Thursday, July 30, 2020

मत भूलो

२३ जुलाई २०२० का दिन। बारह बजकर बीस मिनट पर qकचित फुर्सत देख फेसबुक पर दस्तक दी। मध्यप्रदेश के सजग कवि, वरिष्ठ पत्रकार डॉ. राकेश पाठक की पोस्ट पर नज़र पडी तो चौंक गया। शीर्षक था, "अब मध्यप्रदेश में पत्रकार की हत्या। निवाडी जिले में दबंगों की वारदात। नई दुनिया के प्रतिनिधि थे सुनील तिवारी।" अभी दो दिन पहले ही उत्तर प्रदेश के शहर गाजियाबाद में पुलिस के माथे पर कलंक का टीका लगाने वाली पत्रकार विक्रम जोशी की नृशंस हत्या की खबर पढी थी और एक युवा बेटे को टीवी की स्क्रीन पर अपने फौजी पिता की हत्या किये जाने पर सिर पटक-पटक रोते बिलखते देखा था। मन और मस्तिष्क के कैनवास पर गहन चिन्ता और उदासी पुत गयी थी। कुछ सूझ ही नहीं रहा था। यह सवाल जवाब मांग रहा था कि ऐसी हत्याओं पर कब तक अत्यंत दु:खद, पीडाजनक शर्मनाक जैसे शब्द लिख-लिख कर अपनी पीडा और गुस्से को दबाना होगा? इसी खबर के नीचे छत्तीसगढ की सरकार के द्वारा दो पत्रकारों को केबिनेट मंत्री का दर्जा दिये जाने की खबर अखबार की शोभा बढा रही थी। इस प्रेरक गौरवगाथानुमा खबर में दोनों 'केबिनेट मंत्रियों' को अपार शुभकामनाएं और बधाई देने वाले कुछ पत्रकारों और संपादकों के नाम भी अंधेरे के जुगनू की तरह चमक रहे थे, ताकि निकट भविष्य में पत्रकारों के हितैषी, परोपकारी, दरियादिल मुख्यमंत्री की उन पर भी मेहरबानी हो जाए।
एकाएक मुझे देश की राजधानी दिल्ली के दो सम्पादकों की जोडी की याद हो आयी, जिन्हें बहुत दूरदर्शी कहा जाता है। सन २०१४ के लोकसभा के चुनाव से कुछ हफ्ते पहले एक ने राहुल गांधी की जीवनी तो दूसरे ने नरेंद्र मोदी की संघर्ष गाथा पर पुस्तक लिखकर अच्छी-खासी चर्चा पायी। दोनों को पक्का यकीन था कि उनके आराध्य की पार्टी ही बहुमत में आयेगी और देश की सत्ता पर काबिज होगी। दोनों 'ज्योतिषियों' ने अपने-अपने भावी प्रधानमंत्री तथा पार्टी के दिग्गज नेताओं के हस्ते किताब का विमोचन करवाया। फोटुएं खिंचवायीं और फेसबुक आदि में डालकर लाइक्स और शुभकामनाओं का आनंद लूटा। यह बात अलग है कि चुनाव परिणामों ने एक को गदगद तो दूसरे को निराश और उदास कर दिया। २०१९ लोकसभा चुनाव आते-आते तक इस 'विविध लाभकारी' 'आरती-गान' का बेतहाशा विस्तार हो गया। कई नये विद्वान कलमकार पैदा हो गये। मोदी और राहुल के साथ-साथ अमित शाह, प्रियंका गांधी आदि पर ग्रंथ लिखकर विमोचित करवाये गये और बाजार में उतार दिये गये। देश के विभिन्न प्रदेशों में वर्तमान और संभावित मुख्यमंत्रियों पर तरह-तरह की पोथियां लिखने की झडी लगा दी गयी। प्रदेशों के कुछ उच्च 'कलम कलाकारों' ने तो दिल्ली के महारथियों को भी मात देकर अपने यहां धन की खूब बरसात करवायी। किस्म-किस्म के रूपों-बहुरूपों के साथ यह सिलसिला अब जबर्दस्त रफ्तार पकड चुका है।
