Thursday, December 31, 2020

और ख्वाब छिन गये!

    पिछले कई दिनों से आलम यह था कि चित्रा हेमनाथ के सपनों में आने लगी थी। दिन-रात वह उसके रूप के जादू में खोया रहता। हेमनाथ चित्रा का दिवाना तो उस दिन ही हो गया था, जब उसने उसे पहली बार टीवी शो में देखा था। एकदम हुस्नपरी, जबरदस्त कातिल मुस्कान। हेमनाथ बडा कारोबारी था। उसके पास कार, बंगला सबकुछ था। कमी थी तो बस मनपसंद खूबसूरत जीवनसाथी की। चित्रा से रूबरू मिलने के बाद उसने निश्चय कर लिया कि वह उसे अपना बना कर ही रहेगा। चित्रा को भी हेमनाथ भा गया था। चित्रा के दोस्तों ने भी उसकी तारीफें ही की थीं। उसे भी ऐसे ही किसी साथी की तलाश थी, जो सिर्फ उसे दिल से चाहे। पर्दे पर दिखने वाली चित्रा कामराज से नहीं, उससे दिल खोलकर सच्चा प्यार करे। तमिल फिल्मों की इस मशहूर अभिनेत्री को अच्छी तरह से पता था उसके लाखों चाहने वाले हैं, जो उसकी एक झलक पाने और सबकुछ लुटाने को बेकरार रहते हैं। उसकी किसी भी धारावाहिक में मौजूदगी टीआरपी बढाने के लिए पर्याप्त है।
    वह भी डूबकर अभिनय करती थी। फिल्म और सीरियल के काल्पनिक किरदार को साकार करने में कोई कसर नहीं छोडती थी। फिल्म हो या टीवी सीरियल, दर्शकों को तो मनोरंजन चाहिए। मनोरंजन भी एक-सा नहीं। किस्म-किस्म का। अभिनेत्री चित्रा हर कलाकारी में पारंगत हो चुकी थी। बिंदास, चुलबुली और मिलनसार लोकप्रिय अभिनेत्री से शादी करने की इच्छा रखने वालों की कतार लगी थी, लेकिन मनोकामना पूरी हुई हमेशा बन-ठन कर रहने वाले चेन्नई के युवा व्यापारी हेमनाथ की। बाकी सभी मन मसोस कर रह गये। २०२० के अगस्त महीने में दोनों की सगाई हो गई। २०२१ के जनवरी महीने में शादी करने के पक्के मंसूबे के साथ दोनों एक साथ एक ही छत के नीचे रहने लगे। दोनों के कुछ हफ्ते तो बडे मज़े से गुजरे, लेकिन उसके बाद हेमनाथ का असली चेहरा चित्रा को भयभीत करने लगा। वह उसे छोटी-छोटी बात पर डांटने और कटु बोल सुनाने लगा। दरअसल, हेमनाथ चाहता था कि चित्रा उसकी मर्जी के अनुसार चले। विभिन्न टीवी सीरियल्स और फिल्मों में चित्रा के अंतरंग दृश्य उसका खून खौलाने लगे। उसे तो उसका परफ्यूम लगाना और मेकअप करना भी शूल की तरह चुभने लगा। कल तक जिसको देखे बिना उसे चैन नहीं मिलता था, अब वह उसे चाकू-छुरी-सी लगने लगी, जिसका काम ही दूसरों को आमंत्रण देकर घायल करना था। जब कभी दोनों कहीं घूमने-फिरने जाते तो उस दौरान यदि कोई चित्रा के नजदीक आने की कोशिश करता तो हेमनाथ अपना आपा खोकर उसकी पिटायी करने से भी नहीं चूकता। उसका बस यही कहना था कि चित्रा पर उसी का एकाधिकार है। उसके अभिनेत्री होने के यह मायने तो नहीं कि कोई भी उसकी सुंदरता पर मोहित होकर उसे घूरने लगे। कोई भी ऐरा-गैरा उससे बतियाने तथा छूने को ललचाने लगे। हेमनाथ भूल गया कि चित्रा अभिनेत्री है। उसके अभिनय से प्रभावित होकर ही वह उसके मोहपाश में बंधा था। उस पर डोरे डाले थे। कई दिन तक उसके ईर्द-गिर्द चक्कर काटे थे। अब वह उस पर अभिनय छोडने का दबाव बनाने लगा था। चित्रा इसके लिए कतई राजी नहीं थी।
    हेमनाथ ने उसको सबक सिखाने के लिए अंधाधुंध मारना-पीटना प्रारंभ कर दिया। ऐसी-ऐसी पाबंदिया लगा दीं, जिससे चित्रा का दम घुटने लगा। उसने हाथ-पांव जोडे। बार-बार याद दिलाया कि वह सिर्फ देह नहीं, एक सशक्त नारी है। उसकी अपनी एक खास पहचान है। वह भी आजादी की उ‹डान भरने की अधिकारी है, लेकिन हेमनाथ की वहशियत कम होने की बजाय बढती चली गई। उसकी आतंकी यातनाओं ने चित्रा के शरीर के साथ उसके दिल-दिमाग को इस कदर आहत किया कि वह ९ दिसंबर की रात फांसी के फंदे पर झूल गयी। दूसरों को अपनी मर्जी और जिंदादिली के साथ जीवन जीने की सलाह देने वाली महज २९ वर्ष की अभिनेत्री जब आत्महत्या करने जा रही होगी तब उसके मन में क्या रहा होगा?
