Thursday, August 22, 2019

नई पहल के नायक

अपने देश के आमजनों की दरियादिली बेमिसाल है। वे दूसरों की सहायता करने को हमेशा तत्पर रहते हैं। उनका मकसद ही खुशियां बिखेरना है। जिन कर्तव्यों और कार्यों को सत्ताधीश विस्मृत कर देते हैं उन्हें यह जागृत भारतवासी सफलतापूर्वक कर दिखाते हैं। इन्हें न तो किसी प्रचार की भूख है और ना ही पुरुस्कार की चाह। दरअसल, यही लोग हिन्दुस्तान की असली पहचान हैं, जिनमें हमदर्दी कूट-कूट कर भरी है और स्वार्थ से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। अभी तक आपने शहीद सैनिकों के परिवारों को पेट्रोल पम्प और जमीनें देने के आश्वासन के बाद उन्हें घनचक्कर बनाने की कई खबरें पढी-सुनी होंगी। सरहद पर जंग लडकर अपंग हो जाने वाले सैनिक के साथ धोखाधडी की खबरें भी पढी होंगी और यह भी पढा-सुना होगा कि सरहद पर लडाई लडने के बाद अपंग हुए कई पूर्व सैनिक रिक्शा चला रहे हैं, चाय-पान के ठेले लगा कर अपने परिवार का भरण पोषण कर रहे हैं। सरकार ने उनसे जो सहायता के वायदे किये थे, उन्हें पूरा ही नहीं किया गया है। यह खबर... यह हकीकत यकीनन देश के झूठे, लफ्फाज और अहसानफरामोश राजनेताओं और सत्ताधीशों के मुंह पर झन्नाटेदार तमाचा ही है :
मध्यप्रदेश के इंदौर जिले के बेटमा गांव में रहने वाले मोहन सिंह सुनेर वर्ष १९९२ में त्रिपुरा में उग्रवादियों से लडते हुए शहीद हो गये थे। तब उनका बडा बेटा तीन वर्ष का था और पत्नी गर्भवती थी। शहीद की पत्नी राजूबाई ने एक छोटी-सी झोपडी में रहकर मेहनत मजदूरी करते हुए अपने दो बच्चों का लालन-पालन किया। जब मोहनलाल शहीद हुए थे तब देश भर के अखबारों में उनकी हिम्मत, साहस और त्याग की कहानियां छापी गयी थीं। सरकार ने भी उनके परिवार को हर तरह की सहायता देने का ऐलान किया था, लेकिन २७ साल बीत जाने के बाद भी सरकार ने उनकी पत्नी और बच्चों की कोई सुध नहीं ली। शहीद के गांव के सतर्क युवाओं को सरकार का यह शर्मनाक रवैया बहुत कचोटता था। ऐसे में उन्होंने अपने दम पर शहीद की पत्नी की सहायता करने की ठानी। उन्होंने टूटी-फूटी झोपडी में वर्षों से रह रहे शहीद परिवार को पक्का मकान उपहार में देने के लिए विभिन्न शहरों, गांव के लोगों से चंदे के जरिए ११ लाख रुपये जुटाये और १५ अगस्त २०१९ यानी स्वतंत्रता और रक्षाबंधन के दिन शहीद परिवार को एक मकान भेंट किया, जिसकी १० लाख लागत आई...। बाकी बचे एक लाख रुपये शहीद की पत्नी को दे दिए। इन सच्चे देशप्रेमी युवाओं ने शहीद की उम्रदराज हो चुकी पत्नी से राखी बंधवाई और उसके बाद अपनी हथेलियां जमीन पर रखकर उनके ऊपर से गृह प्रवेश करवाया।
देश में अधिकांश पुलिस वालों के प्रति लोगों की राय अच्छी नहीं है। ऐसा उनके काम करने के तरीकों के कारण है। उनके कटु व्यवहार और संवेदनशीलता की कमी की वजह से है। अरुप मुखर्जी पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले के मूल निवासी हैं। पुलिस विभाग में कार्यरत हैं। आदिवासियों के बच्चे उनको बडे आदर के साथ 'पुलिस वाला बाबा' कहकर बुलाते हैं। इस पुलिसवाला बाबा ने सबर आदिवासियों के जीवन में परिवर्तन लाने का अभियान चला रखा है। ध्यान रहे कि सबर दलित जनजाति है, जिन्हें आपराधिक जनजाति अधिनियम १९७१ के तहत अंग्रेजों ने आपराधिक जनजाति घोषित कर दिया था। देश के प्रदेश छत्तीसगढ, मध्यप्रदेश, झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल के कुछ हिस्सों में यह सबर आदिवासी रहते हैं। अरुप मुखर्जी को बचपन में सबर आदिवासियों के बारे में अक्सर सुनने को मिलता था कि यह