Thursday, October 10, 2019

ऐसे होते हैं जननायक

आजकल मोटिवेशनल स्पीच देने वाले का जबर्दस्त बोलबाला है। पिछले कुछ साल से तो इनकी खूब चांदी कट रही है। महानगरों में तो लोग इन्हें सुनने के लिए तीन से पांच हजार तक के टिकट कटवा कर बडे बुलंद इरादों के साथ फाइवस्टार होटलों में आयोजित होने वाले कार्यकर्मों में अपने इष्ट मित्रों के साथ पहुंचते हैं और खूब तालियां पीटते हैं। इनमें से अधिकांश नवधनाढ्य होते हैं, जिन्हें दिखावे की आदत होती है। जब मोटिवेशनल स्पीकर बुलंदियों पर पहुंचने के रास्ते बता रहा होता है तब इनका दिमाग कहीं और छलांगे लगा रहा होता है। जब दूसरे तालियां पीटते हैं तो यह भी शुरू हो जाते हैं। लोगों को जगाने और ऊर्जा का भंडार भरने का दावा करने वाले अधिकांश मोटिवेशनल स्पीकरों के पास कुछ वर्ष पहले तक खुद का स्कूटर नहीं था, आज वे महंगी से महंगी कारों की सवारी करते हैं। उन्होंने आलीशान कोठियां भी तान ली हैं। उनके बच्चे भी बढिया या से बढिया स्कूल-कॉलेज में पढ रहे हैं और सभी सुख-सुविधाओं का आनंद ले रहे हैं, लेकिन अधिकांश तालियां पीटने वाले वहीं के वहीं हैं। कुछ ही की किस्मत ने पलटी खायी है।
हम अधिकांश भारतीय बडे ही भावुक किस्म के प्राणी हैं। भेडचाल चलने में जरा भी नहीं सकुचाते। किसी भी भावनाप्रधान प्रेरक किताब, फिल्म या वीडियो को पढ व देखकर अपनी आंखें नम कर लेते हैं। खुद में फौरन बदलाव लाने की सोचने लगते हैं, लेकिन यह भाव ज्यादा देर तक नहीं टिक पाता। किताब, फिल्म, वीडियो, मोटिवेशनल स्पीकर यानी परामर्शदाता के प्रभाव का असर कुछ ही समय के बाद लगभग खत्म हो जाता है और फिर अपनी दुनिया और आदतों में रम जाते हैं। सच तो यह है कि जिनमें ज्ञान अर्जित करने की कामना होती है उन्हें यहां-वहां भटकना नहीं पडता। स्थितियां, परिस्थियां, हालात, अच्छे-बुरों का साथ भी किसी किताब, पाठशाला से कम नहीं होता। इन्सानी इच्छाशक्ति पहाड को समतल बना सकती है। रेत में भी फूल खिला सकती है। सदी के नायक अमिताभ बच्चन के 'कौन बनेगा करोडपति' कार्यक्रम में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करवा कर १ करोड रुपये की इनाम राशि जीतने वाली बबीता ताडे स्कूल में बच्चों के लिए खिचडी पकाती हैं। उनका कभी काम चलाऊ मोबाइल लेने का सपना था। एक करोड तो क्या दस-बीस हजार रुपये की कल्पना भी नहीं की थी इस जुझारू नारी ने। बस अपना कर्म करती जा रही थी। कर्मठ बबीता ने जब अपने जीवन के संघर्षों की दास्तान सुनाई तो सुनने वाले स्तब्ध रह गये। कुछ की तो आंखें ही भीग गईं। जब वे हॉट सीट पर विराजमान थीं अनेकों दर्शक प्रभु से यही प्रार्थना कर रहे थे कि वे इतनी राशि तो जीत ही जाएं, जिससे उनके दुखों और संघर्षों का अंत हो जाए। कभी महज १५०० रुपये की पगार पाने वाली बबीता आज करोडपति हैं। फिर भी इरादे में कोई बदलाव नहीं। ताउम्र बच्चों को खिचडी बनाकर खिलाते रहना चाहती हैं। अपनी जीवन यात्रा में जो थपेडे खाए और शब्द ज्ञान हासिल किया उसे इस भारतीय नारी ने कभी विस्मृत नहीं होने दिया। दिन में घर के कार्य और खिचडी बनाने के बाद रात को तानकर सोने की बजाय वे घण्टों ज्ञानवर्धक किताबे पढती थीं। जमीनी यथार्थ और किताबी ज्ञान ने उन्हें देश और दुनिया में ख्याति भी दिलायी और करोडपति भी बनाया।
