Thursday, August 29, 2019

दानवीर और दानवीर

अपने देश की बात ही कुछ और है। यहां के नेता अच्छे-खासे अभिनेताओं को भी मात देते हैं। उनकी सोच, उनके इरादों को आसानी से नहीं समझा जा सकता। यहां पर छंटे हुए गुंडे-बदमाश, जन्मजात अपराधी भी नेता का मुखौटा लगाकर चुनाव जीत जाते हैं। अपने यहां की जनता भी कम भोली नहीं है। उसे जाति-धर्म का पाठ पढाकर बार-बार बेवकूफ बनाना बडा आसान है। यही दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश भारतवर्ष की पहचान है। कई नकाबपोश विधायक, सांसद और मंत्री बनने में कामयाब होते चले आ रहे हैं। उनके मायावी भाषणों का जादू आज भी मतदाताओं को मदमस्त कर देता है। एक जादूगर के द्वारा पिलायी गई शाब्दिक शराब का नशा जब तक टूटता है, तब तक कोई दूसरा नया महाजादूगर जनता की आखों में धूल झोंकने के करतब दिखाने के लिए मंच पर विराजमान हो जाता है। हिन्दुस्तान के नब्बे प्रतिशत राजनेता चालबाजी की कलाकारी में सिद्धहस्त हैं। आजादी के बाद सत्ता का अनवरत सुख भोगने वाले राजनेताओं के इतिहास के पन्नों को सजगता और गंभीरता के साथ पढने पर हम यही पाते हैं कि सही मायने में जनसेवा करने वालों की तुलना में राजनीति को व्यापार बनाने वालों की तादाद बहुत ज्यादा है। जो ईमानदार नेता वाकई देश की तस्वीर बदलने की चाहत रखते हैं, भ्रष्टाचार का खात्मा करना चाहते हैं उनके लिए तो चुनाव जीतना भी मुश्किल हो जाता है। धनबल और तरह-तरह की अन्य तिकडमों की बदौलत चुनाव जीतने वाले खुद को खास समझते हैं। सत्ता के मद में भूल जाते हैं कि आज वे जो कुछ भी हैं, आम लोगों की बदौलत हैं। वोटरों ने बहुत उम्मीदों के साथ उन्हें इस ऊंचाई पर पहुंचाया है। उनकी तकलीफों का समाधान करना और सिर्फ और सिर्फ उन्हीं के भले के लिए कार्यरत रहना ही उनका एकमात्र फर्ज है, लेकिन सत्ता पर काबिज होते ही नेताओं को अपने बाल-बच्चे और रिश्तेदार ही सबकुछ लगने लगते हैं उन्हें, अधिक से अधिक फायदा पहुंचाने के अलावा इन्हें और कुछ सूझता ही नहीं। यह अगर कभी किसी गैर की सहायता करते भी हैं तो जोर-शोर से ढोल पिटवाते हैं। अखबारों और न्यूज चैनलों के जरिए दिन-रात अपनी दानवीरता का प्रचार करवाते हैं। यह शूरवीर नेता, मंत्री बडे-बडे मंचों पर खडे होकर हजारों लोगों के सामने अक्सर जब दो-तीन हृदय और कैंसर रोगियों को इलाज के लिए सरकारी चेक थमाते हैं, तो इनका तना हुआ सीना देखते ही बनता है। लोगों में यह भ्रम भी बनाया जाता है कि उनसे बडा दानवीर इस देश में और कोई है ही नहीं। उन्होंने अभी तक कितने 'बीमारों' के इलाज के लिए ऐसे चेक प्रदान किये हैं इसका भी पूरा लेखाजोखा मंच पर खडा उनका सिखाया पढाया चेला फौरन प्रस्तुत कर देता है, जिससे जबर्दस्त तालियां बजती हैं। ऐसे नेताओं की भीड में पूर्व वित्तमंत्री अरुण जेटली ऐसे महापुरुष थे, जिन्होंने अपनी एक अलग राह चुनी। अपने जीवनकाल में कई जरूरतमंदों की अपनी कमायी से सहायता की, लेकिन किसी को खबर नहीं लगने दी। जिस स्कूल में उनके बच्चों ने पढाई की उसी स्कूल में उन्होंने अपने ड्राइवर और निजी स्टाफ के बच्चों को पढाया। दरअसल वे अपने सहयोगियों और निजी स्टाफ को अपने परिवार का ही हिस्सा मानते थे। उन्हें अपने किसी कर्मचारी के