Thursday, December 9, 2021

रक्षक बनते भक्षक

    कोरोना काल में लगे लॉकडाउन ने लाखों भारतीयों को बरबाद कर दिया। देश की अर्थव्यवस्था की जो दुर्गति हुई वो अभी तक नहीं सुधरी है। एकाएक आयी महामारी के साथ ही कितनों-कितनों के काम धंधे चौपट हो गये, नौकरियां छूट गयीं। आर्थिक चोट से आहत होकर लगभग 11 हजार से अधिक उद्यमियों ने आत्महत्या कर ली। हम सबको पता ही है कि सरकारी और अखबारी आंकड़ों की सत्यता में हेरफेर होता है। वास्तविक सच कम ही सामने आ पाता है। वैसे भी अपने देश में किसान, व्यापारी, नौकरीपेशा लोग आर्थिक तंगी और कर्जों के कारण आत्महत्या करते रहते हैं। कोरोना काल में तो अच्छे-अच्छों को खाली हाथ हो जाना पड़ा। घर के सदस्यों के कोरोनाग्रस्त होने के बाद अस्पताल पहुंचने पर असंख्य लोगों की उम्रभर की जमापूंजी हवा हो गई। महंगे इलाज ने उनके घर-परिवार का ही नहीं उनका भी दिमागी हुलिया बिगाड़ दिया। यह कलमकार ऐसे लोगों से वाकिफ है, जिनके परिवार के सदस्य एक-एक कर बिस्तर पकड़ते चले गये और उनकी जेबें कटती चली गयीं। जब जेबें पूरी तरह से खाली हो गयीं तो साहूकारों से ऊंचे ब्याज पर हजारों, लाखों रुपये का कर्ज लेना पड़ा। बाद में साहूकारों का कर्ज ना लौटा पाने की वजह से उन्हें अपने घर-घरौंदे पानी के मोल बेचने पड़े। अब जब मैं उन्हें फुटपाथ पर छोटे-मोटे सामान बेचकर किसी तरह से जिंदगी बसर करते देखता हूं तो उनकी हिम्मत और हौसले के प्रति नतमस्तक हो जाता हूं। कोरोना के महाविकट काल में कई लोगों ने आपदा में नये रास्ते चुनें, अवसर खोजे और दूसरों के लिए मिसाल बन गये...।
       रांची के व्यापारी निकुंज, निखिल और गौरव की बैग बनाने की फैक्टरी खूब धन बरसा रही थी। कोविड-19 ने जब श्रमिकों को अपने-अपने गांव लौटने को विवश कर दिया तो उनकी फैक्टरी पर ताले लग गये। तीनों पार्टनर पढ़े-लिखे हैं। उन्होंने अपना दिमाग दौड़ाया। मन में विचार आया कि यदि घर में ही बैठे रहे तो कहीं के नहीं रहेंगे। अपनी जमापूंजी चलती बनेगी और खाली हाथ हो जाएंगे। गौरव ने एमबीए किया हुआ है। निकुंज इंजीनियर हैं तो निखिल सीए हैं। उन्होंने मिल-बैठकर तय किया कि फिलहाल बैग की बिक्री तो होने से रही। कोरोना में हर किसी के लिए मास्क पहली जरूरत बन गया है। ऐसे में क्यों न मास्क का निर्माण किया जाए, जिसकी आज पूरे देश में मांग है। उन्होंने अपने कुछ करीबियों को भी अपनी योजना के बारे में बताया तो कुछ ने उनका मज़ाक तक उड़ाया। अदने से मास्क में कितना कमा लोगे? फिर यह कोरोना तो कुछ ही दिन का मेहमान है। यह हमेशा के लिए तो टिका रहने वाला नहीं है, लेकिन तीनों भागीदारों ने प्रशासन से अनुमति लेकर आसपास रहने वाले श्रमिकों को अपने यहां काम करने के लिए किसी तरह से राजी किया। श्रमिक भी निठल्ले बैठकर तंग आ चुके थे। उनके घर में ठीक से चूल्हा भी नहीं जल पा रहा था। इधर-उधर से जो राशन पानी मिल रहा था उसी से मन मारकर गुजारा करना पड़ रहा था। घर से बाहर कदम रखने की हिम्मत तक नहीं हो रही थी। तीनों मित्रों ने मास्क बनवाने प्रारंभ कर दिए। उनके कारखाने में बनने वाले मास्क की गुणवत्ता की वजह से धड़ाधड़ मांग भी बढ़ने लगी। देखते ही देखते उनके मास्क बाजार में छा गये। उसी दौरान उन्होंने देखा कि अस्पतालों में चादरों की खासी मांग है, तो उन्होंने एक बार प्रयोग में लायी जाने वाली चादरें भी बना कर अस्पतालों में भिजवानी प्रारंभ कर दी। इस तरह से उन्होंने 400 लोगों को रोजगार उपलब्ध तो करवाया ही और एक नया कारोबार खड़ा कर करोड़ों की कमायी कर ली।
