Thursday, August 8, 2019

जुडाव और अलगाव के बीच

चित्र - १ : तमिलनाडु का मदुरई शहर। हर शहर की तरह मदुरई के भी कई रंग हैं। अथाह अमीरी की चमक देखते बनती है, तो गरीबी भी बेइन्तहा है, जो किसी भी भावुक, संवेदनशील और चिन्तनशील इनसान की नींद उ‹डा देती है। वैसे भी शहरों में अधिकांश लोग अपनी समस्याओं के चक्रव्यूह में कैद रहते हैं। आसपास कौन रह रहा है, कैसे रह रहा है, क्या हो रहा है, इसकी उन्हें खबर नहीं रहती। अपनों से मिलने-मिलाने का वक्त भी कम मिल पाता है। ऐसे में किसे पडी है, जो उन असहाय गरीबों की तरफ देखे, जो नगरों, महानगरों में कीडे-मकोडों की तरह रहते हैं। दो वक्त की रोटी उनके लिए सपना है। अंधी बेरहम भूख कभी भी उन पर मौत बनकर टूट पडती है। उनकी मौत की खबर किसी अखबार में नहीं छपती। शासन और प्रशासन के बही-खाते में उनका नाम ही दर्ज नहीं रहता। इसी मदुरई में एक दिन नारायण कृष्णन घूमने के लिए निकले। उनकी नज़र कुछ विक्षिप्त लोगों पर पडी जो कूडेदान में फेंका गया खाना निकालकर खा रहे थे। युवा नारायण यह दृश्य देखकर दंग रह गये। उन्होंने कभी कल्पना नहीं की थी कि इनसानों को जानवरों की तरह कचरे में फेंका गया भोजन खाना पडता होगा। खडे-खडे काफी देर तक सोचते रहे...। यह कैसी दुनिया है, जहां पर इनसानों को भोजन तक नसीब नहीं है? उन्होंने वहीं खडे-खडे निर्णय कर डाला कि वे बेसहारा लोगों की भूख मिटाने के लिए अपनी पूरी जिन्दगी और ताकत लगा देंगे। घर में माता-पिता नारायण का बेसब्री से इन्तजार कर रहे थे। नारायण को उदास और परेशान देखकर पिता से रहा नहीं गया। पूछने पर नारायण ने अपने इरादे के बारे में उन्हें अवगत करा दिया। पिता के लिए यह निर्णय किसी बम फटने जैसा था। जिस बेटे को स्विटजरलैंड के पांच सितारा होटल में अच्छी-खासी नौकरी मिली है और दो दिन बाद जाने की टिकट भी कट चुकी है, वह गरीब और बेसहारा लोगों को भोजन उपलब्ध कराने के लिए लाखों की तनख्वाह वाली नौकरी को लात मारने की ठान चुका है! बेटे के इस फैसले से पिता तो गुस्से से आग-बबूला हो गये। मां अगर नहीं रोकती तो वे दो-चार थप्पड भी जड देते। पिता का कहना था कि शहर में हजारों गरीब ऐसे हैं जो हर रात भूखे सोने को विवश हैं। तुम अकेले किस-किस का सहारा बनोगे? नारायण ने पिता के समक्ष नतमस्तक होते हुए कहा, "मैं विदेश जाकर भी चैन से जी नहीं पाऊंगा। मेरा आपसे निवेदन है कि मुझे मेरे मन की कर लेने दीजिए।" पिता फिर भी नहीं माने। उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि वे उसकी कोई मदद नहीं करेंगे। जिस समस्या का समाधान शासन और प्रशासन नहीं कर पाता उसे यह बेवकूफ करने चला है। दो-चार दिन में ही भूखों की लम्बी कतारें देखकर होश ठिकाने आ जाएंगे।