बच्चे में प्रतिभा नज़र आती तो वे उसे अच्छे से अच्छे विद्यालय में पढने के लिए भेजने की व्यवस्था करने में जरा भी देरी नहीं लगाते थे। यहां तक कि विदेश में पढने के लिए भी भेज देते थे। कुछ सहयोगी तो ऐसे हैं, जो जेटली के परिवार से दो-तीन दशक से जुडे हुए हैं। इनमें से तीन के बच्चे अभी भी विदेश में शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। उनके यहां के रसोइये की बेटी लंदन में अध्ययनरत है। उनके यहां कार्यरत कई कर्मचारियों के बच्चे डॉक्टर, इंजीनियर, कलेक्टर, पुलिस अधिकारी, वकील आदि बनकर देश की सेवा कर रहे हैं। अपने सहयोगियों के बच्चों को पढाने की फीस से लेकर उनकी नौकरी तक की चिन्ता और प्रबंध करने वाले जेटली बेहद व्यस्तता के बावजूद भी जिस तरह से अपने बच्चों पर नज़र रखते थे वैसे ही अपने साथियों के बच्चों के प्रति फिक्रमंद थे। कोई बच्चा यदि अच्छे अंक लाता तो उसे विशेष रूप से पुरस्कृत और प्रोत्साहित करते थे। वर्ष २००५ में उन्होंने अपने एक सहयोगी के बेटे को लॉ की पढाई के दौरान अपनी ६६६६ नंबर की एसेंट कार उपहार में दी थी। जेटली उसूलों के बहुत पक्के थे। अपने बेटे और बेटी को जेब खर्च भी चेक से देते थे। अपने स्टाफ को वेतन और जो भी मदद राशि देते थे वह भी चेक से दी जाती थी। जेटली पूरी तरह से राजनीति में आने से पहले वकालत करते थे। कुशल वकील होने के कारण वकालत के क्षेत्र में उनका बडा नाम था। मोटी फीस लेते थे। इस पेशे से उन्होंने करोडों की धन-सम्पत्ति बनायी। दिल्ली में सबसे ज्यादा आयकर चुकाने वालों में शामिल रहे इस सिद्धांतवादी शख्स ने अधिकांश नेताओं की तरह राजनीति को धन कमाने का माध्यम नहीं बनाया। चार दशक से ऊपर के राजनीतिक जीवन में कभी भी उन पर भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगे। इस निष्कलंक राजनेता ने कभी भी अपने पढे-लिखे बेटे-बेटी के लिए चुनावी टिकट नहीं मांगी। अगर वे चाहते तो दोनों को आसानी से भाजपा में बहुत अच्छी जगह दिलवा सकते थे। सांसद और मंत्री भी बनवा सकते थे। अपने यहां तो अधिकतर होता ही यही है कि कोई भी नेता विधायक, सांसद, मंत्री बनते ही अपने बच्चों के भविष्य को संवारने के जोड-जुगाड में लग जाता है। इसके लिए उसे राजनीति की भूमि ब‹डी उपजाऊ नजर आती है, जहां धन पैदा करने के लिए ज्यादा मेहनत नहीं करनी पडती।  हमने कई ऐसे विधायक, सांसद, मंत्री देखे हैं, जिनमें अपनी औलादों के साथ-साथ पत्नी को भी राजनीति में उतारने का भूत सवार रहता है। अपने सपने को साकार करने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाते हैं, जिसे कोई जानता नहीं, जिसका कभी जनसेवा से नाता नहीं होता वह मंत्री की पत्नी एकाएक महिला मंचों पर मुख्य अतिथि के तौर पर नज़र आने लगती है। अखबारों में भी मुख्यपृष्ठ पर उसकी तस्वीरें छपने लगती हैं। अपनी अनपढ पत्नी को बिहार की मुख्यमंत्री बनाने का कीर्तिमान रचने वाले लालू प्रसाद यादव जैसे नेताओं की भारत में कमी नहीं है, जो हैं तो हद दर्जे के नालायक और भ्रष्टाचारी, लेकिन फिर भी चुनाव जीत जाते हैं। इतना ही नहीं अपने नशेडी सनकी बेटों को भी विधानसभा के चुनाव में जितवाकर मंत्री बनवाने में भी सफल हो जाते हैं!

No comments:

Post a Comment