Thursday, October 3, 2019

जनता का आतंकी चेहरा

सब्जी का कारोबार करने वाली दो सगी बहनें रांची के निकट स्थित एक गांव में लगने वाले साप्ताहिक बाजार में सब्जी खरीदने के लिए गईं  थीं। शाम को जब वे लौट रही थीं तो रास्ते में इनका ऑटो खराब हो गया। जहां ऑटो बिगडा था वहां से कुछ ही दूरी पर उनके परिचित रहते थे। रात दोनों वहीं रुक गईं । सुबह-सुबह हाथ में सब्जी के थैले पकडे शहर की तरफ बढ रही थीं तभी किसी ने अफवाह उडायी कि दो अनजान महिलाएं खेतों से सब्जी चोरी कर ले जा रही हैं। बस फिर क्या था। कुछ ही मिनटों में दर्जनों ग्रामीण उन्हें घेर कर अंधाधुंध मारने लगे। इतने में भी उनका मन नहीं भरा। दोनों को पेड से बांधकर तब तक पिटायी की गई जब तक वे अधमरी नहीं हो गईं। भीड में शामिल कुछ लोगों ने मौका पाते ही दोनों के बाल भी काट डाले। यह अच्छा हुआ, सूचना पाते ही पुलिस मौके पर पहुंच गई। वर्ना भीड तो दोनों को खत्म कर देने पर उतारू थी।
मुजफ्फरपुर के माडीपुर चित्रगुप्त नगर में बच्चा चोरी के शक में भीड ने दो महिलाओं को पकडा और जमकर पीटा। पुलिस के पहुंचने से पहले दोनों बुरी तरह से जख्मी हो चुकी थीं। सडक भी खून से लाल हो गई थी। इस घटना से दो दिन पूर्व भी कुछ लोगों ने एक विक्षिप्त उम्रदराज महिला को बच्चा चोरी के आरोप में सडक पर डंडों और लातों से पीटकर अपंग बना दिया। राजस्थान के झालावाड जिले में मोटर पंप चोरी के आरोप में ४० वर्षीय दलित की बेरहमी से पिटायी की गई। अस्पताल में उसकी मौत हो गई। ३ सितंबर २०१९ के दिन दिल्ली के अशोक विहार में भी बच्चा चोरी के शक में लोगों ने एक युवक की निर्मम हत्या कर दी। हुआ यूं कि वह युवक तडके करीब चार बजे रेलवे पटरी पर शौच के लिए गया था। उसी दौरान वहां दो बदमाशों ने उसे घेर लिया। बदमाशों ने रुपये और मोबाइल लूटने के लिए युवक को चाकू दिखाकर जान से मारने की धमकी दी। युवक अपनी जान बचाने के लिए भागा। इसी दौरान उसने कई घरों के दरवाजे खटखटाये, लेकिन किसी ने दरवाजा नहीं खोला। फिर एक घर के दरवाजे को हल्का-सा धक्का देने पर वह खुल गया। उसके अंदर जाते ही घर के सभी सदस्य बच्चा चोर का हल्ला मचा कर उसे पीटने लगे। वह युवक हाथ जोडकर गिडगिडाता रहा कि उसके पीछे बदमाश लगे हैं। वह बच्चा चोर नहीं है, लेकिन उसकी बिलकुल नहीं सुनी गई। आसपास के लोग भी जाग गये और भूखे जानवर की तरह उस पर टूट पडे। देश में ऐसी हिंसक घटनाओं की कतार-सी लग गई है। अकेले बिहार में ढाई महीनों के दौरान भीड की हिंसा ने १४ लोगों की जान ले ली और ४५ लोग घायल हो गये। जागरुकता अभियान चलाये जाने के बाद भी मॉब लिंचिंग शासन और प्रशासन के लिए गहन चिन्ता का विषय बनी हुई है। यह भी देखा जा रहा है कि पीडितों को बचाने की कोशिश करने वाले पुलिस अधिकारियों पर भी उन्मादी भीड हमला करने से नहीं घबराती। गौरतलब है कि बंगाल में मॉब लिंचिंग के खिलाफ विधानसभा में बिल पारित कर नया कानून बनाया गया है, जिसमें दोषियों को मृत्युदंड देने का प्रावधान किया गया है, फिर भी लोग सुधरे नहीं हैं। इस नये कानून के बाद भी तीन निर्दोषों की हत्या कर दी गयी। इतना ही नहीं जब पुलिस मौके पर पहुंची तो उसे भी पीटा गया। ऐसा लगता है कि देशभर में अफवाहों का बहुत बडा बाजार आबाद है। लोग सच की तह में जाए बिना हिंसक और हत्यारे बन रहे हैं। भीड हिंसा यानी मॉब लिंचिंग एक भयानक महामारी की शक्ल अख्तियार कर चुकी है, जो हर किसी को डराने लगी है। अफवाह फैलते ही भीड एकत्रित हो जाती है और बिना कोई पडताल किये किसी निर्दोष को अधमरा कर देती है या मार गिराती है।
अगर किसी ने कोई अपराध किया भी है तो भीड को यह अधिकार नहीं मिल जाता कि वह न्यायाधीश बन जाए। यह तो सरासर जल्लादगिरी है, हैवानियत है। भीड यानी जनता के हाथ यदि कोई अपराधी आता भी है तो उसे पुलिस को सौंपा जाना चाहिए। उसे दंडित करने का अधिकार जनता को किसने दिया है? यह तो बेहद जहरीली मानसिकता है। देश के कोने-कोने से अफवाहों के चलते की जा रही हिंसा और हत्याओं की खबरें किसी बारूद से कम नहीं हैं। इस बारूद के धमाकों ने देश को हिलाकर रख दिया है। जनता की यह गुंडागर्दी कानून के पंगु होने का भी एहसास करा रही है। ऐसा भी प्रतीत हो रहा है कि लोगों का न्याय व्यवस्था पर विश्वास कम होता चला रहा है। उन्हें लगने लगा है कि अपराधियों पर शिकंजा कसने में पुलिस अपनी सही भूमिका नहीं निभा रही है। इसलिए जब भी कोई अपराधी जनता की पकड में आता है तो वह उसे पुलिस को नहीं सौंपती। खुद ही उस पर टूट पडती है। पुलिस के प्रति यह अविश्वास निराधार नहीं है। फिर भी भीड की हिंसा को कतई जायज नहीं ठहराया जा सकता। किसी की जान लेने और उसे अपमानित करने का हक तो किसी को भी नहीं। अब तो लोगों में पुलिस प्रशासन के प्रति विश्वास पैदा करना भी बहुत जरूरी हो गया है। वहीं जनता में भी जागरुकता लानी जरूरी है कि अफवाहें सच नहीं होतीं। हर जान कीमती होती है। उनके साथ और पीछे भी उनके परिजन, रिश्तेदार और स्नेही दोस्त होते हैं, जिन्हें उनकी हत्या की पीडा ताउम्र रूलाती है। जख्मों के जंग में बदलने और बदला लेने की शंका भी बनी रहती है।

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