Thursday, January 30, 2020

इस कैंसर का कैसे होगा इलाज?

कुछ घातक विषैली और शर्मनाक हकीकतें कल भी विराजमान थीं। आज भी सीना ताने खडी हैं। राजनेताओं व सत्ताधीशों के लाख वायदों के बावजूद भी उनका बाल बांका नहीं हो पाया। उन्हीं में से एक है, भ्रष्टाचार। इसके खिलाफ कितना कुछ लिखा गया। भाषणबाजी की गई। आरोप-प्रत्यारोप की झडियां लगीं। धरने आंदोलन भी हुए। शासकों को गद्दी छोडनी पडी। फिर भी बेईमानी और रिश्वतखोरी बंद नहीं हुई। किसी न किसी रूप में कायम थी। कायम है। कल मैंने एक नेताजी से पूछा कि अपने देश से भ्रष्टाचार का जड से खात्मा कब होगा? तो उनका जवाब था, पहले तो आप इस बात को गांठ बांध लो कि अधिकांश भारतवासियों ने भ्रष्टाचार को शिष्टाचार और घूस को सुविधाशुल्क मानकर अपना लिया है। यह तो आप लोग हैं, जो इसके खिलाफ चीखते-चिल्लाते रहते हैं।
दूसरी बार सांसद बने इन नेताजी ने अपना पेट्रोल पम्प सात करोड में बेचकर पहला लोकसभा का चुनाव लडा था और किस्मत से जीत भी गये थे। देश का सम्मानित सांसद बनने के बाद इस हस्ती ने जमकर नाम और नामा कमाया। आज उनके पास तीन पेट्रोल पम्प, स्कूल, कालेज और चार विदेशी शराब की दुकानें हैं। उनके पदचिन्हों पर चलते हुए उनके कुछ चेले-चपाटों ने विधानसभा के चुनाव में हाथ आजमाये। दो तो विधायक बनने में कामयाब भी हो गये हैं। उनकी दुकानदारी भी खूब चल रही है। कल लाखों में खेलते थे, आज करोडों में खेल रहे हैं। चांदी ही चांदी है। दलितों, शोषितों के नेता प्रकाश आंबेडकर ने फरमाया है कि अगर मेरे पास ५०० करोड होते तो मैं मुख्यमंत्री बन जाता। जिस दिन मुझमें वोट खरीदने की क्षमता आयेगी उस दिन मैं महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बन कर दिखा दूंगा। प्रकाश आंबेडकर, बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के पोते हैं, जिन्होंने भारत का संविधान लिखा था।
कई सरकारी अधिकारी तो सीना तानकर कहते हैं कि जब देश के नेता खाते हैं तो हम क्यों न खाएं। वैसे भी भारत वर्ष तो धन-दौलत का एक विशाल समुद्र है। जब नेता और सत्ताधीश इसमें डुबकियां लगाने में नहीं सकुचाते तो नौकरशाहों ने कुछ बूंदें चख लीं, झोली में भर लीं तो कोई फर्क नहीं पडने वाला। यह भी सच है कि नेता ही घूसखोरी के लिए अधिकारियों पर दबाव डालते हैं। आजादी के बाद से यही होता चला आ रहा है। फिर भी देश तो चल ही रहा है। देश का धन देश में ही है। सभी भ्रष्टाचारियों के खाते विदेशी बैंकों में नहीं हैं।
इनसे अगर यह कहें कि यह देश सिर्फ नेताओं, सत्ताधीशों, नौकरशाहों और उद्योगपतियों का नहीं है। उन करोडों लोगों का भी इसपर उतना ही अधिकार है, जितना आप लोगों का। हाशिये पर उपेक्षित पडे इन करोडों लोगों को दो वक्त की रोटी तक ठीक से नहीं मिलती। सुविधाहीन झोपडपट्टियों और खुले आकाश के नीचे गुजर-बसर करने को विवश हैं। सक्षम जन तो रिश्वत देकर अपने सभी काम करवा लेते हैं, सबकुछ पा लेते हैं, लेकिन