सजग, सतर्क और कर्मशील मनुष्य के जीवन में कुछ ऐसी घटनाएं घटती हैं जो उसका कायाकल्प कर देती हैं। हिन्दुस्तान की राजनीति में धन का खासा महत्व है। बिना इसके चुनाव लडना काफी कठिन है। स्थापित पार्टी का टिकट पाने के लिए भी धन बल का होना जरूरी माना जाता है। यानी ऊपर से लेकर नीचे तक धन बरसाना पडता है, लेकिन कभी-कभी चमत्कार भी हो जाते हैं, जो कभी सोचा नहीं होता वो भी हो जाता है। विदर्भ के चंद्रपुर जिले के निवासी श्याम वानखेडे कांग्रेस के समर्पित कार्यकर्ता थे। मूलत: किसान। राजनीति में भी खासी अभिरुचि थी। वर्ष १९८५ का चुनावी दौर था। विधानसभा की टिकट पाने के लिए दिग्गज कांग्रेसियों में होड मची थी। सभी एक दूसरे की टांग खींचने में लगे थे। ऐसे में श्याम वानखेडे ने भी अपनी किस्मत आजमाने की सोची और दिल्ली जाने के लिए टिकट कटवा ली। कंफर्म बर्थ न मिल पाने के का द्वितीय श्रेणी के उस डिब्बे में जाकर बैठ गये, जहां कांग्रेस पार्टी के ही टिकट आकांक्षी नेता बैठे थे। रात को सभी नेता अपनी सीट पर सोने की तैयारी करने लगे। श्याम वानखेडे अखबार को फर्श पर बिछाकर सो गये। सभी ने उनकी यह कहकर खूब खिल्ली उडायी कि जब औकात नहीं है तो गाडी में सफर ही क्यों करते हो। बडा नेता बनने के लिए मालदार होना जरूरी है। तुम जैसों को अगर विधानसभा की टिकट मिलने लगी तो भगवान ही इस देश का मालिक होगा, लेकिन श्याम वानखेडे पर दिल्ली कुछ ऐसी मेहरबान हुई कि बडे नेता हाथ मलते रह गये और उन्हें टिकट मिल गई। एक साधारण कार्यकर्ता को विधानसभा की टिकट मिलने से महाराष्ट्र की राजनीति में तो हलचल मच गई। तब वानखेडे के पास खुद की साइकिल तक नहीं थी। कांग्रेस कार्यकर्ताओं का भी पुराने नेताओं से ही जुडाव था, जो वर्षों से विधायक और सांसद बनते चले आ रहे थे। ऐसी स्थिति में वानखेडे ने अपने चंद साथियों के साथ पैदल चुनाव प्रचार कर जीत हासिल की और विरोधियों के पैरों तले की जमीन खिसका दी। मतदान के दिन पैरों में पडे छालों के कारण उनसे चलना नहीं हो रहा था। फिर भी उनके कदम नहीं थमे। उनकी कर्मठता और जुनून ने हर दल के नेता को हतप्रभ कर दिया। करोडों रुपये फूंकने के बाद भी चुनाव में मात खाने वाले विरोधियों की नींद उ‹ड गई। उन्होंने कभी कल्पना ही नहीं की थी कि बिना धन लुटाये भी विधानसभा का चुनाव लडा जा सकता है। उनके लिए यह कोई जादू था और श्याम वानखेडे जादूगर। इस महाजादूगर ने अपने कार्यकाल में जनसेवा को ही प्राथमिकता दी। इसी के परिणाम स्वरूप १९९० में कांग्रेस की टिकट पर दोबारा चुनाव लडकर विजयी हुए तो उन्हें मंत्री बनाकर ९ विभागों की जिम्मेदारी सौंपी गयी। अक्सर देखा जाता है कि जब कोई कार्यकर्ता या छोटा नेता अचानक विधायक और मंत्री बन जाता है तो उसके रंग-ढंग बदल जाते हैं। वह अपने क्षेत्र के लोगों को पहचानना भूल जाता है। उसे तो बस चंद चेहरे याद रहते हैं जो उसकी चाटूकारी करते हैं, लेकिन वानखेडे तो किसी और मिट्टी के बने थे। उन्होंने कभी आम जनता से मिलना-जुलना बंद नहीं किया। उनके घर के दरवाजे सभी के लिए खुले रहते थे। कई बार वे सुरक्षा घेरे से निकलकर क्षेत्र के किसी परिवार के बीमार सदस्य को अस्पताल में देखने और उसकी सहायता करने के लिए पहुंच जाते थे। सभी के सुख-दुख के साथी होने के कारण ही उन्हें सच्चा जननायक कहा जाता था। मंत्री होने के बावजूद वे पैदल भ्रमण करते थे और जनता की समस्याओं से रूबरू होते थे। आम जन के सुख-दुख के इस सच्चे साथी को लोग आज भी याद कर बस यही कहते हैं कि नेता हो तो बस ऐसा ही हो...।

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