    सूरत में वर्षों से साड़ी का खासा बड़ा कारोबार करते चले आ रहे हैं कैलाश हाकिम। उनकी हिमानी फैशन प्रा.लि. का बड़ा नाम है। जब कोरोना की वजह से लॉकडाउन लगा तो उनकी फैक्टरी में काम करने वाले कारीगरों ने अपने-अपने गांव जाने के लिए बोरिया बिस्तर बांध लिया। कैलाश के मन में विचार आया कि यदि यह कारीगर एक बार चले गये तो जल्दी वापस नहीं आएंगे। उन्होंने यह भी सोचा कि इन्ही की बदौलत ही तो उन्होंने अपार धन और नाम कमाया है। आज जब इन पर संकट के बादल छाये हैं तो उनका भी तो कोई फर्ज बनता है। उन्होंने तुरंत अपने यहां कार्यरत कारीगरों के रहने और खाने की व्यवस्था की। जिनमें ज़रा भी कोरोना के लक्षण थे, उनका समुचित इलाज करवाया। कारीगरों में भरपूर भरोसा जगाया कि मैं हर हाल में आपके साथ हूं और रहूंगा। कालांतर में जब प्रशासन ने लॉकडाउन में ढील देनी प्रारंभ की तो कैलाश हाकिम ने जोर-शोर से साड़ियों का निर्माण प्रारंभ कर दिया। महामारी के दौरान जो कपड़ा व्यापारी माल नहीं बिकने की वजह से निराश हो चुके थे, उनमें भी नयी आशा और विश्वास का संचार करते हुए एडवांस भुगतान कर साड़ियां बनाने के लिए कपड़ा खरीदा। कोरोना काल में अपने सैकड़ों कारीगरों और कपड़ा व्यापारियों का साथ देने वाले कैलाश हाकिम का मानना है कि कोरोना ने इंसानों को बहुत बड़ी सीख दी है। हम जिस समाज का अन्न खाते है, उसके बुरे वक्त में उसका साथ न देना घोर मतलबपरस्ती की निशानी है। कुछ व्यापारी-कारोबारी ऐसे भी रहे, जिन्होंने बहुत जल्दी हार मान ली। कर्ज और ब्याज की चिंता ने उनके सोचने-समझने की ताकत तक छीन ली। वे खुद तो मरे ही मरे अपनों की भी नृशंस हत्या कर डाली। कलमकार को इन हत्यारों से कोई सहानुभूति नहीं है। यह तो दुत्कार, फटकार और तिरस्कार के काबिल हैं...।
    मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के ऑटोपार्टस कारोबारी संजीव जोशी कर्ज के बोझ तले दबे थे। कोरोना ने उनके धंधे को चौपट कर दिया था। एक कर्ज को चुकाने के लिए दूसरा कर्ज ब्याज पर लेते-लेते थक गये थे। लेनदारों ने भी नाक में दम कर दिया था। पड़ोसी भी दुश्मन बन गये थे, लेकिन यह कोई ऐसी समस्याएं नहीं हैं, जो उद्योगपतियों, कारोबारियों, व्यापारियों की राह में कांटे नहीं बिछाती रही हों। हर अवरोध से टकराने वाले ही बुलंदियां छू पाते हैं।  लेकिन 67 वर्षीय संजीव जोशी को लड़ने की बजाय मरने की राह आसान लगी और खुद तो ज़हर पीकर मरे ही मरे, साथ में अपने पूरे परिवार को भी मार डाला।
कानपुर में डॉक्टर सुशील कुमार ने अपनी पत्नी और बेटी-बेटे को इतनी हैवानियत से मौत की नींद सुला दिया कि देखने-सुनने वालों की रूह कांप गयी। डॉक्टर का कॅरियर डांवाडोल हो रहा था और उस पर कोरोना के नये अवतार ओमीक्रान की दहशत ने उन्हें क्रूर हत्यारा बना दिया। हत्यारे ने अपनों की हत्याओं को जायज ठहराते हुए लिखा, ‘‘कोरोना का नया अवतार ओमिक्रान सबको मार डालेगा। अब लाशें नहीं गिननी हैं। मैं अपने परिवार को कष्ट में नहीं छोड़ सकता। अत: सभी को मुक्ति के मार्ग में छोड़कर जा रहा हूं।’’ इस बुजदिल नकारा डॉक्टर ने बड़ी आसानी से अपनों का खून तो कर दिया, लेकिन जब अपनी जान देने की बारी आयी तो पता नहीं कहां भाग खड़ा हुआ। यह शैतान डॉ. तब तक अपनी पत्नी के सिर पर हथौड़ा बरसाता रहा जब तक उसकी जान नहीं चली गयी। बेटी और बेटे का भी बड़ी क्रूरता से गला घोट कर उसने जल्लाद की भूमिका निभायी। बेटा इंजीनियरिंग कर रहा था। बेटी दसवीं में थी। मेरे मन-मस्तिष्क में बार-बार यह सवाल सिर उठाता है कि ऐसे कायरों को हत्यारे बनने का हक और हौसला कहां से मिलता है? अपनों का खून करते वक्त जब इनका दिल नहीं घबराता और हाथ-पांव नहीं कांपते तो हम इन्हें इनसान ही क्यों मानें? यह तो राक्षस हैं, जिन्हें ऊपर वाले ने गलती से इंसान बनाकर धरती पर भेज दिया है। अब तो अपनी भूल पर ऊपर वाला भी शर्मिंदा हो रहा होगा।

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