Thursday, September 16, 2021

फूट डालो, राज करो

    पटना से नई दिल्ली जा रही तेजस राजधानी एक्सप्रेस में अजीब तमाशा चल रहा था। तमाशेबाज थे बिहार के विधायक गोपाल मंडल। तेज रफ्तार से दौड़ती रेलगाड़ी में जब सभी यात्री सोने की तैयारी में थे, तब पता नहीं उन्हें क्या सूझी कि उन्होंने अपने कपड़े उतार फेंके। अखाड़े के पहलवान की तरह चड्डी-बनियान में वे कंपार्टमेंट से कंपार्टमेंट का सैर-सपाटा करने लगे। उनकी नंग-धड़ंग घुमायी को देखकर सहयात्री हैरान-परेशान हो गये। महिलाओं ने शर्म से अपनी नज़रें इधर-उधर टिकानी प्रारंभ कर दीं। फिर भी घंटों विधायक के अश्लील दीदार होते रहे। काफी देर बाद भी जब उनका रेल गाड़ी में बदमाशों की तरह टहलना बंद नहीं हुआ तो पुरुष सहयात्रियों ने उन्हें कम अज़ कम गमछा या टावेल लपेट लेने को कहा, तो वे भूखे शेर की तरह गुर्राते हुए बदतमीजी पर उतर आए, ‘यह रेलगाड़ी तुम लोगों के बाप की नहीं, जो मुझे रोक-टोक रहे हो। फिर मैं कोई आम इंसान नहीं, विधायक हूं। वो भी उस पार्टी का, जिसका बिहार में शासन चल रहा है।’ सत्ता के नशे में चूर विधायक ने शराब भी जम कर पी रखी थी। उसकी डगमगाती चाल और बेकाबू जुबान बता रही थी कि वह जनप्रतिनिधि होने के काबिल बिलकुल नहीं है। बाहुबल, जात-पात और धनबल के दम पर यह दंभी और ओछा शख्स विधायक बनने में कामयाब तो हो गया है, लेकिन इंसानियत इससे कोसों दूर है। ये जनप्रतिनिधि खुद को सर्वशक्तिमान माने है और दूसरों को कीड़ा-मकोड़ा। जिसे लोगों के साथ उठने-बैठने और व्यवहार करने का सलीका नहीं पता वो अपने क्षेत्र की उस जनता के खाक काम आता होगा, जिसने इसे अपना कीमती वोट दिया है। सारी रात सहयात्रियों को अपनी नंगाई दिखाने और उन्हें गोली से उड़ा देने की धमकी देने वाले घटिया विधायक के खिलाफ थाने में रिपोर्ट तो दर्ज करवा दी गयी है, लेकिन सभी जानते हैं कि उसका बाल भी बांका नहीं होने वाला।
    सरकारी संपत्ति को अपने बाप-दादा, परदादा की जागीर समझने और खुलेआम हेकड़ी दिखाने की गुंडे बदमाशों वाली गंदगी और भी कई राजनेताओं के खून में समायी हुई है। देशभर के दलितों के खैरख्वाह होने का दावा करने और सिर्फ और सिर्फ मंत्री की कुर्सी के लिए जीवनपर्यंत पगलाये रहने वाले स्वर्गीय राम विलास पासवान के सांसद बेटे चिराग पासवान को भी घमंड हो गया है कि वह दलितों और शोषितों का एकमात्र मसीहा है। यह हकीकत दीगर है कि वह अपने बाप के नाम की बैसाखी पकड़ कर राजनीति के मैदान में कूदने-फादने के लायक बन पाया है। सभी को पता है कि देश की राजधानी में नेताओं को उतने समय तक सरकारी बंगला दिया जाता है, जब तक कि वे सांसद रहते हैं। चुनाव में पिट जाने अथवा निधन के पश्चात उस बंगले पर उनका या उसके परिजनों का कोई हक नहीं रहता, लेकिन अहंकारी और मंदबुद्धि वाले चिराग तो खुद को दूसरों से ऊंचा मानते हैं तभी तो अपने पिता केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान के गुजर जाने के बाद भी 12, जनपथ बंगले पर खूंटा गाड़ कर जमे हुए हैं। हद तो ये भी कि बंगले को अपने पिताश्री के नाम का स्मारक बनाने के लिए उन्होंने ‘राम विलास पासवान स्मृति’ बोर्ड तक टांग दिया है। उनका कहना है कि उनके पिताश्री इस देश के महान राजनेता थे, इसलिए उनके नाम को अमर रखने के लिए ही उन्होंने बोर्ड लगाने का करिश्मा किया है। यानी चिराग बाबू को पता था कि सरकार तो यह महान काम करने से रही इसलिए उन्होंने ही यह ‘पुण्य’ कर दिखाया! लेकिन उन्हें यह नहीं पता कि जबरन अपनों की याद में ‘स्मृतिभवन’ अपनी ही जमीन पर बनाये जाते हैं। सरकारी जमीन पर नहीं।
    येन-केन-प्रकारेण सरकारी बंगलों को हथियाने की ऐसी  कलाकारियां हिंदुस्तान में ही दिखायी जाती हैं। विदेशों में तो मंत्री, सांसद, विधायक अपना कार्यकाल समाप्त होते ही सरकारी बंगले खाली कर चलते बनते हैं, लेकिन यहां एक बार सांसद, मंत्री बन क्या जाते हैं कि सरकारी जमीनों को कब्जाने और हथियाने में दिमाग खपाने लगते हैं। देश के प्रदेश झारखंड में भारतीय जनता पार्टी के विधायकों ने विधानसभा के प्रांगण में गले में जयश्री राम लिखा अंगवस्त्र पहनकर हनुमान चालीसा का पाठ किया। विधानसभा भवन में इस पूजा-पाठ की वजह बनी सरकार की मुस्लिम तुष्टिकरण की चालाकी, जिससे वशीभूत होकर विधानसभा में नमाज अदा करने के लिए एक अलग कमरा निर्धारित कर दिया गया। विधानसभा तो जनहित के लिए चिंतन-मनन करने और कानून बनाने के लिए है, लेकिन झारखंड की सरकार ने लोकतंत्र के मंदिर में मुसलमान विधायकों को नमाज के लिए अलग कमरा आवंटित कर पाखंडी राजनेताओं की असली नीयत और मंशा उजागर कर दी है। पूजा, अर्चना और नमाज के लिए देश में मंदिरों और मस्जिदों की कोई कमी नहीं है। यदि प्रदेश की सरकार को अपने विधायकों, मंत्रियों, संत्रियों के पूजा-पाठ की इतनी ही चिन्ता-फिक्र थी तो अन्य सभी को भी खुले मन से कमरे आवंटित कर देती, जिससे झमेला और हंगामा तो नहीं होता, लेकिन सत्ताधीशों को ऐसे खेल खेलने में मज़ा आता है। लोगों के बीच उन्माद फैलाये बिना उन्हें खुद के नेता होने की अनुभूति ही नहीं होती। जहां मौका पाते हैं, वहीं मजहबी दीवारें खड़ी करने की साजिशें करने लगते हैं, ताकि देशवासी बंटे रहें। एक-दूसरे से लड़ते-झगड़ते रहें। कट्टरता पनपती रहे। खून-खराबा होता रहे। लाशें बिछती रहें और इनके वोटों की फसल पकती रहे...।

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