गरीब निरीह जनता मुंह ताकती रह जाती है। यह सच कितना चौंकाने वाला है कि जहां करोडों भारतीय न्यूनतम सुविधाओं के अभाव में जी रहे हैं, वहीं देश की अधिकांश धन संपदा पर चंद धनवानों का कब्जा है। जिनके खून-पसीने से बडे-बडे निर्माणकार्य होते हैं, उद्योग-धंधे चलते हैं, इमारतें खडी होती हैं, वे लावारिसों की तरह जी रहे हैं और खिलाडी ऐश कर रहे हैं। सत्ता और अफसरशाही में अपनी गोटियां फिट करने का हुनर रखने वालों को आर्थिक बुलंदिया छूने में ज्यादा देरी नहीं लगती। कई छोटे-मोटे कारोबारियों, व्यापारियों को इसी कला ने देश का शीर्ष उद्योगपति बनाया है। धीरूभाई अंबानी ने तो खुलकर स्वीकारा भी था कि अगर उनमें यह 'कलाकारी' नहीं होती तो वे इतना सबकुछ हासिल नहीं कर पाते। कहीं छोटी-मोटी नौकरी कर रहे होते। आज की तारीख में ऐसे खिलाडी बहुत बलवान हो चुके हैं। उनकी पहुंच की कोई सीमा नहीं। मंत्री, सांसद, विधायक और बडे-बडे अधिकारी उनके इशारों पर नाचते हैं।
अपने यहां ऐसे-ऐसे प्रबुद्धजन हैं, जो हमेशा भ्रष्टाचार, शोषण और अनाचार पर लम्बे-चौडे भाषण देते देखे जाते हैं, लेकिन अपना काम करवाने के लिए वे भी 'सुविधा शुल्क' का सहारा लेते हैं। यह दिमागधारी तब भूल जाते हैं कि उनकी इस चालाकी और बेशर्मी के कारण गरीब और असहाय जनों का हक मारा जाता है, जिनके कल्याण और विकास के लिए वे ऊंची-ऊंची हांक कर प्रतिष्ठा पाते हैं। हैरानी की बात तो यह भी है कि अब सरकारों की प्राथमिकता में भ्रष्टाचार का मुद्दा काफी पीछे छूट गया है। भ्रष्टाचार के खिलाफ खुलकर बोलने और आंदोलन चलानेवाले नेताओं का भी देश में जैसे अकाल पड गया है। देश की जनता को बहकाने और उन्हें बेवजह सडकों पर लाने वाले नेताओं की फौज बढती चली जा रही है। सत्ता पाना ही इनका एकमात्र लक्ष्य है। जनसेवा से इनका कोई लेना-देना नहीं है। सर्वधर्म समभाव की सोच को दरकिनार कर एक-दूसरे को आपस में लडाने में लगे हुए हैं। ताज्जुब की बात तो यह भी है कि कई भारतीय इनकी साजिशों को समझ ही नहीं पा रहे हैं। उन्होंने अपने दिमाग के दरवाजे ही बंद कर लिये हैं। कुछ वर्ष पूर्व समाजसेवी अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के खिलाफ धरना आंदोलन किया था। तब उनके साथ अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया जैसे जो चेहरे नजर आये थे उनकी तो तकदीर ही बदल गई। सत्ता पाने के बाद उन्हें न तो भ्रष्टाचारी याद रहे, ना ही वह अन्ना हजारे जिनकी बदौलत उन्होंने अपनी राजनीति चमकायी। हिन्दुस्तान में ऐसा ही होता चला आ रहा है। न जाने कितने नेताओं ने दलितों, शोषितों, मजदूरों, गरीबों के विकास के नाम पर राजनीति की सीढ़ियां चढीं और सत्ता पायी। उसके बाद उन्हें अपने विकास के अलावा कुछ भी याद नहीं रहा। फिर भी जनता उन्हें बार-बार चुनावों में विजयी बनाती रही। यह सिलसिला सतत जारी है। पता नहीं जनता कब जागेगी?

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