Thursday, June 27, 2019

असहायों की मददगार

तकलीफें और परेशानियां तो हर इंसान के हिस्से में आती हैं। हादसे और दुर्घटनाएं हंसते-खेलते इंसान के जीवन के उजाले को घने अंधेरे में बदल देती हैं। ऐसे लोग भी हैं जो समस्याओं के चक्रव्यूह से बाहर निकल कर दूसरों के अंधेरों को दूर करने में लगे हैं। खुद विकलांग होने के बावजूद भी असंख्य विकलांगों का सहारा बने हुए हैं। हमारी ही दुनिया में ऐसे संवेदनशील लोग भी हैं, जिनसे गरीबी, अशिक्षा, भुखमरी और बेरोजगारी नहीं देखी जाती। अशिक्षित गरीब माता-पिता के बच्चों का भटकाव और अंधकारमय भविष्य उन्हें विचलित कर देता है। प्रीति श्रीनिवासन की उम्र तब १८ साल की थी जब एक दुर्घटना ने उनको आसमान से जमीन पर लाकर पटक दिया। हंसी-खुशी और उमंगों के दिन अंधेरी रातों में तब्दील हो गये। कुशल तैराक प्रीति उस दिन अपनी क्लास के दोस्तों के साथ स्विqमग पूल में खूब मस्ती के मूड में थी। इसी दौरान अचानक प्रीति ने पानी में करंट-सा महसूस किया। उसने बाहर निकलने की सोची, लेकिन तभी उसने महसूस किया कि उसके शरीर का निचला हिस्सा एकदम सुन्न हो गया है। सहेलियों ने फौरन उसे पानी से बाहर निकाला। प्रीति का शरीर तो जैसे पत्थर हो चुका था। पूरी तरह से अचेतन। उन्हें पॉन्डिचेरी अस्पताल पहुंचाया गया। अस्पताल के डॉक्टरों को मामला काफी गंभीर लगा। उन्होंने आधा-अधूरा इलाज कर प्रीति को आगे के इलाज के लिए चेन्नै भेज दिया। वहां तक पहुंचने में ही चार घण्टे लग गये। सघन जांच की गयी तो पता चला कि वह गंभीर लकवे का शिकार हो चुकी है। पूरी तरह से ठीक होने की दूर-दूर तक सम्भावना नहीं थी। अगर फौरन सही इलाज मिल जाता तो उनकी ऐसी हालत न होती। अंडर १९ क्रिकेट की कैप्टन रही प्रीति ने अपनी जिन्दगी का हर पल हंसते-खेलते बिताया था। इस हादसे के बाद तो उन्हें अपना भविष्य ही अंधकारमय लगने लगा। कुछ महीने अस्पताल में बिताने के बाद वह अपने घर लौटी। लकवा उम्र भर का साथी बन चुका था। बिस्तर पर लेटे-लेटे वह आंसू बहाती रहती। व्हीलचेयर पर बैठती तो मन-मस्तिस्क में आत्महत्या करने के विचार हावी हो जाते। घर से बाहर निकलने की तो कभी इच्छा ही नहीं होती। ऐसा लगता जैसे सबकुछ लुट गया है। प्रीति के माता-पिता किसी भी तरह से उसे हताशा और निराशा के भंवर से बाहर निकलते देखना चाहते थे। उन्होंने अपने दिन और रात बेटी पर कुर्बान कर दिये। उन्होंने बार-बार उसे याद दिलाया कि खिलाडी कभी भी हार नहीं माना करते। मैदान में सतत डटे रहते हैं। हमारी इसी दुनिया में कई विकलांगों ने ऐसी-ऐसी उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल की हैं, जो अच्छे भले शरीरधारी भी हासिल नहीं कर पाते। शरीर के किसी हिस्से के निष्क्रिय हो जाने से हौसलों और सपनों की मौत नहीं होती। जब तक सांस है, तब तक आस है। यह माता-पिता की सकारात्मक सीख का ही परिणाम था कि प्रीति ने लकवाग्रस्त होते हुए भी खुद को विकलांगों की सहायता तथा देखरेख में झोंक दिया। यह कहना गलत नहीं होगा कि ११ जुलाई १९९८ में हुए हादसे ने प्रीति की सोच और जिन्दगी को ही बदल दिया। वह एक एनजीओ चलाती हैं जो विकलांगों को उत्साहित और प्रोत्साहित कर फिर से पूरे आत्मविश्वास के साथ जीवन की जंग लडने को प्रेरित करता है। लकवा के शिकार मरीजों को रहने की सुविधा के साथ-साथ आर्थिक सहायता उपलब्ध करायी जाती है। वे दूसरों पर आश्रित न रहें इसके लिए उन्हें अपने पैरों पर खडे होने के लायक बनाया जाता है। प्रीति के कारण सैकडों विकलांगों की खोयी हुई खुशियां वापस लौट आयी हैं। उनके एनजीओ के द्वारा दिव्यांगों की प्रतिभा को सामने लाने के लिए कई तरह के कार्यक्रम भी आयोजित किये जाते हैं। उन्हें रेडियो जॉकी, वाइस डबिंग आर्टिस्ट, टेली मार्केटिंग आदि की ट्रेनिंग भी दी जाती है, जिनका रुझान किसी अन्य क्षेत्र के प्रति होता है उन्हें उसी के बारे में शिक्षित और दीक्षित किया जाता है।
