Thursday, October 29, 2020

नारे... नारे... कितने नारे?

बड़ा पुराना रोग है। छूटे तो कैसे छूटे! पुरुष होने का अहंकार बचपन से उनका सच्चा साथी बना हुआ है। ऐसे में उसे कैसे त्याग दें! यह उनसे नहीं होगा। चाहे लोग कितना रोकते-टोकते समझाते रहें। औरतों की तौहीन करना, उन्हें बार-बार नीचा दिखाना इनकी फितरत है। यह देश के नेता हैं। नारी को कल भी अपने पैर की जूती समझते थे और आज भी तिरस्कार करने से बाज नहीं आते। मतदाता भी इनके लिए इंसान नहीं सामान हैं, जिसका प्रयोग कर फेंक देते हैं, भूल जाते हैं। भोले-भाले अधिकांश मतदाता जिन्हें अपना कीमती वोट देकर सांसद, विधायक बनाते हैं, उन्हें फरिश्तों जैसा सम्मान भी देते हैं। यही फरिश्ते जब अपनी असली औकात दिखाते हैं, तो हंगामा बरपा हो जाता है।
रात के दस बजे वह खानदानी युवा नेता, सांसद क्या कर रहा था, कैसी हालत में था, कौन सी खिचड़ी पका रहा था इसकी परवाह किये बिना अपनी मुसीबत से परेशान एक युवक ने उनसे बड़े हक के साथ मोबाइल पर बात की। उसने अपने क्षेत्र के सांसद को अपनी समस्या से अवगत कराया, लेकिन उधर से फटकार और दुत्कार मिली। 'मैं तुम्हारे बाप का नौकर नहीं। तुमने भले ही मुझे वोट दिया होगा, लेकिन खरीद तो नहीं लिया है। मेरी आजादी छीनने की गुस्ताखी करने का किसी को अधिकार नहीं।'  दरअसल, मदद के बदले अपने सांसद से डांट खाने वाले युवक की दुकान से बीस बोतल देशी शराब पकड़ी गई थी। जब उसने उन्हें फोन लगाया तब वह पुलिस की गिरफ्त में था। उसके मन में आया होगा कि पुलिस वालों के सामने अपने सांसद से बात कर धौंस जमाने में कामयाब हो जायेगा। पुलिस वाले उसे वैसे ही छोड़ देंगे, जैसे विधायकों, सांसदों तथा मंत्रियों के पाले-पोसे अपराधियों को ये लोग बड़ी इज्जत के साथ विदा कर देते हैं।
वैसे भी कोई ऐरा-गैरा इन 'ऊंचे लोगों' को फोन लगाने की हिमाकत नहीं करता। जिन्हें इनकी मित्र-मंडली की कारस्तानियों का पता होता है वही ऐसा हौसला दिखाता है। नेताओं की मित्र मंडली में शरीफों के साथ-साथ कुख्यात भी शामिल होते हैं, जिनके बचाव के लिए अक्सर पुलिस थानों के लैंडलाइन तथा मोबाइल फोन बजते रहते हैं। अगर यह युवक भी सांसद का करीबी होता तो इस कदर बेइज्ज़त नहीं किया जाता। दरअसल, वह एक आम मतदाता है, जिसने खुद को खास समझने की महाभूल की और सहयोग के बदले शाब्दिक जूता खाया। यह हिंसा तो अपने देश के नेताओं के खून में चौबीस घण्टे छलांगे लगाती रहती है, जिसकी वजह से सदियों पहले 'महाभारत' हुई थी। ७२ साल का एक पका-पकाया नेता अपने चुनावी भाषण के दौरान मर्यादा का गला घोटते हुए महिला विधायक को 'आइटम' करार देकर तालियां बटोरता है। खुद को 'आइटम' कहे जाने पर वह महिला फूट-फूटकर रोते हुए कहती है, यह उम्रदराज राजनेता पहले भी मेरे साथ बदसलूकी करता रहा है। मैं जब भी इससे मिली इसने कभी इज्जत नहीं दी। दूसरी महिलाएं तो इसकी बगल की कुर्सी पर बैठती थीं, लेकिन मेरे लिए तो इसके सामने कुर्सी पर बैठने की ही मनाही थी। दलित नेत्री की पार्टी के नेता और कार्यकर्ता शोर मचाते हुए सड़क पर उतर आते हैं। अनशन-वनशन करते हुए दहाड़ते हैं कि यह तो भारतीय दलित महिला का घोर अपमान है। दलितों के साथ होने वाला शर्मनाक दूजाभाव है। जिसको 'आइटम' कहकर अपमानित किया गया है वह कोई अनपढ़-गंवार नारी नहीं, पढ़ी-लिखी साहित्यप्रेमी सुलझी हुई महिला हैं।
