Thursday, May 9, 2019

चांदनी चौक बोल रहा है...

दिल्ली मुझे हमेशा लुभाती रही है। इसलिए नहीं कि देश की राजधानी है। दिल्ली में मुझे संपूर्ण भारत की तस्वीर नज़र आती है। देश का यह इकलौता महानगर है जहां पूरा भारत बसा हुआ है। पुरानी दिल्ली के बीचों-बीच बसा चांदनी चौक तो बेमिसाल है। भीड भरे बाजारों, संकरी गलियों और कई ऐतिहासिक धरोहरों से घिरे चांदनी चौक में स्थित गुरुद्वारा शीशगंज साहिब मुझ जैसे नास्तिकों को भी आत्मिक सुख और सुकून की मधुर धारा की तरफ बहाकर ले जाता है। इस गुरुद्वारे के इतिहास में कई देशभक्तों की कुर्बानियों की दास्तानें दर्ज हैं। चांदनी चौक के निकट ही स्थित है १७वीं शताब्दी में निर्मित भारत की सबसे बडी मस्जिद, जामा मस्जिद जो कि लाल और संगमरमर के पत्थरों से बनी है। इसकी ऊंची-ऊंची मीनारें दर्शनीय हैं। देश और विदेश के असंख्य लोग यहां पर इबादत के लिए आते हैं और कई अविस्मरणीय यादें अपने साथ ले जाते हैं। चांदनी चौक से ज्यादा दूर नहीं है लाल बलुआ पत्थरों से निर्मित आलीशान लाल किला, जिसे पांचवें मुगल बादशाह शाहजहां ने बनवाया था। हर वर्ष स्वतंत्रता दिवस पर हिन्दुस्तान के प्रधानमंत्री इसी लाल किला पर झंडा फहराते हैं और देश को संबोधित करते हैं। चांदनी चौक के बाजार भी बेमिसाल हैं, जहां पर हर समय दौड लगाती भीड नजर आती है। मसालों, मेवों, सोने-चांदी के गहनों, तरह-तरह के कपडों की दुकानों की यहां जहां भरमार है वहीं पारंपरिक मिठाई की दुकानें भी चांदनी चौक की मधुर पहचान हैं। यह कहना गलत नहीं कि चांदनी चौक में जहां-तहां मिठास बिखरी नज़र आती है। चांदनी चौक को सभी धर्मों का संगमस्थल भी कहा जाता है। इस बार की यात्रा में चांदनी चौक कुछ बदला-बदला-सा लगा। एक वर्षों पुरानी मिठाई की दुकान के काउंटर से लगी दीवार पर लगे पोस्टर पर दर्ज इन शब्दों को मैं बार-बार पढता और सोचता रहा :
"अफसोस इस बात का नहीं कि धर्म का धंधा हो रहा है,
साहेब अफसोस तो इस बात का है कि पढा-लिखा भी अंधा हो रहा है।"

