Thursday, July 23, 2020

चीरफाड

यह हमारी संस्कृति है। पुरातन परंपरा है। सदियों से चला आ रहा सात्विक अटूट रिवाज है कि जब हम किसी अपने या बेगाने ऐसे किसी शख्स से मिलते हैं, जिसके परिजन की मौत हो गई हो, तो अपनी तरफ से संवेदना प्रकट करते हैं। अपने-अपने तरीके से हौसला देते हुए अफसोस जाहिर करते हैं। हमारी इस रस्म अदायगी से उस दु:खी शख्स को आत्मिक बल मिलता है। उसे यह अहसास होता है कि इस दु:ख और वेदना की घडी में वह अकेला नहीं है। उसके साथ और भी लोग खडे हैं। इस सोशल मीडिया के जमाने में तो फेसबुक, वाट्सएप आदि पर मौत के आगोश में समा चुके एकदम अनजाने लोगों के परिवारजनों को सांत्वना देने की झडी लगा दी जाती है। जिन्हें कभी देखा और जाना नहीं गया उनके देहावसान का समाचार हमें इस कदर पीडा पहुंचाता है कि आदरांजलि, सादर नमन, अत्यंत दु:खद, अफसोसनाक जैसे शब्दों की पुष्पांजलि अर्पित कर खुद को बेहतर इंसान, दोस्त और शुभचिंतक दर्शाने की प्रतिस्पर्धा में शामिल हो जाते हैं! आभासी दुनिया के प्रति इतना आदर-सम्मान, चिन्ता-फिक्र और वास्तविक दुनिया के जाने-पहचाने लोगों के प्रति अनदेखी तथा घोर निष्ठुरता अपनी तो समझ से तो परे है। जो लोग खुद को बहुत अक्लमंद मानते हैं वे यह क्यों भूल जाते हैं कि हर किसी को अपनों के खोने का गम होता है। मृतक चाहे साधु हो या अपराधी। मां, बाप, भाई, बहन और पत्नी को तो पीडा होती ही है। लगता है कि इस हकीकत की जानकारी भारत के कई न्यूज चैनल वालों को नहीं है। शायद उनके दिमाग में भूसा भरा है। अक्ल का तो दिवाला ही निकल चुका है। इन बेवकूफों को खुशी और गम के फर्क की भी समझ नहीं। दुर्दांत अपराधी, आठ जांबाज पुलिस कर्मियों के निर्मम हत्यारे विकास दुबे के अंतिम संस्कार के ऐन वक्त उसकी शोकमग्न पत्नी ऋचा को न्यूज चैनलों के संवाददाताओं ने ऐसे घेरा जैसे वह श्मशान घाट पर कोई उत्सव मनाने आई हो। जहां परिवार की कुछ स्त्रियां गमगीन ऋचा को तसल्ली देते हुए संभालने में लगी थीं, वहीं न्यूज चैनल वाले ऋचा पर उकसाने और आपे से बाहर करने वाले सवाल पर सवाल दागने में लगे थे।
"तुम्हें अपने हत्यारे माफिया, लुटेरे पति की मौत पर कैसा लग रहा है? पुलिस ने जिस तरह इस दरिंदे को कुत्ते की मौत मारा उस पर क्या कहना है तुम्हारा? अब आगे क्या करने का इरादा है?" आदि-आदि प्रश्नों की झडी ने ऋचा के तन-बदन में आग लगा दी। घायल शेरनी की तरह भडकते हुए उसने चीखते हुए कहा कि तुम कौन होते हो बोलने और पूछने वाले? पहले मरवाते हो फिर मुंह चलाने दौडे चले आते हो! हां यह भी सुन और जान लो कि पुलिस ने जो किया, वह सही किया, जिसने गलती की उसे सजा मिलेगी। आने वाले समय में जरूरत पडी तो मैं भी बंदूक उठाऊंगी।
