Thursday, December 17, 2020

अपराधी, कौन अपराधी?

पहले नज़र इस खबर पर...
एक बेकसूर, युवक ने दहेज उत्पी‹डन के आरोपों को २३ साल तक झेला। पुलिस की मार खायी, जेल की यात्रा भी की। केस के वक्त उसकी उम्र २२ साल थी। मौजूदा समय में उसकी उम्र ४५ साल है और वह दो बच्चों का पिता है। २३ साल पहले उसकी भाभी ने उस पर तथा परिवार के अन्य सदस्यों के खिलाफ दहेज प्रताडना का मुकदमा दर्ज कराया था। मुकदमा दर्ज होते ही उसका तो सुख-चैन लुट गया। जो दिन नहीं देखने थे, वो देखे। वकीलों की जेबें भरीं और खुद कंगाली झेली। दो दशक का लंबा समय खुद को बेकसूर साबित करने के लिए अदालत के चक्कर काटने में गुज़र गया। खाकी वर्दी वालों ने भी तरह-तरह से परेशान कर नींद हराम करने में कोई कमी नहीं की। रिश्तेदारों और दोस्तों ने भी खुलकर बातचीत करनी बंद कर दी। अडोसी-पडोसी, रिश्तेदार तथा यार दोस्त भी निरंतर कटु वचनों के शूल चुभोते रहे। अंतत: कोर्ट में आरोप साबित नहीं हो पाया और उसे क्लीनचिट मिल गई, लेकिन उसके उन २३ वर्षों का क्या जो बेहद चिन्ता और परेशानी में बीते?
अब यह दूसरी खबर...
श्रीनगर के शम्सवाडी इलाके में रहने वाले निसार को निर्दोष होने के बावजूद २३ साल की यातनाभरी कैद की सजा भोगनी पडी। निसार ने सोलह साल की उम्र में अपने परिवार के कश्मीरी शॉल के कारोबार में रूचि लेनी प्रारंभ कर दी थी। पिता खुश थे। बेटा उनके कारोबार में साथ देने लगा था। पिता का अपने पुश्तैनी शॉल के कारोबार को अधिकतम ऊंचाइयों तक ले जाने का इरादा था। अकेले होने के कारण उनका सपना पूरा नहीं हो पा रहा था, लेकिन अब मेहनती और महत्वाकांक्षी बेटे के हाथ बटाने के कारण उन्हें लगने लगा था कि अब वो दिन दूर नहीं जब उनके व्यापार का मनचाहा विस्तार होगा और खूब धन बरसेगा। चारों तरफ भरपूर खुशियां ही खुशियां होंगी। निसार कारोबार के सिलसिले में ही नेपाल गया था। इसी दौरान २१ मई १९९६ को नई दिल्ली के लाजपतनगर में हुए बम धमाके के आरोप में उसे गिरफ्तार कर लिया गया। इस धमाके में १३ लोगों की मौत और ३९ लोग जख्मी हुए थे। निसार ने बताया कि उसे गिरफ्तार तो नेपाल से किया गया था, लेकिन पुलिस ने मीडिया और अदालतों के सामने दावा किया कि उसे मसूरी से पकडा गया। उसकी गिरफ्तारी की तारीख भी उसे हिरासत में लेने के नौ दिन बाद की दर्शायी गयी। उन नौ दिनों के दौरान बडी बेरहमी से मारने-पीटने के बाद पहले मीडिया और फिर कोर्ट में पेश किया गया। गिरफ्तारी के वक्त वह था तो सोलह साल का, लेकिन पुलिस ने उसकी उम्र लिखी उन्नीस साल। बाद में उसके जन्म के प्रमाणपत्र भी दिखाए गये, लेकिन उनकी अनदेखी करते हुए उसे राजस्थान के समलेगी में एक बस में हुए धमाके का भी आरोपी बना दिया गया, जिसमें १४ लोग मारे गये थे। राजस्थान की जिस जेल में उसे रखा गया वहां चौबीस घण्टे घना अंधेरा रहता था। लोहे के दरवाजे में मात्र एक सुराख था, जिससे नाम मात्र की हवा और रोशनी आती थी। तीन महिने तक नहाना नसीब नहीं हो पाया। सिर के बालों, भौहों और दाढी तक में जुओं ने डेरा जमा लिया। बाद में दिल्ली की तिहाड जेल लाकर बंद कर दिया गया। जहां के हालात राजस्थान की जेल से कुछ बेहतर थे, लेकिन यहां पर भी कैदी ठूस-ठूस कर भरे थे। ७५ कैदियों की क्षमता वाली बैरक में लगभग दो सौ लोग कैद थे। यहां पर खूंखार कैदियों का राज चलता था। कभी दिल्ली तो कभी राजस्थान की जेल में सडने को मजबूर निसार ने छूटने की उम्मीद ही छोड दी थी। मुकदमा qखचता ही चला जा रहा था। कभी जज का तबादला हो जाता था, तो कभी गवाह हाजिर नहीं होते थे। qकचित भी कोई सबूत नहीं था, जो निसार को धमाकों से जो‹डता। अंतत: निसार को रिहाई तो मिली, लेकिन तब तक उसकी जिन्दगी के २३ साल बरबाद हो चुके थे। फिर भी निसार का आत्मबल अभी जिन्दा था। नये सिरे से जिन्दगी की शुरुआत के संकल्प के साथ वह घर लौटा, लेकिन कुछ ही दिनों के बाद कोरोना की बीमारी की वजह से फिर से घर में ही कैदी बनकर रहने की नौबत आ गयी। २३ साल तक बंद जेल में रहने के बाद खुली जेल में सांस लेते निसार को लोगों