Thursday, October 17, 2019

सत्ता की लीला

चुनावों के मौसम में अब गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा और अव्यवस्था की बात नहीं होती। ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तान में हर तरफ खुशहाली ही खुशहाली है। सभी देशवासी आनंद के सागर में गोते लगा रहे हैं। सरकार भी कहती है देश अभूतपूर्व तरक्की कर रहा है। लोगों की जेबें भरी हुई हैं। तभी तो कोई भी फिल्म पांच-सात दिन में सौ-डेढ सौ करोड रुपये की कमायी कर लेती है। लजीज भोजन का स्वाद चखने के लिए होटलों और रेस्तरां में लोग कतारें लगाकर घण्टों इंतजार करते देखे जा सकते हैं। देशी और विदेशी शराब की दुकानों पर खरीददारों की भीड कभी कम नहीं होती। पब और बीयर बारों में जब देखो तब मेला लगा रहता है। अपने देश भारत में अनाज की कोई कमी नहीं है। लाखों गोदाम ठसाठस भरे पडे हैं। सरकार को सभी की चिंता है। अब तो मीडिया में भी भूख और गरीबी के कारण परलोक सिधार जाने वालों की खबरें नहीं आतीं। बडे-बडे अखबार कभी भूले से इन दुखियारों की खबर छापते भी हैं तो एकदम हाशिए में जहां पाठकों की नजर तक नहीं जाती। न्यूज चैनल वालों को हिन्दू, मुस्लिम, धर्म, राष्ट्रवाद से ही फुर्सत नहीं मिलती।
देश के नेताओं और सरकार के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि देश में करोडों लोग बेरोजगार क्यो हैं। वे आखिर कब तक मारे-मारे भटकते रहेंगे? पहले अखबारों में नौकरी देने के विज्ञापन छपते थे। अब नौकरी छूटने की खबरें छप रही हैं। उद्योगधंधों पर ताले लग रहे हैं। करोडो लोग ऐसे हैं, जिन्हें भरपेट भोजन ही नहीं मिलता। अनाज खरीदने के लिए उनके पास पैसे नहीं हैं। चांद पर इन्सानी महल बनाने की तैयारी कर चुके देश में किसानों का फांसी के फंदे पर झूलने का सिलसिला थम क्यों नहीं रहा है? यह कितनी शर्मनाक हकीकत है कि महाराष्ट्र में ऐन विधानसभा चुनाव के दौरान जलगांव-जामोद निर्वाचन क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले एक गांव में किसान ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। महज ३८ वर्षीय यह शख्स भारतीय जनता पार्टी का सक्रिय कार्यकर्ता था। जब वह मौत के फंदे पर झूला तब उसने भाजपा की टी-शर्ट पहन रखी थी जिस पर यह वाक्य लिखा था, "पुन्हा आणूया आपले सरकार।" यानी फिर से चुनकर लाओ अपनी सरकार। हम और आप वर्षों से देखते चले आ रहे हैं कि चुनावों के समय वोट हथियाने के लिए नेता बहुत ऊंची-ऊंची हांकते हैं। चुनाव जीतने के पश्चात उनके द्वारा कितने वादों को पूरा किया इसकी सच्चाई भी किसी से छिपी नहीं है? किसानों के जीवन में खुशहाली लाने का वादा हर चुनाव में किया जाता है। उन्हें तरह-तरह की सौगातें देने की घोषणाएं करने की तो प्रतिस्पर्धा-सी चल पडती है। २०१९ के जून महीने में राजस्थान के श्रीगंगानगर में कर्ज से परेशान एक किसान ने आत्महत्या कर ली। उसने सुसाइड नोट और एक वीडियो में कहा था कि इस देश के नेता हद दर्जे के निर्मोही और झूठे हैं। कांग्रेस के दिग्गज नेताओं ने वादा किया था कि सत्ता में आने के बाद सभी किसानों का पूरा कर्ज माफ कर दिया जाएगा, लेकिन गहलोत सरकार ने कर्ज माफी का वादा पूरा नहीं किया, जिसकी वजह से मैं इस दुनिया से विदा हो रहा हूं।
पिछले बीस वर्षों में लाखों किसान आत्महत्या कर चुके हैं। बडे जोर-शोर के साथ 'जय किसान' का नारा लगाने वाले भारत वर्ष में जैसे यह परंपरा बन गई है कि किसान खेती के लिए बैंक या इधर-उधर से कर्ज लेता है और न चुका पाने पर आत्महत्या करने को मजबूर हो जाता है। सरकार किसान के परिवार के हाथ में मुआवजे की राशि थमा कर यह मान लेती है कि उसने तो अपना कर्तव्य निभा दिया है। आजादी के ७२ वर्ष बीतने के बाद भी ऐसी योजनाएं नहीं बनाई जा सकीं, जिनसे किसानों को उनकी फसल की उचित कीमत मिले। यह कैसी स्तब्धकारी हकीकत है कि अगर किसान के खेत में बम्पर फसल होती है तो उसे खुशी की बजाय चिंता और परेशानी घेर लेती है। उसकी फसल को उचित दाम नहीं मिलता, लेकिन दूसरे धंधों में तो ऐसा नहीं होता। वहां तो कंगाल भी मालामाल हो जाते हैं और यहां किसान को निराशा और हताशा झेलनी पडती है। देश की दशा और दिशा पर पिछले कई वर्षों से बडी पैनी निगाह रखते चले आ रहे चिन्तकों का कहना है कि देश के सत्ताधीश और राजनेता किसानों की बदहाली पर सिर्फ घडियाली आंसू ही बहाते हैं। किसानों की सतत बरबादी और आत्महत्याएं एक राष्ट्रीय समस्या का रूप ले चुकी हैं। सरकारें किसानों के उद्धार के लिए हजारों करोड की राशि का ऐलान करती रहती हैं, फिर भी उनकी हालत जस की तस है! आखिर कहां जाते हैं यह रुपये? इसका जवाब पाना हो तो उन भ्रष्ट नेताओं, विधायकों, सांसदों का नाप-जोख कर लें, जिन्होंने जनसेवा का नकाब ओढकर करोडों, अरबों का साम्राज्य खडा कर लिया है।
इन भ्रष्टों को पता नहीं है कि, जो किसान अपनी जान दे रहे हैं, वे दूसरों की भी बेहिचक जान ले सकते हैं। इससे पहले कि स्थिति और खतरनाक हो जाए भ्रष्ट राजनेताओं को चौकन्ना हो जाना चाहिए, सुधर जाना चाहिए। अपने देश में ना तो प्राकृतिक संसाधनों की कमी है और ना ही वित्तीय संसाधनों की, कमी है तो ईमानदारी और प्राथमिकता की। जिस जनहित के कार्य और समस्या का समाधान सबसे पहले होना चाहिए उसका नंबर बहुत बाद में लगता है। जहां मेट्रो और बुलेट ट्रेन की जरूरत ही नहीं, वहां अरबों, खरबों स्वाहा किये जा रहे हैं और मूलभूत जरूरतों को नजरअंदाज किया जा रहा है। इसके पीछे के 'खेल' और 'लीला' को जनता अब अच्छी तरह से समझने लगी है। वह चुप है, इसका मतलब यह कतई नहीं कि वह बेवकूफ और अंधी है।

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