लोग चोरी-डकैती कर अपना घर-परिवार चलाते हैं। कई लोग तो नक्सली आंदोलन से भी जुडे हैं। उनके अपराध में लिप्त रहने की प्रमुख वजह रही अशिक्षा और गरीबी। तब अरुप की दादी अक्सर रात को छुपते-छुपाते सबर समुदाय के लोगों के घरों में जाकर उन्हें खाने-पीने का सामान पहुंचाया करती थीं। अरुप के मन में तब विचार आता था कि अगर यह लोग पढ लिख जाएं तो इनमें काफी बदलाव और सुधार आ सकता है। गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी ही इन्हें चोर, डाकू बनने को मजबूर करती है। बच्चों को भी बडों का अनुसरण करने को विवश होना पडता है। अरुप ने पढाई के दौरान आदिवासियों के बच्चों को शिक्षित कर उनके भविष्य को संवारने का जो सपना देखा था, पुलिस की नौकरी लगते ही उसे साकार करने में जरा भी देरी नहीं लगायी। उन्होंने जब कुछ लोगों के समक्ष सबर दलित जनजाति के बच्चों के लिए स्कूल खोलने का अपना इरादा व्यक्त किया तो उनकी हंसी उडायी गयी। यह संकीर्ण मनोवृत्ति के लोग कतई नहीं चाहते थे कि आदिवासी बच्चे शिक्षित होकर अपना भविष्य उज्ज्वल करने में सफल हों, लेकिन पूंचा गांव के एक उदार शख्स, जिनका नाम खिरोदासी मुखर्जी है, ने खुशी-खुशी स्कूल बनाने के लिए मुफ्त में अपनी जमीन दे दी। स्कूल का उद्घाटन एक सबर बच्चे से करवाया गया। प्रारंभ काल में स्कूल में मात्र एक बरामदा और दो कमरे थे, जहां बीस छात्र-छात्राएं बैठ पाते थे, लेकिन अब काफी विस्तार हो चुका है। स्कूल में नौ कमरे हैं। सीसीटीवी कैमरे लगा दिये गये हैं। स्कूल में बच्चों के रहने-खाने-पीने की निशुल्क व्यवस्था है। भोजन, कपडे और शिक्षण सामग्री के लिए भी एक पैसा नहीं लिया जाता। कालांतर में कुछ जागरूक लोगों ने हर महीने मदद करनी प्रारंभ कर दी। स्वयं अरुप भी अपनी तनख्वाह का अधिकांश हिस्सा स्कूल के लिए खर्च कर देते हैं। बीते वर्ष एक लडकी ने बहुत अच्छे नंबरों के साथ मेट्रिक की परीक्षा पास की तो उनसे दूरी बनाने वाले भी चकित रह गये। सर्वत्र खुशी का माहौल था। जो माता-पिता अपने बच्चों को स्कूल भेजने से कतराते थे उन्होंने भी खुशी-खुशी अपने बच्चों को पढने के लिए स्कूल भेजना प्रारंभ कर दिया है। आदिवासी बच्चों को अपराध के रास्ते पर जाने से रोकते हुए उनके हाथों में किताबें थमाने वाले इस खाकी वर्दीधारी का कहना है कि मुझे इस समुदाय के बच्चों को शिक्षा दिलाने के लिए ही ईश्वर ने इस धरती पर भेजा है। मैं इन्हें भूख से मरने नहीं देना चाहता और न ही अपराध के मार्ग पर चलते देखना चाहता हूं। एक काबिलेगौर सच यह भी...। आप और हम अक्सर अखबारों में पढते रहते हैं कि कहीं चोरी-डकैती, हत्या या और कोई जघन्य अपराध होने के बाद शहर अथवा ग्रामों की पुलिस सबसे पहले उन गुंडे बदमाशों पर ध्यान केंद्रित करती है जो कुख्यात अपराधी होते हैं। कभी-कभी तो कुछ को शंका के चलते गिरफ्तार भी कर लिया जाता है। कुछ वर्ष पूर्व ऐसा ही होता था सबर आदिवासियों के साथ। जब गांव में इनके बच्चों को पढाने-लिखाने के लिए स्कूल नहीं खुला था तब जिले में कहीं भी चोरी, लूट या डकैती होती तो सबर समुदाय के लोगों की पकडा-धकडी शुरू हो जाती थी। कई बार निरपराध होने पर भी उन्हें पुलिसिया डंडों का शिकार होना पडता था। अब जबसे उनके बच्चे बडे उत्साह के साथ स्कूल जाने लगे हैं तो उनके पालकों में भी सुधार आया है। उनकी सोच बदली है। अपराध करने की बजाय मेहनत-मजदूरी करने लगे हैं। पुलिस के साथ-साथ लोगों की सोच में भी इन आदिवासियों के प्रति काफी बदलाव आया है।

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