के तरह-तरह के सवालों ने भी खासा परेशान किया। कई बार तो ऐसा भी होता कि वह किसी रिश्तेदार के आने से पहले ही अपने कमरे में चला जाता और उसके जाने के बाद ही बाहर निकलता। अभी भी हालात वैसे के वैसे हैं। कोई जब पूछता है कि आगे क्या करने का इरादा है, तो ऐसा लगता है कि सवाल की बजाय सीने में तीर मारा गया है। उसे हर हालत में कोई काम चाहिए। रोजगार के लिए पैसे नहीं हैं और नौकरी देने को कोई तैयार नहीं। सभी डरते हैं। उनकी निगाह में वह अभी भी अपराधी है। खूंखार हत्यारा है। उसके जेल में कैद होने के दौरान पिता चल बसे थे। निसार जैसे न जाने कितने लोग हैं, जिन्हें पुलिस की साजिश और गलती का शिकार होकर अपनी जिन्दगी के कई कीमती साल खोने पडे हैं। दुनिया की कोई भी ताकत उन्हें नहीं लौटा सकती। पुलिस की वजह से कितने बेकसूर जेलों में सड रहे हैं, इसका कोई हिसाब नहीं है। किसी को इसकी चिन्ता भी नहीं है।
एक के बाद एक निर्मम हत्याएं कर देश की राजधानी दिल्ली में दहशत फैलाने वाले एक सीरियल किलर ने अदालत में अपना बयान दर्ज कराते हुए बताया था कि वह तो बिहार से रोजी-रोटी कमाने के इरादे से दिल्ली आया था, लेकिन पुलिस ने उसे हत्यारा बना दिया। वह जिस इलाके में सब्जी बेचता था, वहां का बीट कांस्टेबल उससे बार-बार वसूली करता था। जब कभी वह उसकी मांग पूरी नहीं कर पाता तो वह उसे मारता-पीटता तथा झूठे मुकदमे दर्ज करवा देता। उसके कारण कई बार उसे जेल जाना पडता था। उसे खाकी वर्दीधारी पर बडा गुस्सा आता था, लेकिन वह उसका तो कुछ बिगाड नहीं सकता था। इसलिए उसने अपना गुस्सा उतारने तथा पुलिस को चुनौती देने के लिए निर्दोष लोगों की गर्दनें काटनी शुरू कर दीं। सीरियल किलर को फांसी की सजा सुनाते हुए अदालत ने पुलिस व्यवस्था पर जो तल्ख टिप्पणी की वो यकीनन काबिलेगौर है, "अभी तो इस व्यवस्था के कारण एक हत्यारा पैदा हुआ है, लेकिन अगर यही सिलसिला चलता रहा तो न जाने कितने सीरियल किलर व्यवस्था को चुनौती देने के लिए जन्म लेंगे। यही समय है, जब इस विषय पर गंभीरता से सोचा जाना चाहिए।" लगभग आठ वर्ष पूर्व अदालत के द्वारा व्यक्त किये गए खतरे और चिन्ता पर किसी ने भी गौर नहीं किया। जो हालात तब थे, वो आज भी हैं...।
भारतीय जेलों में उनकी क्षमता से बहुत अधिक कैदी भरे हुए हैं। इसी वजह से जेलों की बदहाली खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही है। यह भी गजब ही है कि जेल में बंद कुल कैदियों में आधे से ज्यादा विचाराधीन कैदी हैं। उनके मामलों में अभी कुछ भी सिद्ध नहीं हुआ है। इनमें कई कैदी निर्दोष भी हो सकते हैं फिर भी वर्षों से जेल में कैद हैं। कई कैदी तो ऐसे भी हैं, जो अपने आरोप के लिए संभावित सजा की अवधि से कहीं बहुत अधिक समय जेल में बिना कुछ सिद्ध हुए बिताने को मजबूर हैं। उनकी कोई सुननेवाला भी नहीं है। यह अधिकांश आरोपी इतने सक्षम ही नहीं हैं, कि वे अपने लिए कोई अच्छा-सा वकील रख सकें। यह सच भी अत्यंत स्तब्धकारी है कि देश भर की जेलों में उच्च शिक्षित कैदियों की अच्छी-खासी तादाद है। इनमें अधिकांश इंजीनियरिंग और मास्टर्स की डिग्री रखने वाले लोग हैं। टेक्निकल की डिग्री रखने वाले ज्यादातर कैदियों पर दहेज, हत्या और दुष्कर्म के आरोप हैं। इसके अलावा कुछ ऐसे भी हैं, जिनपर आर्थिक अपराधों के आरोप लगे हैं। मानवता का तकादा और नियम तो यह कहता है कि विचाराधीन कैदियों को अपराध सिद्ध होने तक निर्दोष माना जाए, लेकिन उन्हें अपराधी मानकर यातनाएं दी जाती हैं। जेलों को सुधार गृह की बजाय यातना स्थल बना दिया गया है। सच तो यह है कि जेल का उद्देश्य किसी भी अपराधी को उसके अपराध के लिए दण्डित करने के साथ-साथ स्वयं में सुधार लाने का एक अवसर देना भी है। इसी उद्देश्य से ही जेलों में कैदियों को पढने-लिखने से लेकर कौशल विकास करने तक के अवसर उपलब्ध कराये जाते हैं। बावजूद इसके अधिकांश जेलों में कैदियों के साथ कहीं कम तो कहीं ज्यादा पशुओं जैसे सलूक का दस्तूर ही सतत चला आ रहा है।

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