Thursday, September 30, 2021

पैसा फेंको, तमाशा देखो

    वो साधु थे। सभी को उपदेश देते थे। भागो नहीं, लड़ो। हर मुश्किल का डटकर सामना करो। भागोगे तो भगौड़े कहलाओगे। लोग थू...थू करेंगे। कहेंगे, कायर था। शक्तिशाली होने का दिखावा कर रहा था। उसके अंदर तो जान ही नहीं थी। एकदम खोखला था। बस लोगों को बेवकूफ बनाता रहा। अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरि महाराज अपने भक्तों, अनुयायियों, श्रोताओं और साथियों को यही तो कहते और समझाते थे, लेकिन वे खुद ही फांसी के फंदे पर झूल गये! उनके आठ पेज के सुसाइट नोट ने उन्हें ही कमजोर साबित कर दिया। जब मैदान में लड़ने की बारी आयी तो पीठ दिखाकर भाग खड़े हुए। सदा-सदा के लिए दुनिया से मुंह मोड़ लिया। किसी भी प्रभावी साधु-संत, प्रवचनकर्ता उपदेशक का इस तरह से धरा का त्याग करके चले जाना सवाल तो खड़े करता ही है। महंत नरेंद्र गिरि की आत्महत्या की खबर सुनते ही मुझे तुरंत आधुनिक संत भय्यू महाराज की याद हो आयी, जिन्होंने कुछ वर्ष पूर्व खुद को गोली मारकर खत्म कर दिया था।
    भय्यू महाराज एक अच्छे प्रभावी उपदेशक थे। खासा मान-सम्मान था। मीडिया में अक्सर छाये रहते थे। आम लोगों के साथ-साथ खास लोग भी उनके भक्त थे। देश के कई राजनेताओं से उनके करीबी रिश्ते थे। नेता और समाजसेवक उन्हें अपने मंचों पर आदर के साथ बिठाते थे। उनकी सलाह ली जाती थी। अनुसरण भी किया जाता था। उनका पहनावा आम साधुओं वाला नहीं था। कभी कुर्ता-पायजामा, कभी जींस, टी-शर्ट तो कभी पैंट कोट में किसी फिल्मी सितारे की तरह चमक बिखेरते नजर आते थे। जब वे प्रवचन देते तो लगता था कि उन्होंने धर्मग्रंथों में अपना दिमाग खपाया है। उनमें परंपरागत साधु-संतों की सभी खूबियां विद्यमान हैं।
    उनके पास धन-दौलत भी बेहिसाब थी। संतई के आकाश में चमकते इस प्रतिभावान चेहरे को भौतिक सुखों से भी बेहद लगाव था। महंगी-महंगी कारों में सफर करने और आलीशान बंगलों में रहने का शौक था। उन्होंने अचानक जब आत्महत्या कर ली तो हर किसी को वैसी ही हैरानी हुई थी, जैसी महंत नरेंद्र गिरि की खुदकुशी पर हुई। महंत की संदिग्ध मौत ने भी कई सवाल खड़े किये। जो भगवाधारी करोड़ों लोगों का सम्मान पाता रहा। जिसके दरबार में सत्ताधीश नतमस्तक होते रहे वही अंतत: भय्यू महाराज की तरह बदनाम होने के भय से इस दुनिया से ही हमेशा-हमेशा के लिए विदा हो गया! उनके साथ भी नारी के जुड़ाव की खबरें उछलीं। भय्यू महाराज तो रसिक प्रवृत्ति के थे ही, लेकिन नरेंद्र गिरि को कभी भी भटकते नहीं देखा गया। आरोप लगाने वाले तो किसी को भी नहीं छोड़ते, लेकिन सभी खुदकुशी तो नहीं कर लेते। नरेंद्र गिरि तो नकली साधुओं के खिलाफ मोर्चा खोल चुके थे। उन्हें संतों की भीड़ में मंडराते असंतों की पहचान करनी थी, लेकिन वे भी भय्यू महाराज की तरह अपने आसपास के चेहरों को पहचान नहीं पाये और रेशमी ब्लैकमेलिंग के डर से भाग खड़े हुए।
