Thursday, January 7, 2021

खून-पसीना, खेत-खलिहान... किसान

    सरकार ने कानून बनाया। कई किसानों को रास नहीं आया। हाड कंपाने वाली सर्दी में भी वे सडकों पर उतर आये। कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे किसान आंदोलन ने देश के अन्नदाता की दुर्दशा की याद दिला दी। उन पन्नों को भी खोल दिया, जिनमें अन्नदाताओं की आत्महत्याओं की दर्दनाक हकीकतें दर्ज हैं। यह हकीकतें चीख-चीखकर कहती हैं कि इस देश के किसान के साथ न्याय नहीं हुआ। उसने धरती का सीना चीरकर सभी की भूख मिटायी, लेकिन वह और उसके बाल-बच्चे भूखे रहे। उसकी झोली कर्ज से भरती रही। उसे कभी ज़हर पीकर तो कभी फांसी के फंदे पर झूलकर इस बेरहम दुनिया को अलविदा कहना पडा। महात्मा गांधी को गुजरे हुए ७० साल से ज्यादा का वक्त गुज़र चुका है। उन्होंने अपने जीवनकाल में अपने अखबार 'हरिजन' में यह लिखकर सत्ताधीशों को आगाह किया था कि, "अन्नदाता की निराशा और नाखुशी उनकी असफलता की निशानी है। जो सरकार किसान को न्याय नहीं दे सकती, वह सरकार नहीं, कुछ अराजक तत्वों का समूह होती है।" समाजवादी चिन्तक डॉ. राम मनोहर लोहिया का तो यह मानना था कि जिस देश में किसान निराश, हताश और मुसीबतों का मारा रहेगा उस देश की सुरक्षा तो बडी से बडी फौज भी करने में असमर्थ रहेगी। दोनों महान चिन्तक अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन जिन खतरों और संकटों को लेकर उनकी नींद उडी रहती थी वे तो आज विकराल रूप धारण कर चुके हैं। किसानों की आत्महत्याओं की खबरों को छापते-छापते अखबार थक गये हैं। न्यूज चैनल वालों ने भी किसानों की फांसी पर झूलने की वजहों पर चर्चाएं-परिचर्चाएं आयोजित करनी बंद कर दी हैं। उन्होंने इसे लाइलाज बीमारी मान लिया है।
देश और प्रदेश सरकारें किसानों को हजारों करोड की सहायता देने की घोषणाएं करती रहती हैं फिर भी किसान जहां के तहां हैं। वही आर्थिक तंगी। निराशा, गरीबी और बदहाली। खेती-किसानी तो बस घाटे का सौदा बनकर रह गयी। किसानों की उपज की बदौलत कितने चतुर व्यापारी मालमाल हो गये। नवधनाढ्यों की कतार लग गयी। उनके अरबों खरबों के बंगले तन गये। आलीशान महंगी से महंगी कारों की कतार लग गयी। देश के अधिकांश उद्योग-व्यापार पर कब्जा हो गया। उनकी बीवियां रानियों जैसी सुख-सुविधाओं का सुख भोगने लगीं। बच्चों ने राजा महाराजाओं को मात दे दी। छोटे किसानों की खेती बिकती चली गयी। बडे किसान और बडे हो गये। नेताओं, व्यापारियों, कारोबारियों, नौकरशाहों ने अपने काले धन से औने-पौने दामों में किसानों की खेती की जमीनें खरीदकर एक से एक फार्महाऊस बनाकर अपनी मौजमस्ती के साधनों में इजाफा कर लिया। खेतों में दिन-रात अपना खून-पसीना बहाने वाले किसान को इस काबिल ही नहीं बनने दिया गया कि वह अपनी फसल के भाव तय कर सके। मेहनत उसकी और कब्जा बिचोलियों, आढतियों और बाजार का। ऐसे में वह कभी उठ ही नहीं पाया। बस कर्ज के बोझ में दबता रहा और खुदकुशी के आंकडों को बढाता रहा।