नारायण कृष्णन को खुद पर यकीन था। उनके पास तब डेढ-दो लाख रुपये थे। नारायण ने शहर के भोजनालय से खाना खरीद कर विक्षिप्तों और ऐसे अपंगों को खिलाने की शुरुआत कर दी, जो काम करने में असमर्थ थे। यह लगभग दस वर्ष पूर्व की बात है। कृष्णन के इस अभूतपूर्व सेवा कार्य की शहर में चर्चाएं होने लगीं। जहां-तहां सराहना होने लगी। लोग जानने-पहचानने लगे, लेकिन इधर उनकी आर्थिक स्थिति डगमगाने लगी। वर्षों से यह कहा और माना जाता रहा है कि जहां चाह होती है, वहां राह भी निकल ही आती है। पिता ने जब बेटे की तारीफें सुनीं तो वे नाराजगी को भूलकर आर्थिक सहायता करने लगे। उनकी देखादेखी उनके मित्रों ने भी दिल खोलकर धन देना प्रारंभ कर दिया। फिर तो देखते ही देखते नारायण के साथ कई लोग जुडते चले गये। अब खाना भोजनालय से खरीदने की बजाय घर में ही बनाने का निर्णय लिया गया। माता-पिता ने पुराने मकान की जगह इस्तेमाल करने के लिए दे दी।
कृष्णन अपने साथियों के साथ रोज सुबह चार बजे उठकर खाना बनाते हैं, जिसे वैन के जरिए बीमारों, अपंगों, बेघरों, बेसहारा और विक्षिप्तों को बडे आदर और स्नेह से खिलाया जाता है। बेसहारा लोगों की भूख मिटाने के इस सद्कार्य ने कृष्णन को सच्चे समाजसेवक की ख्याति दिला दी है। कृष्णन को कई सामाजिक संस्थाओं के द्वारा पुरस्कृत भी किया जा चुका है। कृष्णन ने अपने साथियों के साथ एकजुट होकर 'अक्षय ट्रस्ट' नाम की संस्था बनाई है। जिसे खुले हाथों सहयोग देने वालों की अच्छी खासी तादाद है। मदुरई के करीब दो सौ किलोमीटर के दायरे में जरूरतमंदों को नियमित खाना उपलब्ध कराने वाले कृष्णन कभी भी इस सोच के गुलाम नहीं हुए कि सामने जो भूखा इनसान है, वह हिन्दू, मुस्लिम या सिख, ईसाई है। वे कहते हैं कि भूख का कोई धर्म नहीं होता और इन्सानियत से बडा तो कोई धर्म हो ही नहीं सकता।
चित्र - २ : मध्यप्रदेश के जबलपुर निवासी अमित ने जोमैटो से खाना मंगवाया। जब उसने देखा कि खाना लाने वाला डिलिवरी ब्वॉय दूसरे धर्म का है तो उसने खाना लेने से मना कर दिया। उसने कंपनी से दूसरे लडके को खाना लेकर भेजने को कहा। कंपनी ने दूसरा डिलिवरी ब्वॉय भेजने से सरासर इनकार कर दिया और उसे फटकार भी लगायी। खुरापाती दिमागधारी अमित ने किसी जंग में विजयी योद्धा की तरह ट्वीट किया, "अभी-अभी मैंने एक आर्डर रद्द किया है। उन्होंने मेरा खाना गैर-हिन्दू के हाथ भेजा था। वे इसे न तो बदल सकते हैं और न ही पैसा वापस कर सकते हैं। मैंने कहा कि आप मुझे खाना लेने के लिए मजबूर नहीं कर सकते। मुझे पैसा वापस नहीं चाहिए, आर्डर रद्द करो।" अगर गौर से सोचें तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह शख्स धन के अभिमान के नशे में चूर है, जो मेहनतकश इनसान में हिन्दू, मुसलमान देखता है। ऐसे लोग यहां भी हैं, वहां भी हैं, इधर भी हैं, उधर भी हैं, जो अलगाव और कट्टरवाद के विष बीज बो कर आनंदित होते हैं। ऐसे बददिमाग हुडदंगियों की शिनाख्त करना कोई मुश्किल काम नहीं है। इनकी हरकतें ही इन्हें बेपर्दा कर देती हैं। खाना लाने वाले लडके के धर्म को निशाना बनाकर उसे अपमानित करने वाले इस घटिया इनसान को सजग भारतीयों ने जिस तरह से जीभरकर लताडा और दुत्कारा उससे उसे और उस जैसे सभी अक्ल के अंधो को सतर्क हो जाना चाहिए। चंद लोग भले ही वाहवाही करते नजर आते हों, लेकिन अधिकांश भारतवासी ऐसे घटिया बर्ताव और अमानवीय सोच के पक्षधर कतई नहीं हैं...।

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