    ३० नवंबर २०२० को डॉ. शीतल आमटे ने खुद को जहरीला इंजेक्शन लगाकर मौत की नींद सुला दिया। डॉ. शीतल एक समाजसेवी थी। बहुत बुद्धिमान और महत्वाकांक्षी थी। वह देश और दुनिया में प्रख्यात समाजसेवी, पद्मविभूषण तथा मेगसेसे अवॉर्ड से सम्मानित मुरलीधर देवीदास आमटे यानी बाबा आमटे की पोती थीं। शीतल की खुदकुशी की खबर भी अविश्वसनीय तथा स्तब्धकारी थी। अखबारों और न्यूज चैनलों में जैसे ही उनकी आत्महत्या की खबर आयी तो लोगों को बाबा आमटे याद हो आये, जिन्होंने छह सौ एकड जमीन के मालिक जागीरदार परिवार में जन्म लेने के बावजूद मानवसेवा का मार्ग चुना। कुष्ठ रोगियों को भला चंगा करने के लिए अपनी पूरी शक्ति और उम्र लगा दी। मुरलीधर के बाबा आमटे बनने की कहानी भी कम स्तब्धकारी नहीं है। नागपुर के विधि महाविद्यालय से कानून की डिग्री हासिल करने के बाद देश का नामी-गिरामी वकील बनने का सपना देख रहे मुरलीधर के जीवन में बरसात की उस रात ने भूचाल-सा ला दिया, जब उसने देखा कि एक कुष्ठरोगी कूडे-कचरे में रेंग रहे कीडों को खाकर अपनी भूख मिटा रहा है। दूसरे लोगों की तरह मुरलीधर के लिए उसे नजरअंदाज कर पाना संभव ही नहीं हो पाया। बेचैनी, आत्मग्लानि के साथ-साथ इस सवाल ने उसे कसकर जकड लिया कि गंदगी तथा कीडों-मकोडों को खाकर जिन्दा यह कुष्ठरोगी, जिससे सभी दूरी बनाते हैं, हिकारत भरी निगाह से देखते हैं, आखिर है तो वह एक इनसान ही। क्या वह अकेला पडा-पडा मर जाए! आखिर उसका कसूर क्या है? मुरलीधर ने पहले तो तूफानी बारिश से बचाने के लिए उसके सिर पर तिरपाल खडी की। फिर खाना खिलाया। उसका इलाज करवाया और सतत देखभाल की।
कुछ हफ्तों के बाद उस कुष्ठरोगी ने मुरलीधर की बाहों में दम तोड दिया। वह तो चला गया, लेकिन मुरलीधर की तो सोच ही बदल गई। मौज-मज़े के साथ जीवन जी रहे धनवान पिता के जवान बेटे ने अपनी राह ही बदल ली। उसका पूरी तरह से कायाकल्प हो गया। कुष्ठ रोग को मिटाने के लिए मुरलीधर ने कोलकाता जाकर कुष्ठरोग निवारण का विशेष वैद्यकीय प्रशिक्षण प्राप्त किया और फिर उसके बाद अपनी पत्नी साधनाताई आमटे के साथ मिलकर १९४९ में चंद्रपुर जिले के वरोरा में 'आनंदवन' की स्थापना की। साधनाताई भी संपन्न परिवार में पली बढी थीं। दोनों जुनूनियों ने समाज से बहिष्कृत अत्यंत दयनीय स्थिति में दिन काट रहे कुष्ठरोगियों के प्रति खुद को पूरी तरह से समर्पित कर दिया। दो झोपड़ियों में प्रारंभ हुए आनंदवन में न केवल कुष्ठरोगियों का इलाज किया जाता था बल्कि उन्हें अपने पैरों पर खडे होकर कमाने-खाने के लायक भी बनाया जाता था। अपने जीवन काल में दोनों ने हजारों का जीवन संवारा और सम्मान भी दिलवाया। उनके निस्वार्थ सेवाभाव की ख्याति चारों ओर फैलती चली गयी। देश और दुनिया के लिए आनंदवन प्रेरणास्थल बनता चला गया। महात्मा गांधी के अनुयायी बाबा आमटे को पूरी तरह से तिरस्कृत और अछूत जाति के लोगों की सेवा करने के कारण तरह-तरह की धमकियां भी झेलनी पडीं। संत बाबा आमटे जानते थे कि शारीरिक कोढ से कहीं बहुत अधिक खतरनाक बीमारी तो मन का कोढ है, जिसका कोई इलाज नहीं है। उनके इस सद्कार्य से प्रभावित होकर देश-विदेश के कई दानवीरों ने भी दिल खोलकर सहायता का हाथ बढाया।
