Thursday, September 9, 2021

गंगा-जमुना महिला गृह उद्योग

    शहर के बदनाम गंगा-जमुना इलाके में एक बहुत पुराना-सा हवेलीनुमा मकान। ढहने और बिखरने को आतुर पुरानी ईंटो की थकी हुई दीवारें। कुछ दिन पहले तक इस विशाल कोठे में रौनक की रोशनी थी। आज सन्नाटा, अंधेरा और ठहरापन है, जो किसी को भी खौफज़दा कर सकता है। पंद्रह कमरों वाले इस कोठे के तेरह कमरों के दरवाजों पर ताले जड़े जा चुके हैं। वेश्याएं यानी वारांगनाएं खाली कर इधर-उधर जा चुकी हैं। मजबूरन अपने वर्षों के ठिकाने को छोड़कर जा चुकी वारांगनाओं का यहां से पीठ करके जाने का बिलकुल मन नहीं था। अब इस कोठे में चार वारांगनाएं बची हैं। इनमें से एक बीस वर्षीय युवती है, जिसे कुछ महीने पूर्व ही अपने प्रेमी की दगाबाजी के चलते जिस्म बेचने के धंधे को अपनाना पड़ा है। इन चारों का यहां से रुखसत होने का कोई इरादा नहीं, लेकिन जो हालात हैं, वो शायद ही इन्हें यहां चैन से टिकने दें। चारों अपने-अपने भविष्य को लेकर बीते बीस दिनों से माथापच्ची कर रही हैं। कोठे की मालकिन कल्याणी अस्सी वर्ष की हो चुकी है। चारों का भविष्य अनुभवी, उम्रदराज कोठे की मालकिन कल्याणी के निर्णय पर टिका है। वे हमेशा कल्याणी की हर बात मानती आयी हैं। कल्याणी भी उन्हें अपनी संतान से कम नहीं चाहती। कल्याणी की एक सगी बेटी और जवान बेटा कोविड-19 की भेंट चढ़ चुके हैं। लॉकडाउन में भले ही ग्राहक कम आते थे, लेकिन भूखे सोने की नौबत नहीं आती थी, लेकिन अब तो कभी चूल्हा जलता है, कभी नहीं। जबसे गंगा-जमुना में आने वाले रसिकों का रास्ता रोकने के लिए पुलिस का पहरा लगा है और बेरीकेट्स लगाये गये हैं, तब से कल्याणी गहरे सदमें में है। उसने अपने बेटी-बेटे को सदा-सदा के लिए खोने के गम को तो किसी तरह से बर्दाश्त कर लिया, लेकिन देहमंडी की सैकड़ों वेश्याओं पर आये जानलेवा संकट की चिंता और तकलीफ उसे दिन-रात खाये जा रही है। उसने कई दिनों से किसी से बातचीत नहीं की है। बस चुपचाप खटिया पर लेटी पता नहीं क्या-क्या सोचती-विचारती रहती है।
    सुबह से दोपहर होने को है। युवती ने सुबह बड़ी मुश्किल से उसे चाय पीने को राजी किया था। खाना तो पता नहीं उसने कितने दिनों से नहीं खाया। ऐसे में चारों ने भी बिना खाये रहना सीख लिया है। गंगा-जमुना रोड पर दोनों तरफ कच्चे-पक्के मकानों की लंबी कतारें हैं, जिनमें कुछ वेश्याएं ही अभी तक टिकी हुई हैं। पुलिस की तीखी निगाहें हर पल इनकी लाल ईंटों वाले घरों पर गढ़ी रहती हैं। उनके होते कोई ग्राहक तो आने से रहा। बेरोजगारी और भूख अब लगभग हर छोटी-बड़ी वेश्या का मुकद्दर है, क्योंकि इस बदनाम बस्ती के वजूद के खात्मे के लिए शासन-प्रशासन ने पूरी तरह से कमर कस ली है। तब की बात अलग