Thursday, December 23, 2021

पुरुषो जवाब दो...

    यह किस दुनिया के वासी हैं? दिमाग-विमाग है भी या यूं ही ये सांसद विधायक बन जाते हैं? इनके घरों में लड़कियां नहीं जन्मतीं! बस बेटे ही पैदा होते हैं? जब देखो तब लड़कियों को कोसते रहते हैं। उन्हें बोझ और कमतर मानते हुए राग-कुराग छेड़ते रहते हैं। इनकी निगाह में सारी आजादी और शिक्षा-दीक्षा के अधिकारी बेटे ही हैं। बेटियां तो पराया धन हैं। जितनी जल्दी छुटकारा मिल जाए, उतना अच्छा। बेटियों को नाम मात्र की स्कूली शिक्षा दिलवाना ही बहुत है। ज्यादा पढ़ेंगी तो लड़कों से आगे निकलने की हिमाकत करेंगी। ससुराल जाकर भी अकड़ दिखायेंगी। यह भूल जाएंगी कि पति तो परमेश्वर है। उसका बोला और कहा खुदा का आदेश है, जिसका पालन और अनुसरण करना हर पत्नी का कर्तव्य और धर्म है। सरकार तो बेवकूफ है। उसकी अक्ल मारी गई है, जो बेटियों को बेटों के बराबर खड़े करने के नियम-कानून बना रही है। कभी जमीन और आसमान की बराबरी हो पायी है? जमीन... जमीन है और आसमान... आसमान है, जिसकी ऊंचाई को लड़कियां नहीं छू सकतीं।
    बेटों को ऊंचा आकाश मानने वाले महानुभवों के कानों तक जैसे ही यह खबर पहुंची कि सरकार ने फैसला किया है कि लड़कियों की शादी भी 21 वर्ष की उम्र में होनी चाहिए तो वे छटपटाने लगे और अपनी प्रतिक्रियाओं की गोलियां दागने लगे। यह इनकी पैदाइशी सनक भी है और बीमारी भी..., जिसका इलाज तलाशा जा रहा है। यह पुराने रोगी इस भ्रम में हैं कि इनकी अंट-शंट दलीलों में बड़ा दम है। सुनने वाले इनकी वाहवाही करेंगे। जोरदार तालियां भी बजेंगी, लेकिन सच तो यह है कि जितने भी समझदार भारतीय हैं, राष्ट्र प्रेमी हैं, लड़कियों का भला चाहते हैं, उन्हें आकाश की बुलंदियों को छूते देखना चाहते है वे इनकी बक-बक पर थू-थू कर रहे हैं। हां, यह बकबक और बेअक्ली नहीं तो और क्या है? कि... ‘‘लड़कियों की शादी तो 16-18 साल की दहलीज छूने के साथ ही कर दी जानी चाहिए। उसके बाद उनके बहकने, भटकने और गलत निगाहों में आने और सताये जाने का खतरा बढ़ जाता है। जब तक लड़कियां सोलह-सत्रह साल की रहती हैं, तब तक उनमें आकर्षण बरकरार रहता है। उनके साथ शादी करने वाले युवकों की कतारें लगी रहती हैं। उसके बाद तो मां-बाप को लड़के वालों की चौखट पर नाक रगड़नी पड़ती है। मोटा दहेज देने का प्रलोभन भी देना पड़ता है। 18 साल की उम्र ही शादी के लिए एकदम उपयुक्त हैं। इस उम्र में शादी न होने पर उनके आवारा होने की संभवनाएं और मौके बढ़ जाते हैं। लड़कियां अगर उच्च शिक्षा हासिल करना चाहती हैं तो शादी के बाद भी उनके लिए दरवाजे खुले रहते हैं।’’
    कथन और यथार्थ के बीच कितना बड़ा फासला है इसका अंदाज बयानवीरों को नहीं है? या फिर हर जनहितकारी कदम का विरोध करना उनकी जन्मजात फितरत है? वे तो सवाल का जवाब देने से रहे, लेकिन मैं अपने पाठक मित्रों को बिहार की राजधानी पटना के एक गांव की महत्वाकांक्षी लड़की नेहा के बारे में बता रहा हूं। नेहा का अपने पैरों पर खड़े होने का सपना था। अच्छी तरह से पढ़-लिख कर बेहतर मुकाम पाने के बाद ही वह शादी करना चाहती थी, लेकिन उसके माता-पिता ने इस पुख्ता आश्वासन के साथ कि शादी के बाद भी उसकी पढ़ाई में कोई अड़ंगा नहीं आएगा, बिहार के सारण जिले के रहनेवाले त्रिलोकी कुमार के साथ शादी के रिश्ते में बांध दिया। शादी के चंद दिनों में ही उसकी समझ में आ गया कि पति और सास-ससुर उसे घर में कैद रखने के आकांक्षी हैं। वे