को साकार करने में उनके पति और बेटे ने भी पूरा-पूरा साथ दिया। घर में ही राजगिरी बहुउद्देशीय सामाजिक संस्था के नाम से वृद्धाश्रम शुरू करने में ज्यादा समय नहीं लगा। ज्योति को वो दिन आज भी जब याद आता है तो रोंगटे खडे हो जाते हैं। शहर के मेडिकल चौक से गुजरते समय उन्होंने कूडे के ढेर पर एक वृद्धा को जिस्म की पी‹डा के कारण कराहते और तडपते देखा तो उन्होंने दो राहगीरों की सहायता से उसे रिक्शे में डाला और अस्पताल ले गईं । इलाज के पश्चात वे उसे अपने घर ले आईं। उस चलने-फिरने में एकदम लाचार वृद्धा ने ज्योति को यह बताकर हतप्रभ कर दिया कि शहर में ही उसका अपना घर है जहां पर उसका बेटा और बहू रहते हैं। बेटा ठीक-ठाक कमा लेता है, लेकिन उसे रोज पीने की आदत है। बहू भी आरामपरस्त है। खाना-बनाना, बर्तन साफ करना और घर के दूसरे सभी काम उसे ही करने पडते थे। वह खुशी-खुशी करती भी थी। एक दिन गीले फर्श पर पैर फिसलने से वह ऐसे गिरी कि उसकी कमर की हड्डी ही टूट गई। उसके लिए खडे होना मुश्किल हो गया। बेटा और बहू इलाज करवाने की बजाय रात के अंधेरे में मुझे कूडे के ढेर पर किसी बेकार वस्तु की तरह फेंक कर चले गए। मैं उनसे दया की भीख मांगती रही, लेकिन उन्होंने मुडकर भी नहीं देखा।
कुंभकोण्डम में जन्मी और चेन्नई में रहने वाली डॉक्टर रेणुका रामकृष्णन एक ऐसी संस्कारी नारी हैं, जिन्होंने खुद को पूरी तरह से कुष्ठरोगियों की सेवा में अर्पित कर दिया है। कुष्ठ रोगियों को लेकर हमारे समाज में जो गलत धारणा घर कर चुकी है उसी से लगभग पच्चीस वर्ष पूर्व रूबरू होने के बाद रेणुका ने डॉक्टर बन समाजसेवा करने का निर्णय लिया। तब वे सोलह वर्ष की थीं। महामहम का पर्व था। यह पर्व बारह साल में एक बार आता है। इस बहुप्रतीक्षित पर्व के दिन स्नान के लिए लाखों की भीड कुंभकोणम में उमडती है, जिसे संभालना मुश्किल हो जाता है। उस दिन रेणुका मंदिर में ही थीं। तभी अचानक मंदिर में स्थापित पवित्र कुंड के एकदम पास उन्होंने एक लाश देखी, जिससे लोग बडी सावधानी से बच-बच कर चल रहे थे। लोगों को इस बात का गुस्सा था कि इस व्यक्ति ने कुंड को अपवित्र कर दिया है। दरअसल, वह कुष्ठरोगी था, जिसे कोई भी नहीं छूना चाहता था। रेणुका के लिए यह ऐसा स्तब्धकारी मंजर था, जिसने उन्हें हिलाकर रख दिया। उन्होंने अपने दुपट्ठे से मृत व्यक्ति के शरीर को ढकने के बाद कुछ लोगों से अनुरोध किया कि वे उसे श्मशान तक ले जाने में उनकी सहायता करें। लोगों ने सुन कर भी अनसुना कर दिया। वे काफी देर तक वहीं खडी रहीं। काफी इंतजार के बाद बडी मुश्किल से एक व्यक्ति उनका साथ देने के लिए सामने आया। उसकी मदद से लाश को रिक्शे पर रखवा कर वे श्मशान घाट पहुंचीं, लेकिन वहां के लोगों ने कुष्ट रोगी की लाश का अंतिम संस्कार करने से मना कर दिया। वहां से वह उसे लेकर तीस किलोमीटर दूर एक दूसरे श्मशान घाट में ले गईं। वहां पर भी उन्हें मनाने में घण्टों लग गये। उस कुष्ठरोगी के अंतिम संस्कार के बाद घर लौटते समय रेणुका ने दृढ निश्चय किया कि चाहे कुछ भी हो जाए, उन्हें डॉक्टर बनना है और कुष्ठ रोगियों की बेहतरी के लिए अपना सारा जीवन समर्पित कर देना है। जहां चाह होती है वहां राह निकलती ही है। रेणुका ने जो प्रतिज्ञा की थी उस पर आज भी अटल हैं। वे हजारों कुष्ठ रोगियों को भला-चंगा कर चुकी हैं। उन्होंने समाज में फैली इस गलत सोच के खिलाफ अभियान चला रखा है कि कुष्ठ रोग कोई असाध्य बीमारी है और कुष्ठरोग को छूने से ही कुष्ठरोग का शिकार होना तय है। वह लोगों को उनकी देखभाल और इलाज उपलब्ध कराने के लिए प्रेरित करते हुए समझाती हैं कि अगर इस रोग का समय पर इलाज हो जाए तो शारीरिक विकृतियों से बचा जा सकता है। कुष्ठरोगी से घृणा करने और उससे दूरी बनाने की सोच भी निराधार और अनुचित है। देशभर के कुष्ठरोगियों को बेहतर इलाज की सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए त्वचा रोग विशेषज्ञ डॉ. रेणुका रामकृष्णन एक चिकित्सालय प्रारंभ करना चाहती हैं। उनकी बस यही चाहत है कि समाज की उपेक्षा का शिकार होते चले आ रहे कुष्ठरोगियों की सेवा, देखभाल कर उन्हें पूरी तरह से रोग मुक्त किया जाए ताकि वे स्वस्थ और आत्मनिर्भर होकर सम्मानित जीवन जी पाएं।

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