दरअसल, चुनाव चाहे लोकसभा का हो या विधानसभा का, सिर्फ नेता और पार्टियां ही नहीं लडतीं, और भी कई लोग लडते हैं। कुछ पत्रकारों पर सिर्फ चुनावों के मौसम में ही नहीं बल्कि हर समय अपने गॉडफादर तथा उसकी पार्टी की आरती गाने का भूत सवार रहता है। अपनी वफादारी दिखाने और प्रतिफल पाने के लिए यह किसी भी हद तक जाने को तत्पर रहते हैं।  इनके रूतबे, पहुंच और पहचान के डंके की भी गूंज दूर-दूर तक सुनी और सुनायी जाती है। बडे-बडे सरकारी अधिकारी इनके दरबार में दौडे चले आते हैं। खाकी वर्दी वालों से तो इनका गजब का याराना होता है। वैसे भी पत्रकारों और पुलिस वालों का मेल-मिलाप जरूरी और मजबूरी भी है। दोनों एक दूसरे के काम आते हैं। इसलिए यह आम धारणा है कि खाकी वर्दीधारी भले ही और किसी की न सुनें, लेकिन पत्रकार की शिकायत को अनसुना नहीं करते। फौरन 'एक्शन' लेते हैं।
गाजियाबाद के पत्रकार विक्रम जोशी के लिए पत्रकारिता का मतलब था, अन्याय के खिलाफ आवाज उठाकर अन्यायी को दंड दिलवाना और पीडित को सुरक्षा, न्याय और राहत पहुंचाना। उसने अपनी भांजी को गुंडे-बदमाशों की अश्लील छेडछाड से बचाने के लिए थाने में लिखित रिपोर्ट दर्ज करवायी थी, लेकिन कुछ बिके हुए पुलिसियों ने उनकी सुनने की बजाय बदमाशों तक खबर पहुंचा दी कि पत्रकार ने तुम्हारे खिलाफ शिकायत की है। सोच लो, क्या करना है! रात को विक्रम जब अपनी दो बेटियों के साथ घर लौट रहे थे तभी दस गुंडों ने उन्हें घेरकर सिर पर गोली मारी। पिता सडक पर लहुलूहान पडे थे और बेटियां चीखती-पुकारती रहीं, लेकिन किसी ने उनकी मदद करना तो दूर, घटनास्थल पर रूकना तक मुनासिब नहीं समझा। यह हमारा तथा हमारे तमाशबीन समाज का असली चेहरा है। विक्रम अस्पताल में दो दिन तक मौत से जंग लडते-लडते अंतत: चल बसे।
सुनील तिवारी को उन्हीं के गांव के हत्यारे दबंगों ने इसलिए मार डाला क्योंकि वे सजग और निर्भीक पत्रकारिता की राह पर चलते हुए उन्हें सतत बेनकाब करने के अभियान में लगे हुए थे। सुनील असहाय और अकेले थे और वे बलशाली जिन पर राजनेताओं, मंत्रियों और पुलिस वालों का हाथ था, पहले भी वे अपने विरोधियों का कत्ल कर चुके थे। स्वतंत्र प्रेस के शत्रुओं ने सुनील पर कई तरह के दबाव बनाये, धमकियां दीं, लेकिन वे जब नहीं माने तो वही कर डाला जो अभी तक करते आये थे। निरीह पत्रकार ने कलेक्टर, पुलिस के उच्च अधिकारियों के साथ-साथ अपनी पत्रकार बिरादरी से भी हाथ जोड कर विनती की थी कि उसकी जान खतरे में है। कभी भी उन्हें मौत के घाट उतारा जा सकता है। कुछ तो करो..., जिससे मैं जिंदा रहकर सजग पत्रकारिता का धर्म निभाता रहूं! कहीं यह भी पढने में आया कि सुनील अधिकृत पत्रकार नहीं थे। निष्पक्ष, निर्भीक पत्रकारों की हत्या के बाद अखबार मालिक ऐसी निर्दयता दिखाकर अपना स्वार्थी चेहरा दिखाते रहते हैं। सुनील की जगह यदि कोई तथाकथित महान बडा पत्रकार होता तो क्या उसके साथ भी ऐसा होता? दरअसल, देश के आम आदमी की तरह विक्रम और सुनील ऐसे आम पत्रकार थे, जिनकी अपने काम और कर्तव्य से ही रिश्तेदारी थी। उन्हें यहां-वहां मुंह मारना और संबंध बनाना नहीं आता था। इसलिए उन्हें वही मौत मिली, जो इस देश के आम आदमी को मिला करती है।

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