अपना भविष्य संवारने के लिए भरपूर मेहनत करने वाले तो ढेरों हैं, लेकिन दूसरों की जिन्दगी में परिवर्तन और खुशहाली लाने वाले गिने-चुने ही लोग हैं। उन्हीं में से एक हैं माही भजनी। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में रहती हैं। गरीब बच्चों के कल्याण के लिए वर्षों से काम कर रही हैं। माही भजनी ने अपने कुछ साथियों के सहयोग से अनुनन एजुकेशन एवं वेलफेयर सोसाइटी बनाई है, जिसके तहत भोपाल और आसपास के इलाकों में सेंटर खोले गये हैं, जहां पर गरीब बेसहारा बच्चों को शिक्षा दी जाती है। इनमें से कुछ बच्चे ऐसे भी हैं जो कभी भीख मांगा करते थे। बात करने में सकुचाते और घबराते थे और आज फर्राटे के साथ अंग्रेजी बोलते हैं। सैकडों बच्चों का जीवन संवार चुकी माही को शुरुआती दिनों में काफी परेशानियां झेलनी पडीं। झोपडपट्टी में रहने वाले बच्चों और उनके परिवारों को शिक्षा के लिए तैयार करना आसान नहीं था। यह बच्चे कचरा बीनते थे। चोरी-चकारी भी करते थे। इन्हीं बच्चों की कमायी से कई घरों में का चूल्हा जलता था। अशिक्षित मां-बाप कतई नहीं चाहते थे कि उनके बच्चे कमाना छोड दें। यह उनकी मजबूरी भी थी। कई शराबी पिता तो अपने बच्चों को अपराध की दुनिया में धकेलने के मंसूबे बना चुके थे। बच्चों को भी आवारागर्दी करने की लत लग चुकी थी। ऐसे में उन्हें पढाई-लिखाई से कोई लगाव नहीं था। वे भी अपने माता-पिता की तरह अशिक्षा और गरीबी के दलदल में ताउम्र फंसे रह जाते। यदि माही येन-केन प्रकारेण उनके मां-बाप को उनके बच्चों को पढाने-लिखाने के लिए तैयार करने में सफल नहीं होती। माही को वो शुरुआती दिन भी भुलाये नहीं भूलते जब उनके पडोसी और जान पहचान वाले उनपर शब्दबाणों की वर्षा करते रहते थे कि तुम भी कैसी बेवकूफ हो जिसे यह भी समझ में नहीं आता कि भिखारी हमेशा भिखारी रहते हैं। झुग्गी-झोपडी में जानवरों की तरह रहने वाले निकम्मे और अपराधी किस्म के माता-पिता के बच्चे होश संभालने के बाद सिर्फ और सिर्फ चोर-लुटेरे, जेबकतरे, हत्यारे और बलात्कारी ही बनते हैं। यही इनका नसीब होता है। भगवान के लिखे को कोई भी नहीं बदल सकता। अभी भी वक्त है अपना इरादा बदल डालो। अपना कीमती वक्त इन पर  बर्बाद मत करो। अपने बाल-बच्चों के भविष्य की चिन्ता करो। अपने इरादों की पक्की माही ने अंतत: असंभव को संभव कर दिखाया है। कल तक ताने मारने वाले आज उन्हें सराहने लगे हैं। तारीफें करते नहीं थकते। दरअसल इस सफलता का श्रेय तो उन बच्चों को भी जाता है, जिन्हें नाली का कीडा कहकर दुत्कारा जाता था, लेकिन उन्होंने दिखा दिया है कि अवसर और साथ मिलने पर वे भी आसमान को छूने का दम रखते हैं। जिन बच्चों के कभी भी नहीं सुधरने के दावे किये जाते थे, उन्हीं बच्चों के परीक्षा परिणाम और अन्य गतिविधियां वाकई स्तब्धकारी हैं। इन बच्चों ने पांचवी की परीक्षा में ९६ से ९८ प्रतिशत अंक हासिल किये हैं। अभी तक पांच सौ से ज्यादा गरीब बच्चों को स्कूल तक लाने में सफल रहीं माही भजनी की तमन्ना है कि इस देश का कोई भी बच्चा पढाई से वंचित न रहे। उन्हें साक्षर बनाना हम सबका दायित्व है।

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