थी, जब लगभग ढाई सौ वर्ष पहले इस बस्ती का उत्कर्ष काल था। इतिहास के पन्ने बताते हैं कि देहमंडी से पहले यहां पर भोसले राजा की घुड़साल थी। भोसले राज नागपुर से लेकर मध्यभारत, झारखंड और उड़ीसा तक फैला था। थके-हारे सैनिक जब यहां आते थे, तो घुड़साल के निकट आराम फरमाते थे। उनके मन बहलाने के लिए कई राज्यों की तवायफों को यहां पर निमंत्रित किया जाता था। यही तवायफें नाच, गीत गायन और मुजरे से दिल बहलाकर सैनिकों की थकान उतारती थीं। तब एक लड़की थी गंगा, जिसका तब जबरदस्त जलवा था। उसकी थिरकन हर किसी का मन मोह लेती थी। जब उसकी उम्र जवाब देने लगी तो उसकी जगह उसकी छोटी बहन जमुना ने ली। उन्हीं नर्तकियों में कुछ ऐसी भी होती थीं, जो मौका देख अपनी देह तक अर्पित कर देती थीं। वर्ष दर वर्ष बीतने के बाद नाचने-गाने वाली तवायफों की जगह वेश्याओं का वर्चस्व बढ़ता चला गया। हवसखोरों को देह-सुख देने वाली इस देहमंडी को दूर-दूर तक ‘गंगा-जमुना’ के नाम से जाना जाने लगा।
    अपने उदय काल में यह बस्ती वीराने में थी, दूर-दूर तक सन्नाटा पसरा रहता था, लेकिन धीरे-धीरे बस्ती में मस्ती खोरों की बड़ी संख्या में आवाजाही और शहर के फैलने के साथ-साथ लोगों ने इसी बस्ती के आसपास कौड़ी के मोल जमीनें खरीदकर अपने आशियाने तान लिए। दुकानें भी खुल गईं। शराबखाने भी आबाद होते चले गये, जहां मेलों-सी भीड़ लगने लगी। कालांतर में इसी भीड़ ने शरीफों को चिंतित और विचलित करना प्रारंभ कर दिया। उन्हें अपनी बहन, बहू, बेटियों की इज्जत खतरे में पड़ती नजर आने लगी। फिर तो धड़ाधड़ विरोध के स्वर उठने लगे। समाजसेवक और नेता इस बदनाम बस्ती की हस्ती मिटाने या कहीं बहुत दूर ले जाने की मांग का बिगुल बजाने और बजवाने लगे, लेकिन इस बार का नगाड़ा कुछ ज्यादा ही तेज और कर्कश हो गया है। गंगा-जमुना के कोठों और विभिन्न ठिकानों पर ताले जड़वाने वाले पुलिस आयुक्त का फूल-मालाएं पहनाकर आदर-सत्कार और अभिनंदन किया गया। किस्म-किस्म के नेता और समाजसेवक भी आमने-सामने आ गये। कुछ को बाजार में बेरीकेट्स लगवाना अन्याय लगा, तो कुछ को अत्यंत हितकारी।
    दोपहर धीरे-धीरे शाम की ओर खिसकती जा रही है। चारों वारांगनाओं को कल्याणी के निर्णय का बेसब्री से इंतजार है। शहर के कुछ दैनिक समाचार पत्रों तथा न्यूज चैनल के संवाददाता कोठी के बरामदे में जमा होने लगे हैं। चारों देहजीवाएं अपने-अपने भविष्य को लेकर आशंकित और घबरायी हुई हैं। देह के धंधे में कुछ ही महीने पहले धकेली गयी युवती को आज बार-बार उस युवक की याद आ रही है, जो लगभग रोज उसके पास आता और नोट लुटाता था। दरअसल, वह उसकी खूबसूरती पर मर मिटा था और युवती उसकी मासूमियत पर। उसे पता नहीं क्यों पक्का भरोसा हो चला था कि यही नौजवान उसे इस दलदल से बाहर निकाल सकता है, इसीलिए उसने एक रात अपने मन की बात कह दी थी, ‘‘जब तुम मुझे इस कदर चाहते हो तो मुझे अपनी पत्नी क्यों नहीं बना लेते?’’ युवक ने ऐसे चौंकाने वाले प्रस्ताव की कभी उम्मीद नहीं की थी। फिर भी उसने जवाब देने में देरी नहीं लगायी, ‘‘यदि तुमने अपना कुंआरापन नहीं खोया होता तो मैं तुमसे शादी करने में एक पल भी देरी न लगाता।’’ उसके इस जवाब ने उसपर ऐसी बिजली गिरायी कि उसका पूरा बदन ही नहीं दिल-दिमाग भी झुलस कर रह गया।
घना अंधेरा होने से पहले कल्याणी ने भी अपना निर्णय सुनाते हुए सभी को हतप्रभ कर दिया है, ‘‘बहुत सोचने-विचारने के पश्चात मैंने अंतिम फैसला किया है कि अब मेरे इस कोठे में कभी भी वेश्यावृत्ति नहीं होगी। मेरी अभी तक की पूरी जिन्दगी इसी बदनाम पेशे में बीती है। मैं यह भी जानती हूँ कि इस बस्ती की सैकड़ों वारांगनाएं शहर से दूर जिस वीराने में भी अपना ठिकाना बनायेंगी, वहां पर कुछ ही महीनों में एक नयी देह की मंडी आबाद हो जाएगी। हवस के पुजारी बिना किसी विज्ञापन के अपने आप वहां पर पहुंचने लगेंगे। ऐसी कई बस्तियों को बनते और उजड़ते हुए मैंने अपनी आंखों से देखा है। आज जब सरकार हमें इस कीचड़ से निकालना चाहती है, तो हमें इस मौके को गंवाने की भूल नहीं करनी चाहिए। कब तक हम पुलिस के डंडे की मार के साथ इस नर्क को झेलती रहेंगी! यह हकीकत कितनी पीड़ादायी है कि चंद सिक्कों के बदले जिन्हें हम अपनी अस्मत और जवानी सौंप देती हैं वही अंतत: हमें अछूत करार दे देते हैं। ऐसा जीना किस काम का? अपना नहीं तो अपने बाल-बच्चों के अच्छे भविष्य के लिए सम्मानजनक तरीके से मेहनत-मजदूरी कर जीने-खाने से धीरे-धीरे हर कलंक धुल जाएगा। मैंने अपनी करोड़ों की कोठी जिसे कोठा कहा जाता है, किसी बिल्डर को बेचने की बजाय अपनी वारांगना बहनों, बेटियों को सौंपने का निर्णय लिया है। सरकार ने वेश्याओं के पुनर्वास के जो इरादे दर्शाये हैं उनके पूरे नहीं होने पर मैं खुद सड़क पर उतरूंगी। कुछ ही दिनों में गंगा-जमुना का एक नया चेहरा सभी के सामने होगा। इसकी शुरुआत हम सब मिलकर करने जा रही हैं। कोठे में ही महिलाओं को अपने पैरों पर अच्छी तरह से खड़े होने का प्रशिक्षण दिया जायेगा। यहीं पर रेडिमेड कपड़ों के निर्माण के लिए सिलाई मशीनें लगेंगी। आचार, पापड़, नूडल्स, मैगी, मसाले, नमकीन, साबुन, सर्फ आदि का निर्माण कर बस्ती की हर बहन-बेटी को आत्मनिर्भर बनाया जाएगा। मेरा दावा है कि, वो दिन दूर नहीं जब इसी बदनाम इलाके गंगा-जमुना को नारी शक्ति तथा हस्तकला उद्योग की शानदार बस्ती के रूप में जाना-पहचाना जाएगा। हम सभी बहनें साथ थीं और हमेशा साथ रहेंगी।’’

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