    सोच कर ही हैरानी होती है कि कोई अपराधी किसी संत पर औरतबाज और व्याभिचारी होने का आरोप जड़े और संत की रातों की नींद ही उड़ जाए! भय्यू महाराज और नरेंद्र गिरि के सफेद और भगवा लिबास पर किन्हीं शातिर ब्लैकमेलरों ने कीचड़ क्या फेंका कि उन्होंने वो कीचड़ सने गंदे वस्त्र उतार फेंकने की बजाय अपनी देह को ही निर्जीव कर दिया। जैसे देह ही सारे कष्टों की वजह हो। उन्होेंने खुदकुशी करने से पहले यह भी नहीं सोचा कि इससे उनकी वर्षों की तपस्या और प्रतिष्ठा की भी मौत होने जा रही है। उन पर कहीं न कहीं कायर और भगौड़े का भी ठप्पा लगने जा रहा है। जब सच्चे संत ही आरोपों और लांछनों का जवाब देने से घबरायेंगे... कतरायेंगे तो उन्हें कटघरे में तो खड़ा किया ही जाएगा। कौन नहीं जानता कि अपने हिंदुस्तान में अधिकांश धार्मिक स्थल अपराध और अपराधियों की शरणस्थली के लिए भी कुख्यात हैं। साधुओं के भेष में कई असाधु, चोर-उचक्के विभिन्न तीर्थ स्थलों पर पहुंच चुके हैं, जिन्हें भीड़ में पहचानना भी मुश्किल हो रहा है। कुख्यात डकैत, हत्यारे, बलात्कारी भी केसरिया वस्त्र धारण कर किस तरह से लोगों की आंखों में धूल झोंक रहे हैं, इसका जीता-जागता उदाहरण है डकैत शिवकुमार उर्फ ददुआ, जिसने खुद रहस्योद्घाटन किया था कि बरसात के दिनों में वह चित्रकूट में भगवा वस्त्र धारण कर महीनों बड़े आराम से छुपा रहता था। कोई भी उसे पहचान नहीं पाता था। अभी हाल ही में लेखक ने अखबारों में खबर पढ़ी है कि अयोध्या में एक ऐसे खूंखार अपराधी को पुलिस ने दबोचा है, जिसकी उसे वर्षों से तलाश थी। पुलिस यह जानकर हतप्रभ थी कि भगवान राम की जन्मभूमि अयोध्या में वह ‘महंत’ का ताज पहने बड़े मज़े कर रहा था। उसके कई अनुयायी भी थे, जो उसके सच्चे संत होने के धुआंधार प्रचार में लगे हुए थे।
विभिन्न धार्मिक नगरियों में महंत और महामंडलेश्वर बनना बड़ा आसान है। पैसा फेंको और तमाशा देखो। चरित्र से कोई लेना-देना नहीं। कुछ वर्ष पूर्व नोएडा के एक अरबपति शराब कारोबारी सचिन दत्ता को महामंडलेश्वर की पदवी से नवाजा गया था। बड़ा शोर मचा था। शराब के काले धंधे से मालामाल हुए सचिन दत्ता का धर्म से कोई जुड़ाव नहीं था। दूसरों को नशे में डुबोने वाला खुद भी हर नशे का गुलाम था। महामंडलेश्वर बनना भी उसके शौक और नशे का हिस्सा था। धर्म भी उसके लिए धंधा था और इस नये धंधे की बदौलत वह शराब तथा अपने अन्य अवैध धंधों का विस्तार करना चाहता था। उसे मान-सम्मान की भी बेइंतिहा भूख थी, जो उसे शराब के काले धंधे से हासिल नहीं हो पा रही थी। उसने कई संदिग्ध चेहरों को संत का चोला ओढ़कर अपना सिक्का जमाते और मालामाल होते देखा था। उसको पता चल गया था कि धर्म-कर्म में भी बहुत बड़ा व्यापार है और यहां अथाह धन के भंडार भरे पड़े हैं, जो किसी का भी ईमान डिगा सकते हैं। उसे वो भीड़ भी ललचाती थी, जो किसी भी भगवाधारी के चरणों में गिरकर खुद को खुशकिस्मत मानती है।

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