बाबा और उनकी पत्नी ने ग्रामीण क्षेत्र में शिक्षा का शंखनाद करते हुए आनंद निकेतन आर्टस, सार्इंस, कामर्स तथा कृषि महाविद्यालय, नेत्रहीन बच्चों के लिए आनंद विद्यालय तथा और भी कई जनहितकारी संस्थाओं की स्थापना की। कुष्ठरोगियों, अंधों और अपंगों के इलाज और उनमें आत्मबल जगाने का महान कार्य करने वाले बाबा आमटे का ९४ वर्ष की दीर्घायु में स्वर्गवास हो गया। अनेक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित इस महामानव को बीस वर्ष से एक असाध्य बीमारी ने जक‹ड रखा था, जिसके कारण उन्हें वृद्धावस्था में निरंतर खडे रहना पडता था या फिर लेटे रहना प‹डता था। फिर भी उन्होंने अपने सेवाकार्य से मुंह नहीं चुराया। युवकों की तरह डटे रहे। आनंदवन अब एक विशाल वटवृक्ष बन चुका है। उनके पुत्र विकास आमटे और डॉ. प्रकाश आमटे तथा उनका पूरा परिवार जनसेवा में जुटा है। आनंदवन में हर वर्ष ‘वृक्ष महोत्सवङ्क मनाया जाता है। अतिथियों का स्वागत-सत्कार स्वस्थ हो चुके रोगी ही करते हैं।
देश और दुनिया को हतप्रभ कर देने वाले कोरोना काल में ३० नवंबर को हुई डॉ. शीतल आमटे की खुदकुशी आनंदवन में चल रहे मनमुटाव, वर्चस्व और कलह का नतीजा थी। डॉ. शीतल दिव्यांग विशेषज्ञ थीं। दिव्यांगों की देखरेख और उनके इलाज के लिए खुद को समर्पित कर चुकी डॉ. शीतल आनंदवन में चल रही कुछ संदिग्ध गतिविधियों से असंतुष्ट थी। ज्यादा विस्तार में न जाते हुए इतना भर बताना काफी है कि आनंदवन जैसी परोपकारी संस्था अंतत: पारिवारिक कलह का केंद्र बन गयी। डॉ. शीतल के ब‹डे भाई को पांच साल पहले ‘महारोगी सेवा समिति नामक ट्रस्टङ्क से धांधली के आरोप के कारण निकाल दिया गया था। दरअसल, शीतल अनियमितता और घपलेबाजी के सख्त खिलाफ थी। इसलिए उनकी संदिग्ध चेहरों के साथ पटरी नहीं बैठती थी। इसी वजह से उनके अपने भी दूरी बनाने लगे थे। विरोध जताने लगे थे। जो वह नहीं चाहती थी वह भी जबरन होने लगा था। २९ नवंबर को डॉ. शीतल ने ‘वॉर एंड पीसङ्क शीर्षक से एक पेंqटग सोशल मीडिया पर पोस्ट की और ३० नवंबर को इस दुनिया से ही विदा हो गर्इं। डॉ. शीतल आमटे ने शिक्षार्जन के दौरान भी कई अवॉर्ड प्राप्त किए। शिक्षा, चिकित्सा और पर्यावरण पर काम करने के साथ-साथ उन्हें पेंqटग का भी बहुत शौक था।
लोग कितने भी आधुनिक हो गये हों, लाख स्त्री को बराबरी का दर्जा देने के ढोल पीटे जा रहे हों, लेकिन कटु सच तो ये है कि आज भी हमारे समाज में पुरुषवादी प्रवृत्ति बहुत गहरे तक अपनी ज‹डे जमाये हुए है। पिता, पति, भाई के रूप में पुरुष ही नारी की जगह तय करते हैं। अधिकांश परिवारों में बेटे के लिए बेटी, बहन के सपने तहस-नहस करने में संकोच नहीं किया जाता। कल भी यही माना जाता था कि बेटियां तो परायी होती हैं। परिवार की इज्जत तो पति और बेटे की वजह से ही है। पुरुषों के अधीन रहना ही स्त्री की नियति है। उसे पुरुषों को रोकने-टोकने, समझाने, राज करने और हुक्म चलाने का कोई अधिकार नहीं। पुरुष जो कहे, करे और बोले बस वही नारी करे तो ही सही...। वर्ना...।

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