    यह भारतीय किसान की सच्ची कहानी है। बर्बादी और बदहाली उसकी नियति बनाकर रख दी गई है। उससे उसका जीने और अपनी व्यथा बताने का अधिकार भी छीन लिया गया है। सरकार कहती है कृषि कानून किसानो के ही हित में हैं, लेकिन किसान कई हफ्तों से विरोध में डटे हैं। दिल्ली की सीमाओं पर कडकती ठंड और बरसात में खुले आसमान के नीचे बैठे किसानों की मांग है कि उनके विकास के नाम पर बनाए गये तीनों कृषि कानून वापस लिए जाएं। इनसे उन्हें नहीं व्यापारियों, कारोबारियों को ही फायदा मिलेगा। वे तो बस कारपोरेट के गुलाम होकर रह जाएंगे। सरकार की निगाह में यह केवल किसानों का आंदोलन नहीं। आंदोलनकारियों में मोदी तथा भाजपा विरोधियों ने भी घुसपैठ कर ली है। यह घुसपैठी किसानों और सरकार के बीच सहमति नहीं बनने दे रहे हैं।
आंदोलन में महिलाएं भी कंधे से कंधा मिलाकर पुरुषों के साथ खडी हैं। कई महिलाएं शहीद भगत सिंह की याद में पीले वस्त्र धारण कर विरोध प्रदर्शन करने पहुंची। पत्रकार के पूछने पर उन्होंने बताया कि भगत सिंह उनके दिल में बसे हैं इसलिए वे पीले वस्त्र ही पहनती हैं। ट्राली में बैठी ७० साल की तंदुरुस्त भरे चेहरे वाली जसप्रीत कौर २००६ में भी एक आंदोलन में शरीक होने के कारण जेल जा चुकी हैं। आंदोलन में शामिल पुरुषों की तरह उनका उत्साह भी देखते बनता है। वे जोश भरे स्वर में कहती हैं, "हम हार मानने वालों में नहीं। हमने तो लडना ही सीखा है। ठंड हो या बैरिकेड या वाटर कैनन से पडने वाली पानी की ठंडी-ठंडी बौछारें, उन्हें कोई फर्क नहीं पडता। हम किसान हैं। माटी की संतानें हैं, तो फिर डर काहे का। जसप्रीत के साथ आठ और महिलाएं भी ट्राली पर बैठी मिलीं। उन्हीं के साथ बैठकर अपनी स्कूल की पढाई करते एक दस साल के लडके ने बडे आत्मविश्वास के साथ कहा कि खेत तो हमारी विरासत हैं। अगर उन्होंने हमारे खेत ही ले लिए तो हम खाएंगे क्या, जिन्दा कैसे रहेंगे? पीले रंग की चुन्नी ओडे एमए कर चुकी बीस वर्षीय अमनप्रीत को भी तीनों कानूनों के प्रति नाराजगी है। उसका कहना है कि अगर हमारे पास जमीन ही नहीं होगी तो हम क्या करेंगे। उसके माता-पिता ने ही उसे यहां पर भेजा है। वह छह महीने की पूरी तैयारी के साथ यहां आई है। उसके गांव में बेटियों को भी जमीन में हिस्सा मिलता है। हंसते हुए तकलीफों का सामना कर रही महिलाओं को छोटी-मोटी दिक्कते हैं, लेकिन आसपास की फैक्टरियों में उन्हें अपने यहां के शौचालयों के इस्तेमाल की इजाजत दे दी है। वे हर दूसरे दिन नहाती हैं। इस जानलेवा ठंड में बाहर रहना आसान नहीं, लेकिन अपने हक की लडाई तो लडनी ही है। किसान आंदोलन का साथ और सहयोग देने वाले दृश्य और अदृश्य लोगों की कमी नहीं है। पुरुषों तथा स्त्रियों की जरूरतों की सभी चीज़े उपलब्ध हैं। साबुन, टूथपेस्ट, ब्रश, टावेल, चादर, कंबल, मौजे, शॉल, जूते, दवाएं तथा और भी बहुत कुछ...। भारत के किसानों के आंदोलन के समर्थन में अब पाकिस्तान के पंजाब के किसानों तथा कलाकारों ने अपनी आवाज बुलंद कर दी है। किसानों की चिन्ता और समस्या पर जज्बाती गीत लिखे जा रहे हैं। उनके गीतों में बंटवारे का भी दर्द है। पाक गीतकार विकार भिंडर के गीत का अर्थ है, "पंजाब के किसानों ने दिल्ली में डेरे डाल दिए हैं। किसान बेकार नहीं रहता। यह बात दिल्ली अच्छी तरह से समझ ले। धरने पर बैठे पंजाबियों ने सडकों के डिवाइडरों पर फसलें बो दी हैं। ये पंजाब की वो कौम है जो न किसी के साथ जबर्दस्ती करती है, न ही अपने साथ होने देती है। यह कौम तो सांप के फन पर पैर रखकर खेती की  सिंचाई करती है। ए आर वाटो ने लिखा है, 'खेती में हल चलाने वाले बैलों के साथ जो लडका जवान हुआ, उसे आज आतंकी कहा जा रहा है। वह अपने ही खेत में गुलाम हो जाने की आशंका में है। इसलिए ये किसान आज जज्बाती हो गया है। चढता पंजाब खुद को अकेला न समझे। किसानों के आंदोलन में कई पिताओं और मांओं ने अपने बेटे सदा-सदा के लिए खो दिये हैं।