मेरा मन हुआ कि दुकान के मालिक से इस पोस्टर को लगाने की वजह पूछूं, लेकिन फिर मन में विचार आया कि यह दर्द तो हर उस भारतवासी का है जो अमन-चैन का पक्षधर है। चांदनी चौक में एक संकरी-सी गली में रहने वाली शगुफ्ता परवीन, जो कि एक सरकारी स्कूल में प्रिंसिपल हैं, ने शिकायती लहजे में अपनी चिंता और गुस्सा व्यक्त किया :
"आज जो बात मुझे सबसे ज्यादा परेशान करती है, वह है दिलों को बांटने वाली राजनीति। चांदनी चौक की अपनी पहचान रही है, जहां के लोग बिना किसी भेदभाव के बडी आत्मीयता के साथ सभी एक दूसरे से मिलते और बतियाते हैं। इस प्यार भरे माहौल को खात्मा करने की कोशिशें हो रही हैं। कुछ राजनेता बार-बार पुराने जख्म ताजा करने में लगे हैं। १९४७ वाली तल्खियां, जिन्हें बुरा सपना मानते हुए भूल जाना चाहिए था, वो फिर उभर रही हैं, उभारी जा रही हैं।
खुले विचारों वाली शगुफ्ता हैरान हैं कि इस बार के लोकसभा चुनाव में जरूरी मुद्दे ही गायब हैं। दिल्ली को ही देख लो...। यहां पर प्रति पांच व्यक्तियों में से तीन व्यक्ति बेघर हैं, जिन्हें रेलवे स्टेशनों, फुटपाथों, मंदिरों, बस अड्डों और जाने कहां-कहां पर अपनी रातें गुजारनी पडती हैं। तेज गर्मी, बरसात और ठंड में प्रतिवर्ष सैकडों लोग बेमौत मर जाते हैं। राजधानी में जहां देखो वहीं गुंडागर्दी और अपराध बढ रहे हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री तक को बेखौफ होकर पीट दिया जाता है। महिलाएं खुद को पूरी तरह से असुरक्षित पाती हैं। बेरोजगार युवकों की लंबी कतारें किसी को नजर नहीं आतीं। रोटी, कपडा और मकान हर इंसान की पहली जरूरत है, लेकिन इन समस्याओं को हल करने की कोई बात नहीं करता। लोगों को बांटने में ही पूरी ताकत लगायी जा रही है। इन नेताओं को अब कौन समझाये कि इंसानियत से बडा कोई धर्म नहीं, कोई जाति नहीं। मैं जब इंसानियत को मरता देखती हूं तो बहुत दुख होता है। समझदार समझे जानेवाले लोगों को भी वैमनस्य के बोल बोलते देख दंग रह जाती हूं। मुझे इस बात का गर्व भी है कि हम जिन चांदनी चौक की गलियों में रहते हैं वो तंग भले हैं, लेकिन यहां पर हिन्दू और मुसलमान अपनी ईद और दिवाली मिल-जुलकर मनाते हैं।"
पराठे वाली गली में रहने वाले साठ वर्षीय पत्रकार मित्र श्याम बिहारी भारतीय न्यूज चैनलों के पक्षपाती रवैये से इस कदर व्यथित हैं कि उन्होंने खुद के टीवी को अपने गरीब पडोसी को उपहार में दे दिया है। चांदनी चौक की सर्वधर्म समभाव की आबोहवा में तेजी से फैलाये जा रहे विष और वैमनस्य ने उनकी भी नींद उडा दी है। वे कहते हैं कि न्यूज चैनलों पर ऐसे पत्रकार, संपादक, एंकर कब्जा जमा चुके हैं जो कि घोर पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं। उन्हें गडे मुर्दे उखाडने में मज़ा आता है। हिन्दू-मुस्लिम के बीच सांप्रदायिक नफरत के बीज बोने के मामले में तो इन्होंने खुद को इतना नीचे गिरा दिया है कि पत्रकारिता ही शर्मसार है। जिस तरह से कई राजनेता राजनीति के डाकू हैं वैसे ही यह लोग पत्रकारिता के डकैत हैं।
लाल किले में भ्रमण के दौरान एक ऐसे शख्स से मिलना हुआ जिसका नाम मलखान सिंह है। यह इंसान कभी खूंखार डकैत था। अनेकों हत्याएं, डकैतियां, लूटमार और अपहरणों को अंजाम दे चुके इस डरावने इंसान की पहचान में तब तब्दीली आ गई जब उसने १९८२ में मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के समक्ष आत्मसमर्पण किया था। सत्तर के दशक में उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में खौफ का पर्याय रहा यह पूर्व डकैत भी लोकसभा चुनाव लड रहा है। ७६ साल के इस पूर्व डकैत को समाजवादी मुलायम सिंह के भाई शिवपाल यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी : लोहिया ने चुनावी टिकट देकर अपनी किस्मत आजमाने का मौका दिया है। हमने जब उनसे पूछा कि आप क्या सोच कर चुनाव लड रहे हैं, उनका जवाब था कि आप जो मेरे बारे में सोचते हैं वो पूरी तरह से गलत है। मैं डकैत नहीं, बागी था, जिसने आत्मसम्मान और आत्मरक्षा के लिए बंदूक उठाई थी। मेरे चुनाव लडने का एक ही मकसद है, लोगों को न्याय दिलाना। किसी के साथ बेइंसाफी न होने पाए और हर देशवासी बेखौफ होकर जिए यही मैं चाहता हूं। मुझे अच्छी तरह से पता है कि असली डकैत कौन हैं, जो देश को वर्षों से ठगते और लूटते चले आ रहे हैं। उनसे कैसे निपटना है यह भी मुझे अच्छी तरह से पता है।

No comments:

Post a Comment