दरअसल, महिला विरोधी मानसिकता वाले अधिकांश पुरुष नेता मानते हैं कि जिस तरह से फिल्म को हिट कराने के लिए आइटम गर्ल को नचवाया जाता है वैसे ही राजनीति की दुकान पर ग्राहकों (वोटरों) को खींचने के लिए महिलाओं को आगे लाया जा रहा है। इन महिलाओं में अक्ल-वक्ल तो है नहीं, बस महिला होने का फायदा उठा रही हैं। मतदाता भी इन्हें राजनीति की आइटम मानकर वोट देते हैं और जीतवाते हैं। ऐसी घटिया सोच वाले नेताओं के व्यवहार, दर्द, तिरस्कार और उपेक्षा के दंशों की कटु स्मृतियां सदियों से दलितों, शोषितों के दिल और दिमाग के तहखाने में जमी पड़ी हैं। होना तो यह चाहिए था कि राजनेता इन विषैली यादों को भुलवाने में सहायक होते, लेकिन यह तो जख्मों को कुरेद रहे हैं। बार-बार हरा कर रहे हैं।  
राजेश्वरी सरवण तामिलनाडु में एक ग्राम पंचायत की अध्यक्ष हैं। वे दलित हैं इसलिए उनके साथ जातीय आधार पर भेदभाव किया जा रहा है। गणतंत्र दिवस पर उन्हें राष्ट्रीय ध्वज नहीं फहराने दिया गया। ग्राम पंचायत की बैठकों के दौरान जहां अन्य सदस्य कुर्सी पर विराजते हैं, दलित अध्यक्ष को कुर्सी तक नहीं दी जाती, जमीन पर ही बैठने को विवश किया जाता है। अपमान के दंश से बचने के लिए राजेश्वरी ने स्वतंत्रता दिवस के कार्यक्रम में भाग ही नहीं लिया। राजेश्वरी के अंदर गुस्सा भरा पड़ा है। रोष तथा पीड़ा भरे स्वर में कहती हैं, 'हमें बार-बार अपमान का विष पीने के लिए इसलिए मजबूर होना पड़ता है क्योंकि हम दलित हैं, अछूत हैं!'
बिहार के दरभंगा जिले में एक १४ वर्ष की लड़की से बलात्कार के बाद उसकी नृशंस हत्या की खबर ने खूब सुर्खियां बटोरीं। इस लड़की ने एक बाग से आम चुराया था, नाबालिग को उसी चोरी की मिली यह सज़ा! इस सज़ा में डर छुपा है। देश में तेजी से बढ़ती दलित शक्ति से कई सत्ताखोर घबराये हुए हैं। इसलिए दलित बच्चियों, लड़कियों और महिलाओं पर अत्याचार कम होने की बजाय बढ़ रहे हैं। अपने आपको महान समझने के भ्रम में जी रहे शातिर राजनेताओं के अंदर की ईर्ष्या, गंदगी, बेहूदगी बाहर आ रही है और वे निरंतर बेनकाब हो रहे हैं। उन्हें सशक्त दलित महिलाओं का राजनीति में आना कतई नहीं सुहा रहा है। दलितों, वंचितों, गरीबों, किसानों की सुध लेने की बजाय देश में जहां-तहां उन्हें प्रताड़ित किया जा रहा है। उनके बच्चों के लिए शिक्षा एक सपना है। रहने को घर नहीं, खाने को भोजन नहीं। आजादी के ७४ साल बाद भी घोर अभावों में उनकी जिन्दगी गुज़र रही है। मुफलिसी, जुल्म, अवहेलना, दुत्कार की मार बढ़ती ही चली जा रही है। फिर भी रोज़ खबरें आती हैं कि सरकारें असहायों के विकास के लिए यह कर रही हैं, वो कर रही हैं। हर वर्ग तथा समाज की नारियों को बिना किसी भेदभाव के हर तरह से सशक्त बनाया जा रहा है। बच्चियां पूरी तरह से सुरक्षित हैं।
सच को मोटे-मोटे परदों और नकाबों में छुपाने और झूठ पर झूठ बोलने की नेताओं की आदत जाती नहीं दिखती। देश के सजग साहित्यकार भेदभाव की पीड़ा भोगते तमाम वंचितों के दर्द को बयां करने से नहीं चूक रहे हैं। जो देश में दिख रहा है, हो रहा है, उसे उजागर करने का धर्म वे पूरी तरह से निभा रहे हैं। देश के जमीन से जुड़े विख्यात साहित्यकार डॉ. इंद्र बहादुर सिंह ने लगभग पंद्रह वर्ष पूर्व यह पंक्तियां लिखी थीं। आईना दिखाती यह पंक्तियां आज भी कितनी-कितनी सच्ची-सार्थक हैं, इसका पता तो देश का चेहरा देखकर चल जाता है...
"सड़ी-गली ये सारी व्यवस्था अखबारों पर जिन्दा है।
मेरे देश बधाई तुझको, तू नारों पर जिन्दा है।।
बस्ती का एक-एक सूरमां बस्ती छोड़ के भाग गया।
मिल-जुलकर रहने का नारा दिवारों पर जिन्दा है।।
समय तेरी बलिहारी तूने कैसे-कैसे ढोंग रचे।
बुद्धि पर इतराने वाला दरबारों पर जिन्दा है।।"

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