    पंजाब के छोटे से गांव तुंगवाल के ३७ वर्षीय जयसिंह की आंदोलन के दौरान मौत हो चुकी है। सभी गमगीन हैं। घर में किसी की भी एक-दूसरे से आंख मिलाकर बात करने की हिम्मत नहीं बची। जय सिंह की ९५ साल की दादी को कृषि कानूनों के बारे में तो कुछ भी नहीं पता, लेकिन यह कहते हुए वह बार-बार रोने लगती है, सरकार के काले कानून ने मेरे पोते को मार दिया है। मेरे बुढापे की सारी खुशियां छीन ली है, लेकिन मेरा जवान हिम्मती पोता किसानी संघर्ष में शहीद हुआ है। वो अमर हो गया। उम्रदराज पिता का दर्द कुछ यूं छलकता है- "पूरे परिवार में अकेला वहीं कमाने वाला था, लेकिन अब सब खत्म हो गया है। उसकी दो छोटी-छोटी बेटियां तथा एक बेटा है। परिवार का भविष्य ही धुंधला गया है।"
    मोगा जिले के भिंडरकलां के किसान मखण खान की कुंडली बार्डर पर १४ दिसंबर को हार्ट अटैक के कारण जान चली गई। वह कई दिनों से किसानों के साथ डटा हुआ था। किसान मखण खान पर अपने और स्वर्गीय बडे भाई के परिवार को पालने की जिम्मेदारी थी। इस संयुक्त परिवार में चार लडके और दो लडकियां हैं। बेटियों की शादी तो मखण खान ने कर दी थी। अब घर में दो विधवाएं और चार मासूम लडके रह गये हैं, जिनकी उम्र सोलह साल से कम है।
    किसान आंदोलन के दौरान ही ६५ वर्षीय सिख प्रचारक राम सिंह सिंघडा ने गोली मार कर खुदकुशी कर ली। अपने लाखों अनुयायिओं के बीच वे संत बाबा सिंह जी के नाम से जाने जाते थे। उन्होंने आंदोलन के लिए पांच लाख रुपये और सैकडों कंबल वितरित किये थे। उनसे किसी का भी दुख देखा नहीं जाता था। किसान आंदोलन को लेकर वे काफी चिन्तित और दुखी थे। आत्महत्या करने से पहले बाबा जी ने अपनी डायरी में लिखा कि, ''मैंने किसानों का दुख देखा है। अपने हक के लिए उन्हें सडक पर इस तरह से लडते देखकर मैं काफी दुखी हूं। सरकार किसानों को न्याय नहीं दे रही है, जो कि जुल्म है। जो जुल्म करता है वह पापी है और जो सहता है वह भी पाप का भागी है। किसी ने किसानो के हक के लिए तो किसी ने किसानों पर हो रहे जुल्म के लिए कुछ न कुछ किया है। किसी ने पुरस्कार वापस कर सरकार को अपना गुस्सा दिखाया है। सरकार के इस जुल्म के बीच सेवादार आत्मदाह करता है। यह जुल्म के खिलाफ एक आवाज है। यह किसानों के हक के लिए आवाज है। वाहे गुरू जी का खालसा, वाहे गुरूजी की फतेह।
    २ जनवरी, २०२१ को खुदकुशी करने वाले ७५ वर्षीय किसान कश्मीर सिंह ने सुसाइड नोट में अपना अंतिम संस्कार दिल्ली सीमा पर करने की इच्छा जतायी। ठंड में दम तोडते कई किसानों ने चीख-चीखकर कहा कि हम न कांग्रेसी हैं, न भाजपाई, समाजवादी, अकाली और बसपा वाले। हम तो सिर्फ किसान हैं, जिन्होंने इसी देश में जन्म लिया है और यहीं की माटी में दफन हो जाएंगे। हम किसी के सिखाने-पढाने और बरगलाने में नहीं आने वाले...।

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