एक नारी को अपने पति के अंतिम संस्कार के वक्त घेरने की न्यूज चैनल वालों को ऐसी क्या जल्दी थी? एक-दो घण्टे इंतजार भी तो किया जा सकता था। कहीं भागी तो नहीं जा रही थी वह! श्मशान घाट पर दुर्दांत अपराधी की पत्नी से मीडिया की इस ताबडतोड मुठभेड ने कई सवाल खडे कर दिये। प्रश्नों के जवाब में कहा गया कि ऋचा भी कम कसूरवार नहीं। उसे अपने गैंगस्टर पति के हर काले कारनामें की खबर थी। उसे यह भी पता है कि इस अरबपति नृशंस हत्यारे माफिया ने कैसे और कहां-कहां नामी और बेनामी संपत्तियां बनायीं और जुटायीं। आठ पुलिस कर्मियों की नृशंस हत्या की जिम्मेदार यह औरत भी है, जिसने मुंह, आंखें, कान और दिमाग पर ताले जड कदम-कदम पर अपने पति का साथ दिया। इसके पति का तो अंत हो गया है, लेकिन अभी भी कई रहस्यों पर पर्दा पडा हुआ है, जिन्हें यही उजागर कर सकती है। देश हित में इसका फर्ज है कि विकास दुबे की काली किताब के एक-एक पन्ने को खोल कर रख दे, ताकि हर किसी को अपराधियों, नेताओं, नौकरशाहों, सफेदपोशों के महाघातक गठजोर की उस सच्चाई का पता चले, जो भारत देश को घुन की तरह चाटे, निगले और खाये जा रही है।
सच तो यह भी है कि, जिस तरह से ऋचा अपने पति के उत्थान और पतन की गवाह और राज़दार रही है वैसे ही अधिकांश भ्रष्ट नेताओं, राजनेताओं, शासकों, अफसरों और सफेदपोशों की बीवियां भी अपने-अपने पतिदेव के प्रति नतमस्तक रहती हैं। अपने पति परमेश्वर के रातोंरात अरबपति-खरबपति बनने के सभी लूटपाट, रिश्वत और ठगी के तौर तरीकों की पूरी जानकारी के बाद कल भी मस्त थीं और आज भी मज़े लूट रही हैं। अपने कमाऊ देवताओं के प्रति नाज़ और सम्मान में कभी कोई कमी नहीं करनेवाली ऐसी नारियों के विधवा होने पर तो कभी किसी न्यूज चैनल वाले को उन्हें श्मशान घाट पर हैरान-परेशान और अपमानित करते तो नहीं देखा गया! दरअसल, तथाकथित वीआईपी चेहरों तक तो इन मीडिया धुरंधरों की पहुंचने और सुलगते सवाल दागने की जुर्रत ही नहीं होती। तब इन्हें नारी के सम्मान की भी याद हो आती है। सफेदपोश डकैतों के अहसान के तले तो यह पहले से ही दबे होते हैं।
इस सच से पूरी तरह से वाकिफ होने के बावजूद भी कि विकास दुबे जैसे माफियाओं, गुंडों, बदमाशों, हत्यारों के असली जन्मदाता, आश्रयदाता कौन हैं यह चुप्पी साधे रखते हैं। इन तमाशबीनों का जामीर तो हालात, वक्त और मोहरे देखकर ही जागता और सोता है। अपने दिल की बात लिखते-लिखते अचानक मुझे वो मंजर याद आ गया, जब एक फिल्म अभिनेता की घर में लाश पडी थी, तभी एक न्यूज चैनल वाले ने उनके बेटे से पूछा कि अपने प्रिय पिता की मृत्यु पर आपको कैसा लग रहा है? अभिनेता के गमगीन पुत्र के लिए यह प्रश्न बेहद तकलीफ दायक था। गुस्से में भनभनाते हुए वह घर के अंदर गया और हॉकी के साथ बाहर आकर रोष भरे स्वर में बोला, 'कमीने जैसे तेरे बाप के मरने पर तुझे लगा होगा या लगेगा वैसा ही... मुझे अपने पिता के गुजर जाने पर लग रहा है। फिर जैसे ही संवाददाता को पीटने के लिए तमतमाये पुत्र ने हॉकी घुमायी तो कुछ लोग बीच-बचाव के लिए आ गए। तब कहीं बडी मुश्किल से वह बेवकूफ लहुलूहान होने से बच पाया। ऐसे ही अगर बेवक्त किये गये बेहूदा सवालों की वजह से ऋचा अपना संयम खोते हुए न्यूज चैनल वाले के गाल पर गर्मागर्म थप्पड जड देती तो क्या होता?
तब लगभग सभी मीडिया वाले सवाल पूछने के अपने अधिकारों तथा ‘अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला' के ढोल-नगाडे पीट-पीटकर ऋचा को हिंसक, मर्यादाहीन और 'प्रेस' के लिए बेहद खतरनाक घोषित कर जेल में सडाने की मांग करते नज़र आते।

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