कतई नहीं चाहते कि वह आगे की पढ़ाई जारी रखे और अपना करियर बनाने की सोचे। फिर भी नेहा ने उन्हें मनाने-समझाने की भरसक कोशिश की, लेकिन उनके कान पर तो जूं तक नहीं रेंगी। ऐसे में वह ससुराल से भाग खड़ी हुई। बाद में भेजी चिट्ठी में नेहा ने लिखा कि उसकी शादी यह कहकर कराई गई थी कि वह ससुराल में जाकर आगे की पढ़ाई पूरी कर सकती है। उसे करियर बनाने का भरपूर मौका मिलेगा, लेकिन ससुराल वाले जब आनाकानी करने लगे तो उसे मजबूरन वह कदम उठाना पड़ा, जो किसी को भी रास नहीं आनेवाला, लेकिन वह अपने जीवन के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकती। उसे हर हाल में अपने सपनों को साकार करना है। जिन्हें जो कहना और सोचना है... उनकी मर्जी...। नेहा के ससुराल छोड़कर भागने के बाद उसके माता-पिता ने थाने में ससुराल वालों के खिलाफ हत्या व शव गायब करने तक की रिपोर्ट दर्ज करवा दी। किसी ने किसी पुराने यार के साथ गायब हो जाने तो किसी ने पति पसंद नहीं आने के कारण भाग खड़े होने का शिगूफा छोड़ा। जितने मुंह उतनी बातें। बिलकुल वैसे ही जैसे लोगों की आदत है। उन्हें तो लड़कियों के पैदा होना ही शूल की तरह चुभता है। नारियों का पुरुषों को टक्कर देना उनका माथा घुमा देता है। उन्हें तो लड़कियों के मनपसंद कपड़े पहनना और रात को घर से बाहर निकलना भी नहीं सुहाता। उन्हें एक ही झटके में चरित्रहीन घोषित कर दिया जाता है। हर स्वाभिमानी नारी पर उंगलियां उठाने और उनपर शक करने वाले धुरंधर बड़ी आसानी से विधायक और सांसद भी बन जाते है! यही विद्वान विधानसभा में नसीहत देते हैं कि जब रेप होना ही है तो लेट जाओ और इसके मजे लो। बदतमीजी, मूर्खता, अभद्रता और बेहयायी के कीचड़ में डुबकियां लगाने वालों को टोका और रोका भी नहीं जाता! उलटे उनके बेहूदा प्रवचनों पर तालियां पीटी जाती हैं। ठहाके लगाये जाते हैं।
    महिलाएं तो कभी भी पुरुषों की राहों में कांटे नहीं बिछातीं। उन्होंने तो कभी भी पुरुषों के कहीं भी आने-जाने पर आपत्ति नहीं जतायी। वे तो उनको मिलने वाली सुविधाओं और तरक्की पर खुश होती हैं। यह पुरुष ही क्यों नारी के खिलाफ ज़हर उगलने से बाज़ नहीं आते? क्या नारी को अपने सपनों को साकार करने का हक नहीं? क्या वह बेअदबी और बलात्कार होने पर चुप रहे? एसे अनगिनत सवाल हैं, जिनके उसे जवाब चाहिए। जब अधिकांश लोग ही तमाशबीन हैं। समाज भी उनकी मुट्ठी में है, तो आज की नारी इनकी क्यों सुने, क्यों न अपनी मनपसंद राह चुने? अब वह किसी की गुलाम होकर नहीं जीना चाहती। उसने भी दुनिया देखी है। इतिहास की किताबें पढ़ी हैं। वह पुरुष सत्ता की फितरत से अनजान नहीं है। उसने कभी नहीं कहा कि देवी मानकर मेरी पूजा करो। वह तो बस समानता का अधिकार चाहती है। बातें...बातें और आश्वासन सुनते-सुनते वह थक गई है। पता नहीं किसने यह पंक्तियां लिखी हैं, जो नारी की आकांक्षा, पीड़ा और पसंद, नापसंद को बखूबी बयान करती हैं,
‘‘तुमने कहा था हम एक ही हैं
तो अपने बराबर कर दो न
तुम क्रिकेट भी अपनी देखो
मैं सीरियल अपना भी लगाऊंगी
तुम थोड़ा हाथ बंटा देना
मैं जब भी किचन में जाऊंगी
मत करो वादे जन्मों के
इस पल खुशी की वजह दो न
कभी तुम भी सिर दबा दो मेरा
यह भी कमी एक खलती है
कभी बाजारों से ध्यान हटे तो
मकां को घर भी कर दो ना
आओ पास बैठो कुछ बातें करें
कभी दिल के जख्म भी भर दो न
तुमने कहा था हम एक ही हैं
तो अपने बराबर कर दो न।’’

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